सोचिए ज़रा



कितनी लिखी गई किताब सोचिए ज़रा,
क्या मिल गए सभी जवाब सोचिए ज़रा।

काँटों बग़ैर ज़िंदगी कितनी अजीब हो,
अब खिलखिला रहे गुलाब सोचिए ज़रा।

ज़र्रा है तू अहम विराट कायनात का,
भीतर उबाल आफ़ताब सोचिए ज़रा।

चले उकेर के हथेलियों पे हम लकीर,
तकदीर माँगता हिसाब सोचिए ज़रा।
 

दरपन दिखा रहा तमाम शक्ल इसलिए,
उसने पहन रखा नक़ाब सोचिए ज़रा


                                                    -महेन्द्र वर्मा

आगत की चिंता नहीं



धनमद-कुलमद-ज्ञानमद, दुनिया में मद तीन,
अहंकारियों से मगर, मति लेते हैं छीन।

गुणी-विवेकी-शीलमय, पाते सबसे मान,
मूर्ख किंतु करते सदा, उनका ही अपमान।

जला हुआ जंगल पुनः, हरा-भरा हो जाय,
कटुक वचन का घाव पर, भरे न कोटि उपाय।

चिंतन और विमर्श में, गुणीजनों का नाम,
व्यर्थ कलह करना मगर, मूर्खों का है काम।

मूर्ख-अहंकारी-पतित, क्रोधी अरु मतिहीन,
इनका संग न कीजिए, कहते लोग कुलीन।

जो जैसा भोजन करे, वैसा ही मन जान,
गुण उसके अनुरूप हो, वैसी हो संतान।

आगत की चिंता नहीं, गत का करें न शोक,
वर्तमान सुध लीजिए, सुख पाएं इहलोक।


                                                                                        -महेन्द्र वर्मा

उम्र भर



जख़्म सीने में पलेगा उम्र भर,
गीत बन-बन कर झरेगा उम्र भर।

घर का हर कोना हुआ है अजनबी,
आदमी ख़ुद से डरेगा उम्र भर।

जो अंधेरे को लगा लेते गले,
नूर उनको क्या दिखेगा उम्रं भर।

दिल के किस कोने में जाने कब उगा,
ख़्वाब है मुझको छलेगा उम्र भर।

कर रहा कुछ और कहता और है,
वो मुखौटा ही रखेगा उम्र भर।

छल किया मैंने मगर नेकी समझ,
याद वो मुझको करेगा उम्र भर।

वक़्त की परवाह जिसने की नहीं,
हाथ वो मलता रहेगा उम्र भर।

                                                                     -महेन्द्र वर्मा