प्रसिद्ध ग्रीक दार्शनिक सुकरात के पास एक युवक भाषण कला सीखने के उद्देश्य से आया। सुकरात ने स्वीकृति तो दी किंतु दुगुने शुल्क की मांग की। युवक आश्चर्य से बोला-‘मैं तो पहले से ही बोलने का अभ्यस्त हूं, फिर भी आप मुझसे दूने शुल्क की मांग क्यों कर रहे हैं ?‘ तब सुकरात ने कहा-‘तुम्हें बोलना नहीं बल्कि चुप रहना सिखाने में मुझे दुगुना श्रम करना पड़ेगा।‘
युवक आया था बोलना सीखने लेकिन सुकरात ने उसे पहले चुप रहना सिखाना चाहा । वास्तव में वही अच्छा बोल सकता है जिसे चुप रहना भी आता हो । बोलने और चुप रहने के ताने-बाने में मनुष्य सदैव ही उलझता आया है। मनुष्य के जीवन में सुख और दुख के जो प्रमुख कारण हैं, उनमें वाणी भी एक है। वाणी अर्थात शब्दों के समूह के रूप में जो भी बोला जाता है वही सुख का भी कारण है और वही दुख का भी । संत कबीर कहते हैं-
एक शब्द सुखरास है, एक शब्द दुखरास।
एक शब्द बंधन करै, एक शब्द गलफांस।।
वाणी के प्रभाव पर संतों ने गहनता से विचार किया था । उनके पदों में ऐसे विचारों का वर्णन हमें बहुत कुछ सिखाते हैं । संत दादूदयाल के शिष्य संत सुंदरदास ने भी वाणी के हितकर और अहितकर प्रभावों का निम्न पद में यथार्थ चित्रण किया है-
बचन ते दूर मिले, बचन ते बिरोध होइ,
बचन ते राग बढ़े, बचन ते द्वेष जू ।
बचन ते ज्वाल उठे, बचन ते शीतल होइ,
बचन ते मुदित होत, बचन ते रोष जू ।
बचन ते प्यारे लगे, बचन ते दूर भौ
बचन ते मुरझाए, बचन ते पोष जू ।
सुंदर कहत यह बचन को भेद ऐसो,
बचन ते बंध होत, बचन ते मोच्छ जू ।
उक्त पद में वाणी के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रभावों का उल्लेख है ।अंतिम पंक्ति में तो वाणी को बंधन आर मोक्ष का कारण भी कहा गया है ।
चाणक्य ने भी जीभ अर्थात वाणी को उन्नति और विनाश का कारण मानते हुए लिखा है-
जिह्वा यतौ वृद्धि विनाशौ ।
वाणी की इस द्वैधी प्रकृति को संतों ने बड़ी गहनता से अनुभूत किया था इसलिए उन्होंने वाणी के संयमित उपयोग के प्रति लोगों को सदैव सचेत किया। नीति के अनुसार वही ग्राह्य और मान्य होता है जो कल्याणकारी होता है । हम क्या बोलें, किस से बोलें, कब बोलें, कैसे बोलें, इन समस्याओं का समाधान करते हुए संत कबीर ने एक पद में यह संदेश दिया है-
बोलन कासों बोलिए रे भाई, बोलत ही सब तत्व नसाई,
बोलत बोलत बाढ़ विकारा, सो बोलिए जो पड़े विचारा।
मिलहिं संत वचन दुइ कहिए, मिलहिं असंत मौन होय रहिए।
पंडित सों बोलिए हितकारी, मूरख सों रहिए झखमारी।
कहहिं कबीर अर्ध घट डोले, पूरा होय बिचार लै बोले ।
उक्त रमैनी में वाणी का दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक और नैतिक विश्लेषण जिस संपूर्णता से संत कबीर ने किया है वह अन्यत्र अलभ्य है । ‘सो बोलिए जो पड़े विचारा’ कहकर उन्होंने परावाणी की ओर संकेत किया है । परावाणी क्या है ? वाणी के चार प्रकारों में बैखरी वाणी का उद्गम कंठ से , मध्यमा का मन से, परावाणी का हृदय से और पश्यंती का आत्मा से होता है । पश्यंती का प्रयोग केवल योगी कर सकते हैं । शेष तीनो में हृदय की गहराइयों से उत्पन्न परावाणी ही श्रेष्ठ है । वाणी विचारों की अभिव्यक्ति है और विचार मन से उत्पन्न होते हैं । इन विचारों को हृदय की विवेक-तुला से तौल कर मुंह से बोलें तो यही परावाणी होगी। कबीर ने कहा है-
बोली तो अनमोल है, जो कोई बोले जान।
हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आन।।
कन्फ्यूशियस ने भी कहा है-‘शब्दों को नाप तौल कर बोलो, जिससे तुम्हारी सज्जनता टपके।‘ परंतु विचारों को हृदय से तौलना कैसे संभव है ? इसका समाधान रमैनी की अंतिम पंक्ति में है- ‘कहहिं कबीर अर्ध घट डोले, पूरा होय बिचार ले बोले ।’ जिसका ज्ञानघट जितना ही अधिक भरा होगा उसका विचार उतनाही अधिक संतुलित और गहन होगा । अर्धघट से तो सदा विचारों का उथलापन ही छलकेगा ।
वाणी का अत्यधिक उपयोग प्रायः विकार उत्पन्न करता है, ‘बोलत बोलत बाढ़ विकारा’। इसलिए संयमित वाणी को विद्वानों ने अधिक महत्व दिया है। ऋषि नैषध कहते हैं-
‘मितं च सार वचो हि वाग्मिता‘
अर्थात, थोड़ा और सारयुक्त बोलना ही पाण्डित्य है। जैन और बौद्ध धर्मों में वाक्संयम का महत्वपूर्ण स्थान है।
कहावत भी है, ‘बात बात में बात बढ़ै‘, इसी संदर्भ में तुलसीदास जी की यह व्यंग्योक्ति बहुत बड़ी सीख देती है-
पेट न फूलत बिनु कहे, कहत न लागत देर।
सुमति विचारे बोलिए, समझि कुफेर सुफेर।।
भारतीय दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति ने कहा है-‘कम बोलो, तब बोलो जब यह विश्वास हो जाए कि जो बोलने जा रहे हो उससे सत्य, न्याय और नम्रता का व्यतिक्रम न होगा।‘ क्योंकि धनुष से छूटा तीर और मुंह से निकली बात कभी वापस नहीं हो सकते इसलिए बोलते समय सतर्क रहना चाहिए। कोई बात जब तक मुंह से नहीं निकली है तब तक वह हमारे वश में है किंतु जैसे ही वह हमारे मुंह से निकली हम उसके वश में हो जाते हैं । कबीर साहब के अनुसार-
शब्द संभारे बोलिए, शब्द के हाथ न पांव,
एक शब्द औषध करे, एक शब्द करे घाव।
वाणी प्रसूत दुखों के निराकरण के लिए संतों ने ‘तुलसी मीठे वचन ते सुख उपजत चहुं ओर’’ के अनुसार मधुर वाणी का समर्थन किया है किंतु अनेक महापुरुषों ने ‘मिलहिं असंत मौन होय रहिए’ कहकर मौन को महत्व दिया है ।फ्रांसीसी लेखक कार्लाइल ने कहा है कि मौन में शब्दों की अपेक्षा अधिक वाक्शक्ति है। गांधीजी ने भी मौन को सर्वोत्तम भाषण कहा है। सुकरात कहा करते थे-‘ईश्वर ने हमें दो कान दिए हैं और मुंह एक, इसलिए कि हम सुनें अधिक और बोलें कम।‘
किंतु व्यावहारिक जीवन में सदा मौन रहना संभव नहीं है इसलिए संत कबीर ने बोलते समय मध्यम मार्ग अपनाने का सुझाव दिया है-
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।
-महेन्द्र वर्मा