अक्स निशाने पर था रक्खा किसी और का,
शीशा टूट-टूट कर बिखरा किसी और का।
दरवाजे पर देख मुझे मायूस हुए वो,
शायद उनको इंतज़ार था किसी और का।
बहुत दिनों के बाद कहीं से ख़त इक आया,
नाम मगर उस पर लिक्खा था किसी और का।
यादों का इक रेला मन को तरल कर गया,
आंचल भिगो रहा अब होगा किसी और का।
दोस्त हमारे कतरा कर यूं निकल गए,
मेरा चेहरा समझा होगा किसी और का।
जब दीवारें अपनेपन के बीच खड़ी हों,
अपना आंगन लगने लगता किसी और का।
सुबह धूप का टुकड़ा उतरा देहरी पर,
रुका नहीं वह मेहमान था किसी और का।
-महेन्द्र वर्मा