गीत बसंत का



सुरभित मंद समीर ले
आया है मधुमास।

                           पुष्प रंगीले हो गए
                           किसलय करें किलोल,
                           माघ करे जादूगरी
                          अपनी गठरी खोल।

गंध पचीसों तिर रहे
पवन हुए उनचास,
सुरभित मंद समीर ले
आया है मधुमास।

                           अमराई में कूकती
                          कोयल मीठे बैन,
                          बासंती-से हो गए
                          क्यूं संध्या के नैन।

टेसू के संग झूमता
सरसों का उल्लास,
सुरभित मंद समीर ले
आया है मधुमास।

                          पुलकित पुष्पित शोभिता
                         धरती गाती गीत,
                         पात पीत क्यूं हो गए
                         है कैसी ये रीत।

नृत्य तितलियां कर रहीं
भौंरे करते रास,
सुरभित मंद समीर ले
आया है मधुमास।

                                              -महेन्द्र वर्मा

सपना

ना सच है ना झूठा है,
जीवन केवल सपना है।

कुछ सोए कुछ जाग रहे,
अपनी-अपनी दुनिया है।

सत्य बसा अंतस्तल में,
बाहर मात्र छलावा है।

दुख ना हो तो जीवन में,
सूनापन सा लगता है।

मुट्ठी खोलो देख जरा,
क्या खोया क्या पाया है।

गर विवेक तुममें नहीं,
मानव क्यूं कहलाता है।

प्रेम कहीं देखा तुमने,
कहते हैं परमात्मा है।
                                  
                        -महेन्द्र वर्मा

होनहार बिरवान के होत चीकने पात


कवि वृंद 

‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात‘ और ‘तेते पांव पसारिए, जेते लंबी सौर‘ जैसी लोकोक्तियों के जनक प्रसिद्ध जनकवि वृंद का जन्म सन् 1643 ई. में राजस्थान के मेड़ता नामक गांव में हुआ था। इन्होंने काशी में साहित्य और दर्शन की शिक्षा प्राप्त की। औरंगजेब और बाद में उसका पुत्र अजीमुश्शाह कवि वृंद के प्रशंसक रहे। ये किशनगढ़ नरेश महाराज सिंह के गुरु थे।

कवि वृंद ने 1704 ई. में ‘वृंद सतसई‘ नामक नीति विषयक ग्रंथ की रचना की। इनकी 11 रचनाएं प्राप्त हैं जिनमें ‘वृंद सतसई‘, ‘पवन पचीसी‘ और ‘शृंगार शिक्षा‘ प्रमुख हैं। कवि वृंद सूक्तिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके प्रत्येक दोहे में ज्ञान और अनुभव का भंडार है। साहित्य जगत और जनसामान्य के लिए इन दोहों का विशेष महत्व है। ‘वृंद सतसई‘ के दोहे और उनमें निहित सूक्तियां उत्तर मध्यकाल में चाव से पढ़ी-बोली जातीं थीं। कवि वृंद का निधन सन् 1723 ई. में हुआ।

प्रस्तुत है वृंद के कुछ लोकप्रिय दोहे-


करत करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान,
रसरी आवत जात के, सिल पर परत निसान।

उत्तम विद्या लीजिए, जदपि नीच पै होय,
परो अपावन ठौर में, कंचन तजत न कोय।

सरसुति के भंडार की, बड़ी अपूरब बात,
ज्यों खरचे त्यों त्यों बढ़े, बिन खरचे घट जात।

सुनिए सबही की कही, करिए सहित विचार,
सर्व लोक राजी रहे, सो कीजे उपचार।

काहू को हंसिए नहीं, हंसी कलह कौ मूल,
हंसी ही ते है भयो, कुल कौरव निरमूल।

मूरख को हित के वचन, सुनि उपजत हे कोप,
सांपहि दूध पिवाइए, वाके मुख विष ओप।

अपनी पहुंचि विचारि के, करतब करिए दौर,
तेते पांव पसारिए, जेते लंबी सौर।

कुल सपूत जान्यो परै, लखि शुभ लच्छन गात,
होनहार बिरवान के, होत चीकने पात।

कबहूं प्रीति न जोरिए, जोरि तोरिए नाहिं,
ज्यों तोरे जोरे बहुरि, गांठि परत मन माहिं।

ग़ज़ल

रोज़-रोज़  यूं बुतख़ाने न जाया कर,
दिल में पहले बीज नेह के बोया कर।

वक़्त लौट कर चला गया दरवाज़े से,
ऐसी बेख़बरी से अब ना सोया कर।

तू ही एक नहीं है दुनिया में आलिम,
अपने फ़न पर न इतना इतराया कर।

औरों के चिथड़े दामन पर नज़रें क्यूं,
पहले अपनी मैली चादर धोया कर।

लोग देखकर मुंह फेरेंगे झिड़केंगे,
सरे आम ग़म का बोझा न ढोया कर।

मैंने तुमसे कुछ उम्मीदें पाल रखी हैं,
और नहीं तो थोड़ा सा मुसकाया कर।

नीचे भी तो झांक जरा ऐ ऊपर वाले,
अपनी करनी पर थोड़ा पछताया कर।

                                   
                                                             -महेन्द्र वर्मा      

अंजुरी भर सुख



तुम
जब भी आते हो
मुस्कराते हुए आते हो,
कौन जान सका है
इस मुस्कान के पीछे छिपी
कुटिलता को ?
 

हर बार तुम
दे जाते हो
करोड़ों आंखों को
दरिया भर आंसू
करोड़ों हृदय को
सागर भर संत्रास
और कर जाते हो
समय की छाती पर
अनगिनत घाव !
 

क्या इस बार
तुम कुछ बेहतर नहीं कर सकते ?
जिन्हें जरूरत  है उन्हें
क्या तुम
अंजुरी भर सुख नहीं दे सकते ?
बोलो, नववर्ष ......!

                                         -महेन्द्र वर्मा

ग़ज़ल



भीड़ में अस्तित्व अपना खोजते देखे गए,
मौन थे जो आज तक वे चीखते देखे गए।

आधुनिकता के नशे में रात दिन जो चूर थे,
ऊब कर फिर जि़ंदगी से भागते देखे गए।

हाथ में खंजर लिए कुछ लोग आए शहर में,
सुना हे मेरा ठिकाना पूछते देखे गए।

रूठने का सिलसिला कुछ इस तरह आगे बढ़ा,
लोग जो आए मनाने रूठते देखे गए।

लोग उठ कर चल दिए उसने सुनाई जब व्यथा,
और जो बैठे रहे वे ऊबते देखे गए।

बेशऊरी इस कदर बढ़ती गई उनकी कि वे,
काँच के शक में नगीने फेंकते देखे गए।

कह रहे थे जो कि हम हैं नेकनीयत रहनुमा,
काफिले को राह में ही लूटते देखे गए।

                                                                           
                                                                       -महेन्द्र वर्मा

दोहे


समर भूमि संसार है, विजयी होते वीर,
मारे जाते हैं सदा, निर्बल-कायर-भीर।


मुँह पर ढकना दीजिए, वक्ता होए शांत,
मन के मुँह को ढाँकना, कारज कठिन नितांत।


दुख के भीतर ही छुपा, सुख का सुमधुर स्वाद,
लगता है फल, फूल के, मुरझाने के बाद।


भाँति-भाँति के सर्प हैं, मन जाता है काँप,
सबसे जहरीला मगर, आस्तीन का साँप।


हो अतीत चाहे विकट, दुखदायी संजाल,
पर उसकी यादें बहुत, होतीं मधुर रसाल।


विपदा को मत कोसिए, करती यह उपकार,
बिन खरचे मिलता विपुल, अनुभव का उपहार।


प्राकृत चीजों का सदा, कर सम्मान सुमीत,
ईश्वर पूजा की यही, सबसे उत्तम रीत।

                       
                                                                             -महेन्द्र वर्मा





क्षणिकाएँ


1.
हम तो  
अक्षर हैं
निर्गुण-निरर्थक
तुम्हारी जिह्वा के खिलौने
अब 
यह तुम पर है कि
तुम हमसे
गालियाँ बनाओ
या
गीत




2.
मैंने तो 
सबको दिया
वही धरा
वही गगन
वही जल-अगन-पवन
अब तुम 
चाहे जिस तरह जियो
बुद्ध की तरह
या
बुद्धू की तरह

                                                    -महेन्द्र वर्मा