मंजर कैसे-कैसे


मंजर      कैसे-कैसे     देखे,
कुछ हँस के कुछ रो के देखे।

बड़ी भीड़ थी, सुकरातों के-
ऐब    ढूंढते-फिरते   देखे।

घर के भीतर घर, न जाने-
कितने बनते-गिरते देखे।

पूछा, कितने  बसंत  गुजरे, 
इतने पतझर कहते देखे।

शब्दों के नश्तर के आगे,
बेबस मौन सिसकते देखे।

गए  दूसरों  को  समझाने,
खुद को ही समझाते देखे।

कुछ ही साबुत इंसां-से थे,
बाकी  आड़े-तिरछे  देखे।

                                                        - महेन्द्र वर्मा

                         

                         

श्रद्धा और तर्क


श्रद्धा किसी व्यक्ति के प्रति भी हो सकती है और किसी अलौकिक शक्ति के प्रति भी। दोनों में सम्मान और विश्वास का भाव निहित होता है।
 

किसी व्यक्ति के प्रति श्रद्धा की दो स्थितियां हो सकती हैं। प्रथम, लौकिक श्रद्धा- जब श्रद्धालु को यह विश्वास हो जाता है कि श्रद्धेय ने उसके लिए लौकिक कार्यों में निस्स्वार्थ भाव से लौकिक रीति से उपकार किया है। इस विश्वास के संदर्भ में श्रद्धालु के पास पर्याप्त तर्क होते हैं जिसके आधार पर विश्वास की पुष्टि की जा सकती है। ऐसे श्रद्धेय व्यक्ति समाज-परिवार के उपकारी, विद्वान, गुणी व्यक्ति होते हैं।
 

द्वितीय, अलौकिक श्रद्धा-जब श्रद्धालु को यह विश्वास हो जाता है कि श्रद्धेय ने उसके लौकिक-अलौकिक कार्यों में अलौकिक रीति से उपकार किया है। इस विश्वास के संदर्भ में भी श्रद्धालु के पास पर्याप्त तर्क हो सकते हैं। लेकिन इन तर्कों के आधार पर विश्वास की पुष्टि नहीं की जा सकती। इस श्रेणी के श्रद्धेय व्यक्ति स्वयं को किसी अलौकिक शक्ति का प्रतिनिधि मानते हैं या समूह विशेष के द्वारा मान लिए जाते हैं।
 

उक्त दोनों स्थितियों के ‘विश्वास‘ में अंतर है। पहली स्थिति के ‘विश्वास‘ की पुष्टि तथ्य और तर्क के द्वारा की जा सकती है। किंतु दूसरी स्थिति के ‘विश्वास‘ की पुष्टि के लिए ऐसे तथ्य प्रस्तुत किए जाते हैं जिसकी पुष्टि तर्क के द्वारा नहीं की जा सकती। रोचक बात यह है कि दूसरी स्थिति का ‘विश्वास‘ प्रमाणित न होने पर भी ‘दृढ विश्वास‘ में बदल जाता है। पह़ली स्थिति के ‘विश्वास‘ को प्रमाणित होने के बावजूद कोई ‘दृढ़ विश्वास‘ नहीं कहता।
प्रमाणित न होने पर भी विश्वास करना सामान्य मनोदशा का कार्य नहीं है। मन की विशेष दशा में ही ऐसा संभव है जिसे विभ्रम hallucination कहते हैं। यद्यपि विभ्रमजनित यह विश्वास भी अधिकांश लोगों के लिए लाभकारी होता है।
श्रद्धा और विश्वास समानुपाती होते हैं, विशेषकर तब, जब विश्वास विभ्रम से उत्पन्न हो। लेकिन  ‘विभ्रमित विश्वास से उत्पन्न श्रद्धा‘ और तर्क व्युत्क्रमानुपाती होते हैं। जैसे-जैसे तर्क में कमी होगी, श्रद्धा बढ़ती जाएगी। गणितीय ढंग से कहें तो तर्क के शून्य होने पर श्रद्धा अनंत होगी और श्रद्धा के शून्य होने पर तर्क अनंत होगे।
 

प्रकृति की घटनाओं का अध्ययन-विश्लेषण करने वालों की विभ्रमित श्रद्धा का शून्य होना  आवश्यक है। इसी प्रकार अलौकिक शक्तियों के प्रति श्रद्धा रखने वाले स्वयं को तर्क से दूर रखते हैं।
 

 श्रद्धा और तर्क दो अलग-अलग नाव हैं, दोनों में पांव रखने से डूबना निश्चित है।

                                                                               -महेन्द्र वर्मा

ख़ामोशी

तन्हाई में जिनको सुकून-सा मिलता है,
आईना भी उनको दुश्मन-सा लगता है।

दिल में उसके चाहे जो हो तुझको क्या,
होठों से तो तेरा नाम जपा करता है।

तेरी जिन आंखों में फागुन का डेरा था,
बात हुई क्या उनमें अब सावन बसता है।

वो तो दीवाना है उसकी बातें छोड़ो,
अपने ग़म को ही अपनी ग़ज़लें कहता है।

ख़ामोशी भी कह देती है सारी बातें,
दिल की बातें कब कोई मुंह से कहता है।

                                                 
                                                  -महेन्द्र वर्मा

सद्गुण ही पर्याप्त है

   
पुष्पगंध विसरण करे, चले पवन जिस छोर,
किंतु कीर्ति गुणवान की, फैले चारों ओर ।

ग्रंथ श्रेष्ठ गुरु जानिए, हमसे कुछ नहिं लेत,
बिना क्रोध बिन दंड के, उत्तम विद्या देत ।

मान प्रतिष्ठा के लिए, धन आवश्यक नाहिं,
सद्गुण ही पर्याप्त है, गुनिजन कहि कहि जाहिं ।

जो जो हैं पुरुषार्थ से, प्रतिभा से सम्पन्न,
संपति पांच विराजते, तन मन धन जन अन्न ।

पाने की यदि चाह है, इतना करें प्रयास,
देना पहले सीख लें, सब कुछ होगा पास ।

आलस के सौ वर्ष भी, जीवन में है व्यर्थ,
एक वर्ष उद्यम भरा, महती इसका अर्थ ।

विपदा को मत कोसिए, करती यह उपकार,
बिन खरचे मिलता विपुल, अनुभव का संसार ।

                                             
                                                                                    -महेन्द्र वर्मा

बुरा लग रहा था



कोई शख़्स ग़म से घिरा लग रहा था,
हुआ जख़्म उसका हरा लग रहा था।

मेरे दोस्त ने की है तारीफ़ मेरी,
किसी को मग़र ये बुरा लग रहा था।

ये चाहा कि इंसां बनूं मैं तभी से,
सभी की नज़र से गिरा लग रहा था।

लगाया किसी ने गले ख़ुशदिली से,
छुपाता बगल में छुरा लग रहा था।

मैं आया हूं अहसान तेरा चुकाने,
ये जिसने कहा सिरफिरा लग रहा था।

जो होने लगे हादसे रोज इतने,
सुना है ख़ुदा भी डरा लग रहा था।

ग़र इंसाफ तुझको दिखा हो बताओ,
वो जीता हुआ या मरा लग रहा था।

                                                              -महेन्द्र वर्मा

तेरा-मेरा-सब का

सबसे ज्यादा अपना है, 
वह जो मेरा साया है।

मन की आंखें खुल जातीं,
दिल में अगर उजाला है।

कुछ आखर कुछ मौन बचा,
यह मेरा सरमाया है।

दुनियादारी है क्या शै,
धुंआ-धुंआ सा दिखता है।

आंसू मुस्कानों से रिश्ता,
तेरा मेरा सब का है।

सुर में या बेसुर लेकिन,
जीवन सब का गाता है।

इतनी तेरी धूप, ये मेरी,
ये कैसा बंटवारा है।

                                                       -महेन्द्र वर्मा

ग़ज़ल






उतना ही सबको मिलना है,
जिसके हिस्से में जितना है।

क्यूं ईमान सजा कर रक्खा,
उसको तो यूं ही लुटना है।

ढोते रहें सलीबें अपनी, 
जिनको सूली पर चढ़ना है।

मुड़ कर नहीं देखता कोई, 
व्यर्थ किसी से कुछ कहना है।

जंग आज की जीत चुका हूं,
कल जीवन से फिर लड़ना है।

सूरज हूं जलता रहता हूं,
दुनिया को ज़िंदा रखना है।

बोल सभी लेते हैं लेकिन,
किसने सीखा चुप रहना है।

                                              -महेन्द्र वर्मा