जाने -पहचाने बरसों के फिर भी वे अनजान लगे,
महफ़िल सजी हुई है लेकिन सहरा सा सुनसान लगे ।इक दिन मैंने अपने ‘मैं’ को अलग कर दिया था ख़ुद से,
अब जीवन की हर कठिनाई जाने क्यों आसान लगे ।
चेहरे उनके भावशून्य हैं आखों में भी नमी नहीं,
वे मिट्टी के पुतले निकले पहले जो इन्सान लगे ।
उजली-धुँधली यादों की जब चहल-पहल सी रहती है,
तब मन के आँगन का कोई कोना क्यों वीरान लगे ।
होते होंगे और कि जिनको भाती है आरती अज़ान,
हमको तो पूजा से पावन बच्चों की मुस्कान लगे ।
-महेन्द्र वर्मा
11 comments:
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 26 नवम्बर 2017 को साझा की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
वाह ... दार्शनिकता लिए शेर सीधे मन में उतरते हैं
इक दिन मैंने अपने मैं को .. कमाल का शेर है दूर की बात कहता हुआ ...
आपकी यह ग़ज़ल उदासी से मुस्कान तक के सफ़र को सहज दर्शन बना देती है.
होते होंगे और कि जिनको भाती है आरती अज़ान,
हमको तो पूजा से पावन बच्चों की मुस्कान लगे।
यह शे'र इंसानी मासूमियत ऊँचाई देता है.
शानदार.....बधाई और शुभकामनाये
वाह!!!
लाजवाब गजल....
बहुत ही सुन्दर।
दिनांक 28/11/2017 को...
आप की रचना का लिंक होगा...
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी इस चर्चा में सादर आमंत्रित हैं...
Blogger Renu said...
आदरणीय महेंद्र जी --- आपके ब्लॉग पर पहली बार आकर आपकी भावपूर्ण सुंदर रचना पढ़ी | बहुत अच्छी लगी | सराहनीय रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई प्रेषित करती हु |
Nov 28, 2017, 3:10:00 PM Delete
चेहरे उनके भावशून्य हैं आखों में भी नमी नहीं,
वे मिट्टी के पुतले निकले पहले जो इन्सान लगे ।
.....कमाल का शेर है नव वर्ष की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ ।
चेहरे उनके भावशून्य हैं आखों में भी नमी नहीं,
वे मिट्टी के पुतले निकले पहले जो इन्सान लगे ।सुन्दर पंक्तियाँ
मुस्कान सी खूबसूरत ।
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