जिस्म पर फफोले

पराबैगनी किरणों के
एक समूह ने
ओजोन छिद्र से
धरती की ओर झांका
सयानी किरणों के
निषेध के बावजूद
कुछ ढीठ, उत्पाती किरणें
धरती पर उतर आर्इं
विचरण करने लगीं
बाग-बगीचों, नदी-तालाबों और
सड़कों-घरों में भी
कुछ पल बाद ही
मानवों के इर्द-गिर्द
घूमने वाली पराबैगनी किरणें
चीखती-चिल्लातीं
रोती-बिलखतीं
आसमान की ओर भागीं
उनके जिस्म पर
फफोले उग आए थे
कटोरों के आकार के
कराहती हुर्इ
वे कह रही थीं-
हाय !
कितनी भयानक
और घातक हैं
मनुष्यों से
निकलने वाली
'मनोकलुष किरणें' !

                                 -महेन्द्र वर्मा


15 comments:

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

सुंदर सृजन!बेहतरीन रचना के लिए बधाई!महेंद्र जी,

RECENT POST : बिखरे स्वर.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

पराबैगनी किरणों से भी घातक.... सटीक और यथार्थ को कहती सुंदर रचना ।

Vandana Ramasingh said...

कितनी भयानक
और घातक हैं
मनुष्यों से
निकलने वाली
'मनोकलुष किरणें' !

सटीक व्यंग्य !!!

Asha Lata Saxena said...

नया सोच लिए रचना |शानदार |

डॉ. मोनिका शर्मा said...

प्रभावी, सटीक अभिव्यक्ति

दिगम्बर नासवा said...

रासायनिक किरनें भी डर गह्यीं इंसानी किरणों से ... शायद किसी नेता के टकरा गयीं होंगी ...
सटीक, प्रभावी रचना ...

Bharat Bhushan said...

वाह. क्या बात है. मनोकलुष किरणें....बहुत खूब नाम दिया है.

Amrita Tanmay said...

'मनोकलुष किरणें' क्या सूक्ष्म परख है आपकी.. वाह!

Harihar (विकेश कुमार बडोला) said...

कड़वे सच को दर्शाती कविता।

संजय भास्‍कर said...

और घातक हैं
मनुष्यों से
निकलने वाली
'मनोकलुष किरणें' !

........ सटीक अभिव्यक्ति

Neeraj Neer said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (23.09.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी, ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें .

virendra sharma said...


हाय !
कितनी भयानक
और घातक हैं
मनुष्यों से
निकलने वाली
'मनोकलुष किरणें' !

नेता पे पड़ के उलटे पाँव लौट जाएँ ,

लौट के फिर कभी न आयें।

कालीपद "प्रसाद" said...

सुन्दर बेहतरीन रचना बधाई!
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Kailash Sharma said...

कितनी भयानक
और घातक हैं
मनुष्यों से
निकलने वाली
'मनोकलुष किरणें' !

...लाज़वाब और सटीक व्यंग....

गिरिजा कुलश्रेष्ठ said...

अज्ञेय जी ने कुछ इसी तरह साँप के माध्यम से कहा है--
साँप तुम सभ्य तो नही हुए
शहर में बसना भी तुम्हें नही आया
फिर कहाँ सीखा डसना
और जहर कहाँ पाया ।
बहुत बढिया ।