संत चरणदास




वि.सं. 1760 की भाद्रपद शुक्ल तृतीया, मंगलवार को मेवात के अंतर्गत डेहरा नामक स्थान में संत चरणदास का जन्म हुआ था। इनका पूर्व नाम रणजीत था। पांच-सात वर्ष की अवस्था में ही इन्हें कुछ आध्यात्मिक ज्ञान हो गया था। इनके गुरु का नाम शुकदेव था। संत चरणदास ने गुरु से दीक्षित होकर कुछ दिनों तक तीर्थाटन किया और बहुत दिनों तक ब्रजमंडल में रहकर श्रीमद्भागवत का अध्ययन किया। इनके अंतिम 50 वर्ष अपने मत के प्रचार में ही बीते। इन्होंने सं. 1839 की अगहन सुदी 4 को दिल्ली में अपना देह त्याग किया।
संत चरणदास को ग्रंथ रचना का अच्छा अभ्यास था। इनके द्वारा रचित 21 ग्रंथों का पता चलता है। ये ग्रंथ मुंबई और लखनउ से प्रकाशित हो चुके हैं। इनके मुख्य 12 ग्रंथों के प्रधान विषय योग साधना, भक्तियोग एवं ब्रह्म ज्ञान है। ये नैतिक शुद्धता के पूर्ण पक्षधर है और चित्त शुद्धि, प्रेम, श्रद्धा एवं सद्व्यवहार को उसका आधार मानते हैं। इनकी रचनाओें में इनकी स्वानुभूति के साथ-साथ अध्ययनशीलता का भी परिचय मिलता है।
प्रस्तुत है, संत चरणदास का एक पद-

साधो निंदक मित्र हमारा।
निंदक को निकटे ही राखो, होन न देउं नियारा।
पाछे निंदा करि अब धोवै, सुनि मन मिटै विकारा।
जैसे सोना तापि अगिन में, निरमल करै सोनारा।
घन अहिरन कसि हीरा निबटै, कीमत लच्छ हजारा।
ऐसे जांचत दुष्ट संत को, करन जगत उजियारा।
जोग-जग्य-जप पाप कटन हितु, करै सकल संसारा।
बिन करनी मम करम कठिन सब, मेटै निंदक प्यारा।
सुखी रहो निंदक जग माहीं, रोग न हो तन सारा।
हमरी निंदा करने वाला, उतरै भवनिधि प्यारा।
निंदक के चरनों की अस्तुति, भाखौं बारंबारा।
चरनदास कह सुनियो साधो, निंदक साधक भारा।


भावार्थ-
हे साधक, निंदा करने वाला तो हमारा मित्र है, उसे अपने पास ही रखो, दूर मत करो। भले ही वह निंदा करता है लेकिन उसे सुनकर हमारे मन के विकार नष्ट हो जाते हैं। जैसे सुनार सोने को आग में तपा कर और जौहरी हीरे को कठोर कसौटी में कसता है जिससे उसकी कीमत लाखों हजारों हो जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग जगत में प्रकाश फैलाने के लिए संतो की परख करते हैं। पूरा संसार योग, यज्ञ जप आदि से अपने पापों के नाश का उपाय करते हैं लेकिन बिना कुछ प्रयास किए मेरे कुटिल कर्मों को निंदक मिटा देता है। इस संसार में निंदक सुखी रहें, उन्हें कोई रोग न हो, उसे भवसागर से मुक्ति मिले। मैं उसके चरणों की वंदना करता हूं। चरणदास जी कहते हैं कि साधक के लिए निंदक महत्वपूर्ण है।

26 comments:

PN Subramanian said...

संत चरण दस जी के बारे तो सुना था परन्तु उनके ग्रन्थ की पंक्तियाँ देकर आपने उपकृत कर दिया. "साधक के लिए निंदक महत्वपूर्ण है।" क्या बात कही !

समय चक्र said...

बहुत बढ़िया रचना प्रस्तुति ..... आभार

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

जीवन दर्शन सिखाती महान संतवाणी!! वर्मा जी! परिचय करवाने का धन्यवाद!!

अरुण चन्द्र रॉय said...

जीवन दर्शन से भरी रचना..

सुज्ञ said...

निंदक मन मैल को दूर करने में सहायता करते है।:धन्य संतवाणी!! और धन्य संत श्री चरणदास जी।
प्रस्तूति के लिये वर्मा जी, आपका आभार

Sunil Kumar said...

जीवन दर्शन सिखाती बहुत बढ़िया रचना

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

बहुत सुन्दर वाणी है संत चरणदास जी के ...
शुक्रिया इतना सुन्दर पोस्ट के लिए ..

Shikha Kaushik said...

aise pad padhkar mere man me ye vichar aata hai ki hamare prasidh santon ko bahut hi nidaon ka samna karna pada hai aur unhone nindakon ko apni kshma bhavna ke karan uchch sthan dekar apni kshamasheelta ka hi prichay diya hai .bahut upyogi prastuti .

हरकीरत ' हीर' said...

संत चरनदास की बाणी गुरु ग्रन्थ साहिब में भी सम्मलित है ......
आपने लिखा तो यूँ लगा कहीं पदा सा है ......

निंदक को निकटे ही राखो, होन न देउं नियारा।
पाछे निंदा करि अब धोवै, सुनि मन मिटै विकारा।

निंदा करने वाला तो हमारा मित्र है, उसे अपने पास ही रखो, दूर मत करो। भले ही वह निंदा करता है लेकिन उसे सुनकर हमारे मन के विकार नष्ट हो जाते हैं......
गाँठ बाँधने yogy vichaar ......!!

उपेन्द्र नाथ said...

जीवन का सही मंत्र दिया है आपने संत चरनदास के माध्यम से....

vijai Rajbali Mathur said...

यही बात तुलसी दस जी ने भी अपने तरीके से कही है.वस्तुतः हमारे निंदक,आलोचक और विरोधी चौरेहे पर खड़े सिपाही की भांति हमें रोक कर खतरे से आगाह करते हैं.निश्चय ही वे ख्याल रखे जाने के अधिकारी हो गए.

मनोज कुमार said...

बहुत अच्छे भजन से मिलवाया। आभार।

डॉ. मोनिका शर्मा said...

जीवन दर्शन सिखाती सुन्दर वाणी है संत चरणदास जी की .....आभार

Bharat Bhushan said...

संतवाणी आज का युगधर्म है. आपको धन्यवाद साझा करने के लिए.

ѕнαιя ∂я. ѕαηנαу ∂αηι said...

अच्छी जानकारी अच्छी विवेचना । अभार।

Asha Joglekar said...

वर्मा जी चरण दास जी का ये पद ब्लॉगर्स के लिये तो बहुत ही आवश्यक और काम की चीज है । अगर ये दर्शन हम जान लें तो पिर क्या मुश्किल ।
जय चरण दास जी । जय वर्माजी ।

Kailash Sharma said...

संत चरण दास जी से परिचय कराने के लिए धन्यवाद.बहुत ही सुन्दर आलेख. आभार

ZEAL said...

.

संतों की वाणी से हमेशा ही शिक्षाप्रद होती है । आभार इस प्रस्तुति के लिए।

.

#vpsinghrajput said...

नमस्कार जी !
बहुत सुन्दर .... बेहतरीन

ashish said...

आभार संतवाणी को हमारे समक्ष रखने के लिए .

Dr Xitija Singh said...

संत चरण दास जी के बारे में जानकारी देने ... उनकी रचना से रूबरू करने और ... भावार्थ देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ...

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ said...

बाऊ जी,
नमस्ते!
सार्थक सन्देश!
आशीष
---
नौकरी इज़ नौकरी!

bilaspur property market said...

निंदक मित्र हमारा

virendra sharma said...

राधास्वामी सम्प्रदाय की एक बुजुर्ग महिला मेरे साथ सफर कर रहीं थीं। हम एक ही बोगी में थे दोनों स्वाध्याय में मग्न। मैंने उनसे पुट्स्क पुस्तक जो वह पढ़ रहीं थीं यत्सुकता वश तनिक देखने को मांगी -संत चरण दास की जीवन यात्रा। पुस्तक उन्होंने वापस नहीं ली मैं पूरी पढ़ गया। प्रस्तुत पद उनका नीतिपरक पद है अन्यत्र कबीर ने भी कहा है :


निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय ,

बिन पानी साबुन बिना निरमल होय सुभाय।



यहां भी निर्मल हो जाने के सन्दर्भ में निंदा का उल्लेख है। अक्सर हम स्तुति सुनने के आदि हैं निंदा से हम बौखला जाते हैं। सचेतक थे संत कल के ही नहीं सर्वकालिक। आपने महेंद्र वर्मा जी इसे व्याख्यायित करके मेरी तिश्नगी भी शांत की है। बधाई और शुक्रिया दोनों।

veeruvageesh.blogspot.com

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virendra sharma said...

यादगार यात्रा :राधास्वामी सम्प्रदाय की एक बुजुर्ग महिला मेरे साथ सफर कर रहीं थीं। हम एक ही बोगी में थे दोनों स्वाध्याय में मग्न। मैंने उनसे पुस्तक जो वह पढ़ रहीं थीं यत्सुकता वश तनिक देखने को मांगी -संत चरण दास की जीवन यात्रा। पुस्तक उन्होंने वापस नहीं ली मैं पूरी पढ़ गया। प्रस्तुत पद उनका नीतिपरक पद है अन्यत्र कबीर ने भी कहा है :



निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय ,

बिन पानी साबुन बिना निरमल होय सुभाय।



यहां भी निर्मल हो जाने के सन्दर्भ में निंदा का उल्लेख है। अक्सर हम स्तुति सुनने के आदि हैं निंदा से हम बौखला जाते हैं। सचेतक थे संत कल के ही नहीं सर्वकालिक। आपने महेंद्र वर्मा जी इसे व्याख्यायित करके मेरी तिश्नगी भी शांत की है। बधाई और शुक्रिया दोनों।



विशेष :उस बुजुर्ग आदरणीया ने अपनी सबसे प्रिय वस्तु मुझे यूं ही दे दी आग्रह पूर्वक। हम को सीख दे गई -अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु भी सुपात्र को देने में संकोच न करना।

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सन्दर्भ -सामिग्री :https://shashwat-shilp.blogspot.com/2010/11/blog-post_28.html


virendra sharma said...

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बिन पानी साबुन बिना निरमल होय सुभाय।



यहां भी निर्मल हो जाने के सन्दर्भ में निंदा का उल्लेख है। अक्सर हम स्तुति सुनने के आदी हैं निंदा से हम बौखला जाते हैं। सचेतक थे संत कल के ही नहीं सर्वकालिक। आपने महेंद्र वर्मा जी इसे व्याख्यायित करके मेरी तिश्नगी भी शांत की है। बधाई और शुक्रिया दोनों।



विशेष :उस बुजुर्ग आदरणीया ने अपनी सबसे प्रिय वस्तु मुझे यूं ही दे दी आग्रह पूर्वक। हम को सीख दे गई -अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु भी सुपात्र को देने में संकोच न करना।

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