हमन है इश्क मस्ताना




क्या यह हिंदी की पहली ग़ज़ल है ?

कबीर साहब का प्रमुख ग्रंथ ‘बीजक‘ माना जाता है। इसमें तीन प्रकार की रचनाएं सम्मिलित हैं- साखी, सबद और रमैनी। यहां कबीर की एक ऐसी रचना प्रस्तुत है जो न तो बीजक में है और न ही श्याम सुंदर दास रचित ‘कबीर ग्रंथावली‘ में।


प्रतीत होता है कि विशुद्ध ग़ज़ल शैली में लिखी गई यह आध्यात्मिक रचना कबीर द्वारा कही गई न होकर किसी परवर्ती कबीरपंथी साधु द्वारा लिखी गई । रचना की अंतिम पंक्ति यानी मक़्ते में कबीर शब्द आने के कारण इसे कबीर कृत मान लिया गया। प्राचीन ग्रंथों में इस तरह की प्रक्षिप्त रचनाएं मिलती रही हैं। आज से लगभग 100 वर्ष पूर्व वेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद से 4 भागों में  प्रकाशित ‘कबीर साहब की शब्दावली‘ नामक पुस्तक प्रकाशित हुई थी। इसी पुस्तक में अन्य पदों के साथ ग़ज़ल शैली की यह एकमात्र रचना भी संकलित है।


यदि यह कबीर द्वारा कही गई है तो क्या इसे हिंदी की पहली ग़ज़ल कह सकते हैं ?

हमन है इश्क़ मस्ताना, हमन को होशियारी क्या,
रहें आजाद या जग में, हमन दुनिया से यारी क्या।

जो बिछड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में, हमन को इंतज़ारी क्या।

खलक सब नाम जपने को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरु नाम सांचा है, हमन दुनिया से यारी क्या।

न पल बिछड़ें पिया हमसे, न हम बिछड़ें पियारे से,
उन्ही से नेह लागी है, हमन को बेक़रारी क्या।

कबीरा इश्क़ का नाता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाजुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या।


दूरदर्शन धारावाहिक ‘कबीर‘ में कबीर की भूमिका निभाने वाले अन्नू कपूर ने इस ग़ज़ल 
को अपना स्वर दिया है, बिना वाद्य के। सुनना चाहें तो यहां सुन लीजिए।

                                                                                                 -महेन्द्र वर्मा

दोहे: तन-मन-धन-जन-अन्न


जहाँ-जहाँ पुरुषार्थ है, प्रतिभा से संपन्न, 
संपति पाँच विराजते, तन-मन-धन-जन-अन्न।


दुख है जनक विराग का, सुख से उपजे राग,
जो सुख-दुख से है परे, वह देता सब त्याग।


ऐसी विद्या ना भली, जो घमंड उपजात,
उससे तो मूरख भले, जाने शह ना मात।


ईश्वर मुझको दे भले, दुनिया भर के कष्ट,
पर मिथ्या अभिमान को , मत दे, कर दे नष्ट।


जो भी है इस जगत में, मिथ्या है निस्सार,
माँ की ममता सत्य है,  करें सभी स्वीकार।


                                                                              -महेन्द्र वर्मा

झिलमिल झिलमिल झिलमिल


दीपों से आलोकित
डगर-डगर, द्वार-द्वार।


पुलकित प्रकाश-पर्व,
तम का विनष्ट गर्व,
यत्र-तत्र छूट रहे
जुग-जुगनू के अनार।


नव तारों के संकुल,
कोरस गाएं मिलजुल,
संगत करते सुर में,
फुलझडि़यों के सितार।


सब को शुभकामना,
सुख से हो सामना,
झिलमिल झिलमिल झिलमिल,
खुशियां छलके अपार।

                                          -महेंद्र वर्मा

संत कवि परसराम


संत कवि परसराम का जन्म बीकानेर के बीठणोकर कोलायत नामक स्थान पर हुआ था। इनका जन्म वर्ष संवत 1824 है और इनके देहावसान का काल पौष कृष्ण 3, संवत 1896 है। परसराम जी संत रामदास के शिष्य थे।
राम नाम को सार रूप में ग्रहण करके संत कवि ने वचन पालन, नाम जप, सत्संगति करना, विषय वासनाओं का त्याग, हिंसा का त्याग, अभिमान का त्याग तथा शील स्वभाव अपनाने पर जोर दिया।
उनका कहना है कि अंत समय में सभी को मरना है, फिर जब तक जीवन है तब तक सुकर्म ही करना चाहिए। परसराम के काव्य में सहज भावों की अभिव्यक्ति सहज भाषा में की गई है। उनकी भाषा में राजस्थानी और खड़ी बोली का पुट दिखाई देता है। उन्होंने अधिकांश उपदेश छप्पय छंद में लिखे हैं। दोहों में जगत और जीवन के संजीवन बोध को प्रकट किया है जो अत्यंत सहज और सरल है।

प्रस्तुत है संत परसराम जी रचित कुछ दोहे-

प्रथम शब्द सुन साधु का, वेद पुराण विचार,
सत संगति नित कीजिए, कुल की काण विचार।

झूठ कपट निंदा तजो, काम क्रोध हंकार,
दुर्मति दुविधा परिहरो, तृष्णा तामस टार।

राग दोस तज मछरता, कलह कल्पना त्याग,
संकलप विकलप मेटि के, साचे मारग लाग।

पूरब पुण्य प्रताप सूं, पाई मनखा देह,
सो अब लेखे लाइए, छोड़ जगत का नेह।

धीरज धरो छिमा गहो, रहो सत्य व्रत धार,
गहो टेक इक नाम की,  देख जगत जंजार।

दया दृष्टि नित राखिए, करिए पर उपकार,
माया खरचो हरि निमित, राखो चित्त उदार।

जल को पीजे छानकर, छान बचन मुख बोल,
दृष्टि छान कर पांव धर, छान मनोरथ तोल।

जति पांति का भरम तज, उत्तम करमा देख,
सुपात्तर को पूजिए, का गृहस्थ का भेख।

कहाँ तुम चले गए / 10.10.2011



दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है



कलाकार
ईश्वर की सबसे प्यारी संतान होता है।
हे ईश्वर !
तुम जब भी अपनी बनाई दुनिया के
तमाम दंद-फंद से
कुछ पलों के लिए अलग होकर
अकेले होना चाहते  होगे,
अपने आत्म के सबसे करीब बेठना चाहते होगे,
मुझे यकीन है, 
उस समय तुम जगजीत सिंह को सुनते होगे।
हे ईश्वर ! 
अपनी आत्मा पर लगी हुई हर खुरच को
तुम जगजीत की आवाज के मखमल से
पोंछा करते होगे। 
मुझे यकीन है !

                                                                      -गीत चतुर्वेदी




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 दुनिया थोड़ी भली लगेगी



बज़्मे-ज़ीस्त सजाकर देख,
क़ुदरत के संग गा कर देख।


घर आएगा नसीब तेरा,
अपना पता लिखाकर देख।


रब तो तेरे दिल में ही है, 
सर को ज़रा झुका कर देख।


जानोगे हमदर्द कौन है,
कोई साज बजा कर देख।


क़ुदरत नेमत बाँट रही है,
दामन तो फैला कर देख।


दिल के ज़ख़्म कहाँ भरते हैं,
आँसू चार बहा कर देख।


दुनिया थोड़ी भली लगेगी,
ख़ामोशी अपना कर देख।

                                        -महेंद्र वर्मा

देहि सिवा बर मोहि इहै


 गुरु गोविंदसिंह जी विरचित सुविख्यात ग्रंथ ‘श्री दसम ग्रंथ‘ एक अद्वितीय आध्यात्मिक और धार्मिक साहित्य है। इस ग्रंथ में गुरु जी ने लगभग 150 प्रकार के वार्णिक और मात्रिक छंदों में भारतीय धर्म के ऐतिहासिक और प्रागैतिहासिक पात्रों के जीवन-वृत्तों की जहाँ एक ओर पुनर्रचना की है, वहीं देवी चंडी के प्रसंगों एवं चैबीस अवतारों के माध्यम से लोगों में धर्म-युद्ध का उत्साह भी भरा है।

 ‘जापु‘, ‘अकाल उसतति‘, ‘तैंतीस सवैये‘ आदि रचनाएँ आध्यात्मिक विकास एवं मानसिक उत्थान के मार्ग में आने वाले अवरोधों और उनके निराकरण का मार्ग प्रस्तुत करते हुए प्रेम को भगवद्प्राप्ति का सबल साधन मानती हैं।

‘चंडी चरित‘, ‘चंडी दी वार‘ स्त्री शक्ति को स्थापित करते हुए समाज में स्त्री को उचित सम्मान दिलाने का संकेत करती हैं।

प्रस्तुत है, ‘श्री दसम ग्रंथ‘ के अंतर्गत ‘चंडी चरित्र उकति बिलास‘ से उद्धरित आदिशक्ति देवी शिवा की अर्चना-

देहि सिवा बर मोहि इहै, सुभ करमन ते कबहूँ न टरौं।
न डरौं अरि सों जब जाई लरौं, निसचै करि आपनि जीत करौं।।
अरु सिखहों आपने ही मन को, इह लालच हउ गुन तउ उचरौं।
जब आव की अउध निदान बनै, अति ही रन में तब जूझ मरौं।।

अर्थ- हे परम पुरुष की कल्याणकारी शक्ति ! मुझे यह वरदान दो कि मैं शुभ कर्म करने में न हिचकिचाऊँ। रणक्षेत्र में शत्रु से कभी न डरूँ और निश्चयपूर्वक युद्ध को अवश्य जीतूँ। अपने मन को शिक्षा देने के बहाने मैं हमेशा ही तुम्हारा गुणानुवाद करता रहूँ तथा जब मेरा अंतिम समय आ जाए तो मैं युद्धस्थल में धर्म की रक्षा करते हुए प्राणों का त्याग करूँ।

दोहे : गूँजे तार सितार


कभी सुनाती लोरियाँ, कभी मचातीं शोर,
जीवन सागर साधता, इन लहरों का जोर।


कटुक वचन अरु क्रोध में, चोली दामन संग,
एक बढ़े दूसर बढ़े, दोनों का इक रंग।


साथ न दे जो कष्ट में, दुश्मन उसकों जान,
दूरी उससे उचित है, मन में लो यह ठान।


 द्वेषी मानुष आपनो, कहे न मन की बात,
केवल पर के हृदय में, पहुँचाए आघात।


ज्यों मिजरब की चोट से, गूँजे तार सितार,
तैसे नेहाघात से, हृदय ध्वनित सुविचार।


जो मनुष्य कर ना सके, नारी का सम्मान,
दया क्षमा अरु नेह का, नहीं पात्र वह जान।


मान प्रतिष्ठा के लिए, धन आवश्यक नाहिं,
सद्गुण ही पर्याप्त है, गुनिजन कहि-कहि जाहिं।


                                                                            -महेंद्र वर्मा