आप भी






‘ग़र अकेले ऊब जाएं आप भी,
आईने से दिल लगाएं आप भी।


देखिए शम्आ की जानिब इक नज़र,
ज़िदगी को यूं लुटाएं आप भी।


हर अंधेरे में नहीं होता अंधेरा,
आंख से परदा हटाएं आप भी।


जान लोगे लोग जीते किस तरह हैं,
इक मुखौटा तो लगाएं आप भी।


भूल जाएं रंज अब ऐसा करें,
साथ मेरे गुनगुनाएं आप भी।


सब इसे कहते, ख़ुदा की राह है,
आशिक़ी को आज़माएं आप भी।


मैं कबीरा की लुकाठी ले चला हूं,
हो सके तो साथ आएं आप भी।

                                                       -महेन्द्र वर्मा

तितलियों का ज़िक्र हो





प्यार का, अहसास का, ख़ामोशियों का ज़िक्र हो,
महफिलों में अब जरा तन्हाइयों का ज़िक्र हो।


मीर, ग़ालिब की ग़ज़ल या, जिगर के कुछ शे‘र हों,
जो कबीरा ने कही, उन साखियों का ज़िक्र हो।


रास्ते तो और भी हैं, वक़्त भी, उम्मीद भी,
क्या जरूरत है भला, मायूसियों का ज़िक्र हो।


फिर बहारें आ रही हैं, चाहिए अब हर तरफ़,
मौसमों का गुलशनों का, तितलियों का ज़िक्र हो।


गंध मिट्टी की नहीं ,महसूस होती सड़क पर,
चंद लम्हे गांव की, पगडंडियों का ज़िक्र हो।


इस शहर की हर गली में, ढेर हैं बारूद के,
बुझा देना ग़र कहीं, चिन्गारियों का ज़िक्र हो।


दोष सूरज का नहीं है, ज़िक्र उसका न करो,
धूप से लड़ती हुई परछाइयों का ज़िक्र हो।

                                                                            -महेन्द्र वर्मा                                            

नया ज़माना

  



नाकामी को ढंकते क्यूं हो,
नए बहाने गढ़ते क्यूं हो ?


रस्ते तो बिल्कुल सीधे हैं,
टेढ़े-मेढ़े चलते क्यूं हो ?


तुमने तो कुछ किया भी नहीं,
थके-थके से लगते क्यूं हो ?


भीतर कालिख भरी हुई है,
बाहर उजले दिखते क्यूं हो ?


पैर तुम्हारे मुड़ सकते हैं,
चादर छोटी कहते क्यूं हो ?


कद्र वक़्त की करना सीखो,
छत की कड़ियां गिनते क्यूं हो ?


नया ज़माना पूछ रहा है,
मुझ पर इतना हंसते क्यूं हो ?


                        -महेन्द्र वर्मा

गुज़रा हुआ ज़माना ढूंढ




लम्हा  एक  पुराना  ढूंढ,
फिर खोया अफ़साना ढूंढ।


वे गलियां वे घर वे लोग,
गुज़रा हुआ ज़माना ढूंढ।


भला मिलेगा क्या गुलाब से,
बरगद  एक  सयाना  ढूंढ।


लोग बदल से गए यहां के,
कोई  और  ठिकाना  ढूंढ।


कुदरत में है तरह तरह के,
  सुंदर  एक  तराना ढूंढ।


दिल की गहराई जो नापे,
ऐसा  इक  पैमाना   ढूंढ।


प्रेम   वहीं  कोने पर बैठा,
दिल को ज़रा दुबारा ढूंढ।


जिस पर तेरा नाम लिखा हो,
ऐसा   कोई   दाना   ढूंढ।


                                          - महेन्द्र वर्मा

सारी दुनिया




तेरा  मुझसे  क्या  नाता  है, पूछ  रही  है  सारी  दुनिया,
अपनी मर्जी का मालिक बन, अड़ी खड़ी है सारी दुनिया।


बारूदी पंखुड़ी लगा कर, काल उड़ रहा आसमान में,
नागासाकी  न  हो  जाए, डरी  डरी  है सारी दुनिया।


जाने कितने पिण्ड सृष्टि के, ब्लैक होल में बदल गए,
धरती उसमें समा न जाए, सहम गयी है सारी दुनिया।


अनगिन लोग हैं जिनके सर पर, छत की छांव नहीं लेकिन,
मंगल ग्रह  पर  महल  बनाने, मचल  उठी है सारी दुनिया।


ढूंढ रहा था मैं दुनिया को, देखा जब तो सिहर गया,
लाशों के  मलबे के  नीचे, दबी  पड़ी  है सारी दुनिया।


संबंधों के  फूल  महकते, थे  जो  सारे  सूख  गए हैं,
ढाई आखर के मतलब को भूल चुकी है सारी दुनिया।


आंधी तूफां तो  जीवन  में, आते  जाते ही रहते हैं,
नई नई उम्मीदों से भी, भरी भरी है सारी दुनिया।


मां की ममता के आंगन में, थिरक रहा है बचपन सारा,
उसके आंचल  के  कोने  से, नहीं बड़ी है सारी दुनिया।

                                                               - महेन्द्र वर्मा

संत चरणदास




वि.सं. 1760 की भाद्रपद शुक्ल तृतीया, मंगलवार को मेवात के अंतर्गत डेहरा नामक स्थान में संत चरणदास का जन्म हुआ था। इनका पूर्व नाम रणजीत था। पांच-सात वर्ष की अवस्था में ही इन्हें कुछ आध्यात्मिक ज्ञान हो गया था। इनके गुरु का नाम शुकदेव था। संत चरणदास ने गुरु से दीक्षित होकर कुछ दिनों तक तीर्थाटन किया और बहुत दिनों तक ब्रजमंडल में रहकर श्रीमद्भागवत का अध्ययन किया। इनके अंतिम 50 वर्ष अपने मत के प्रचार में ही बीते। इन्होंने सं. 1839 की अगहन सुदी 4 को दिल्ली में अपना देह त्याग किया।
संत चरणदास को ग्रंथ रचना का अच्छा अभ्यास था। इनके द्वारा रचित 21 ग्रंथों का पता चलता है। ये ग्रंथ मुंबई और लखनउ से प्रकाशित हो चुके हैं। इनके मुख्य 12 ग्रंथों के प्रधान विषय योग साधना, भक्तियोग एवं ब्रह्म ज्ञान है। ये नैतिक शुद्धता के पूर्ण पक्षधर है और चित्त शुद्धि, प्रेम, श्रद्धा एवं सद्व्यवहार को उसका आधार मानते हैं। इनकी रचनाओें में इनकी स्वानुभूति के साथ-साथ अध्ययनशीलता का भी परिचय मिलता है।
प्रस्तुत है, संत चरणदास का एक पद-

साधो निंदक मित्र हमारा।
निंदक को निकटे ही राखो, होन न देउं नियारा।
पाछे निंदा करि अब धोवै, सुनि मन मिटै विकारा।
जैसे सोना तापि अगिन में, निरमल करै सोनारा।
घन अहिरन कसि हीरा निबटै, कीमत लच्छ हजारा।
ऐसे जांचत दुष्ट संत को, करन जगत उजियारा।
जोग-जग्य-जप पाप कटन हितु, करै सकल संसारा।
बिन करनी मम करम कठिन सब, मेटै निंदक प्यारा।
सुखी रहो निंदक जग माहीं, रोग न हो तन सारा।
हमरी निंदा करने वाला, उतरै भवनिधि प्यारा।
निंदक के चरनों की अस्तुति, भाखौं बारंबारा।
चरनदास कह सुनियो साधो, निंदक साधक भारा।


भावार्थ-
हे साधक, निंदा करने वाला तो हमारा मित्र है, उसे अपने पास ही रखो, दूर मत करो। भले ही वह निंदा करता है लेकिन उसे सुनकर हमारे मन के विकार नष्ट हो जाते हैं। जैसे सुनार सोने को आग में तपा कर और जौहरी हीरे को कठोर कसौटी में कसता है जिससे उसकी कीमत लाखों हजारों हो जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग जगत में प्रकाश फैलाने के लिए संतो की परख करते हैं। पूरा संसार योग, यज्ञ जप आदि से अपने पापों के नाश का उपाय करते हैं लेकिन बिना कुछ प्रयास किए मेरे कुटिल कर्मों को निंदक मिटा देता है। इस संसार में निंदक सुखी रहें, उन्हें कोई रोग न हो, उसे भवसागर से मुक्ति मिले। मैं उसके चरणों की वंदना करता हूं। चरणदास जी कहते हैं कि साधक के लिए निंदक महत्वपूर्ण है।

अजीब लोग हैं




नसीब को हैं कोसते अजीब लोग हैं, 
यूं ज़िदगी गुजारते, अजीब लोग हैं।


हमने कहा जो हां मगर, उसने कहा नहीं,
हर बात को नकारते, अजीब लोग हैं।


मरना है एक दिन ये जानते हुए भी वो,
सांसें उधार मांगते अजीब लोग हैं।


भीतर भरा हुआ फरेब छल कपट मगर,
ऊपर बदन संवारते, अजीब लोग हैं।


जिनका न कभी इल्म से नाता रहा कोई,
वो फलसफे बघारते, अजीब लोग हैं।


कुछ ने कहा ख़ुदा है, कुछ ने कहा नहीं,
बेकार वक़्त काटते, अजीब लोग हैं।