मंजर कैसे-कैसे देखे,
कुछ हँस के कुछ रो के देखे।
बड़ी भीड़ थी, सुकरातों के-
ऐब ढूंढते-फिरते देखे।
घर के भीतर घर, न जाने-
कितने बनते-गिरते देखे।
पूछा, कितने बसंत गुजरे,
इतने पतझर कहते देखे।
शब्दों के नश्तर के आगे,
बेबस मौन सिसकते देखे।
गए दूसरों को समझाने,
खुद को ही समझाते देखे।
कुछ ही साबुत इंसां-से थे,
बाकी आड़े-तिरछे देखे।
- महेन्द्र वर्मा