संत दादूदयाल

वाद विवाद काहू सो नाहीं


दादूपंथ के प्रवर्तक संत दादूदयाल का स्थान संत साहित्य में बहुत उच्च है। इनका जन्म फाल्गुन शुक्ल पक्ष 2, वि.सं. 1601 को अहमदाबाद में हुआ था। ग्यारह वर्ष की आयु में इन्हें संत वृद्धानंद या बुड्ढन से दीक्षा प्राप्त हुई थी। तब से ये कुछ समय तक देशाटन, सत्संग, चिंतन-मनन,एवं कतिपय साधनाओं में लगे रहे। लगभग 30 वर्ष की अवस्था में ये सांभर नामक स्थान में आकर रहने लगे थे। वहां पर अपने उपलब्ध अनुभवों के आघार पर ब्रह्म संप्रदाय की स्थापना की जो आगे चलकर दादूपंथ के नाम से विख्यात हुआ। विवाहोपरांत इनके दो पुत्र हुए, गरीबदास और मिस्कीनदास, इनमें से गरीबदास प्रसिद्ध संत हुए। आमेर में रहते समय संत दादूदयाल को बादशाह अकबर ने आध्यात्मिक चर्चा के लिए सीकरी बुला भेजा। संवत् 1643 में उनका यह सत्संग 40 दिनों तक चला। 
दादूदयाल अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे किंतु इनकी आध्यात्मिक अनुभूति गहरी और सच्ची थी तथा उसे व्यक्त करने के लिए भाषा के प्रयोग में ये बड़े निपुण थे। इनके द्वारा रचित वाणियों को इनके शिष्यों ने हरडेवाणी नाम से प्रस्तुत किया। इनके प्रमुख शिष्य रज्जब ने अंगबंधु नाम से संशोधित संकलन प्रस्तुत किया। इस संग्रह में 37 अंगों में विभाजित साखियों की संख्या 2658 है और पदों की संख्या 445 है।
अपनी नम्रता, क्षमाशीलता एवं कोमल हृदयता के कारण ये दादू से दादूदयाल कहलाने लगे। सर्वव्यापक परमात्म तत्व के प्रति इनकी अविच्छिन्न विरहासक्ति ने इन्हें प्रेमोन्मक्त सा बना दिया था। इनका देहावसान ज्येष्ठ कृष्ण 8 संवत् 1660 में हुआ।
प्रस्तुत है दादूदयाल जी का एक पद-

भाई रे जैसा पंथ हमारा।
द्वै पख रहित पंथ गहि पूरा, अवरण एक अधारा।
वाद विवाद काहू सो नाहीं, माहिं जगत से न्यारा।
सम दृष्टि सुभाई सहज मैं, आपहि आप विचारा।
मैं तैं मेरी यहु मत नाहीं, निरबैरी निरकारा।
पूरण सबै देखि आपा पर, निरालंब निरधारा।
काहू के संग मोह न ममता, संगी सिरजनहारा।
मन नहि मन सो समझ सयाना, आनंद एक अपारा।
काम कल्पना कदै न कीजै, पूरण ब्रह्म पियारा।
इहि पथ पहुंचि पार गहि दादू, सो तत सहजि संभारा।



द्वै पख रहित- हिंदू मुस्लिम दोनों संप्रदायों से निरपेक्ष

प्रेम दीवाने जो भए



भक्तिमती सहजोबाई

            प्रसिद्ध संत कवि चरणदास की शिष्या भक्तिमती सहजोबाई का जन्म 25 जुलाई 1725 ई. को दिल्ली के परीक्षितपुर नामक स्थान में हुआ था। इनके पिता का नाम हरिप्रसाद और माता का नाम अनूपी देवी था। ग्यारह वर्ष की आयु में सहजो बाई के विवाह के समय एक दुर्घटना में वर का देहांत हो गया। उसके बाद उन्होंने संत चरणदास का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया और आजीवन ब्रह्मचारिणी रहीं। सहजो बाई चरणदास की प्रथम शिष्या थीं। इन्होंने अपने गुरु से ज्ञान, भक्ति और योग की विद्या प्राप्त की।
            कवयित्री और साधिका सहजोबाई के जीवन काल में ही उनके साहित्य का प्रचार-प्रसार देश के विभिन्न क्षेत्रों, दिल्ली, राजस्थान, बुंदेलखंड और बिहार में हो चुका था। इनके द्वारा लिखित एकमात्र ग्रंथ ‘सहज प्रकाश‘ का प्रकाशन सन् 1920 में हुआ तथा इसका अंग्रेजी अनुवाद 1931 में प्रकाशित हुआ। सहजो बाई की रचनाओं में प्रगाढ़ गुरु भक्ति, संसार की ओर से पूर्ण विरक्ति, साधुता, मानव जीवन, प्रेम, सगुण-निर्गुण भक्ति, नाम स्मरण आदि विषयक छंद, दोहे और कुडलियां संकलित हैं।
सहजो बाई ने हरि से श्रेष्ठ गुरु को माना है। निम्न पंक्तियों में उन्होंने गुरु की अपेक्षा राम को त्यागने का उल्लेख किया है-
राम तजूं मैं गुरु न बिसारूं,
गुरु के सम हरि को न निहारूं।
हरि ने जन्म दियो जग माहीं,
गुरु ने आवागमन छुड़ाही।
                24 जनवरी सन् 1805 ई. को भक्तिमती सहजो बाई ने वृंदावन में देहत्याग किया। प्रस्तुत है, सहजो बाई के कुछ  नीतिपरक दोहे-

सहजो जीवत सब सगे, मुए निकट नहिं जायं,
रोवैं स्वारथ आपने, सुपने देख डरायं।


जैसे संडसी लोह की, छिन पानी छिन आग,
ऐसे दुख सुख जगत के, सहजो तू मत पाग।


दरद बटाए नहिं सकै, मुए न चालैं साथ,
सहजो क्योंकर आपने, सब नाते बरबाद।


जग देखत तुम जाओगे, तुम देखत जग जाय,
सहजो याही रीति है, मत कर सोच उपाय।


प्रेम दीवाने जो भए, मन भयो चकनाचूर,
छकें रहैं घूमत रहैं, सहजो देखि हजूर।


सहजो नन्हा हूजिए, गुरु के वचन सम्हार,
अभिमानी नाहर बड़ो, भरमत फिरत उजाड़।


बड़ा न जाने पाइहे, साहिब के दरबार,
द्वारे ही सूं लागिहै, सहजो मोटी मार।


साहन कूं तो भय घना, सहजो निर्भय रंक,
कुंजर के पग बेड़ियां, चींटी फिरै निसंक।

अमीर खुसरो

गोरी सोवत सेज पर



                दिल्ली के आसपास बोली जाने वाली भाषा को सबसे पहले हिंदवी नाम देने वाले प्रसिद्ध सूफी कवि अमीर खुसरो का जन्म सन 1253 ई. में उत्तर प्रदेश के एटा ज़िले के पटियाली कस्बे में हुआ था। इनके पिता का नाम सैफुद्दीन मुहम्मद तथा माता का नाम दौलत नाज़ था। खुसरो का नाना हिंदू था जिसने  बाद में मुस्लिम धर्म अपना लिया था। सात वर्ष की उम्र में खुसरो के पिता का देहांत हो गया था। प्रसिद्ध सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया से खुसरो ने दीक्षा ली थी।
                खुसरो 20 वर्ष की उम्र में एक कवि के रूप में प्रसिद्ध हो गए थे। वह गयासुद्दीन तुगलक के दरबारी कवि थे। उसके बाद छह वर्षों तक ये जलालुद्दीन खिलजी और उसके पुत्र अलाउद्दीन खिलजी के दरबार में रहे। अलाउद्दीन ने जब चित्तौड़गढ़ के राजा रत्नसेन की रानी को पाना चाहा तो पद्मिनी ने जौहर कर प्राणोत्सर्ग कर दिया। इस घटना का कविहृदय खुसरो पर गंभीर प्रभाव पड़ा। वे हिंद की संस्कृति से और अधिक जुड़ गए। उन्होंने माना कि हिंदवासियों के दिल में रहने के लिए हिंदवी सीखनी होगी। 
                अमीर खुसरो बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे एक महान सूफी संत, कवि, राजनीतिज्ञ, भाषाविद्, इतिहासकार, संगीतज्ञ, गायक, ज्योतिषी,तथा योद्धा भी थे। इन्हें तबला का आविष्कारक माना जाता है। खयाल और कव्वाली गायन शैली खुसरो की ही देन है। इनके लिखे दोहे, मुरकियां तथा पहेलियां प्रसिद्ध हैं। खुसरो की लिखी 99 पुस्तकों का उल्लेख है जिनमें से केवल 22 प्राप्य हैं। हिंदी में लिखी 3 पुस्तकों में से केवल खालिकबारी ही उपलब्ध है।
                जब खुसरो के गुरु हजरत निजामुद्दीन औलिया का निधन हुआ तब खुसरो को वैराग्य हो गया। वे अपने गुरु की समाधि के निकट कभी न उठने का निश्चय करके बैठ गए। वहीं उन्होंने सन् 1325 ई. में यह अंतिम दोहा कहते हुए अपने प्राण त्याग दिए-
                गोरी सोवत सेज पर, मुख पर डारे केस,
                चल खुसरो घर आपनो, रैन भई चहुं देस।

प्रस्तुत है खुसरो की एक प्रसिद्ध रचना-

                काहे को ब्याहे बिदेस,
                अरे लखिया बाबुल मोरे,
                काहे को ब्याहे बिदेस।
                भइया को दिए बाबुल महल दुमहले,
                हमको दिए परदेस।
                हम तो बाबुल तोरे खूंटे की गइया,
                जित हांके तित जइहें।
                हम तो बाबुल तोरे बेले की कलियां,
                घर घर मांगे है जइहैं।
                कोठे तले से जो पलकिया निकली,
                बीरन भए खाए पछाड़।
                तारों भरी मैंने  गुड़िया जो छोड़ी,
                छूटा सहेली का साथ।
                डोली का परदा उठा के जो देखा,
                आया पिया का देस।

महाकवि चंदबरदाई

पृथ्वीराज रासो और राम-रावण युद्ध



            चंदबरदाई अजमेर और दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि और मित्र थे। इनका जन्म 30 सितंबर 1149 को राजस्थान में हुआ था। कुछ विद्वान इनका जन्म स्थान लाहौर मानते हैं। चंदबरदाई भाषा, व्याकरण, काव्य, साहित्य, छंदशास्त्र, ज्योतिष, पुराण, नाटक आदि विषयों के विद्वान थे। 
शहाबुद्दीन गौरी को पृथ्वीराज ने सोलह बार पराजित किया। सत्रहवें युद्ध में पृथ्वीराज पराजित हुआ। गौरी उसे बंदी बनाकर गजनी ले गया और उनकी आंखें निकाल ली। चंदबरदाई ने एक दोहा पढ़कर शब्दभेदी बाण के द्वारा पृथ्वीराज के हाथों गौरी का अंत करवाया। सन्1200 ई. में चंदबरदाई का निधन हुआ।
            चंदबरदाई हिंदी साहित्य के आदिकाल के सबसे महत्वपूर्ण कवि माने जाते हैं। इन्हें हिंदी का पहला कवि भी कहा जाता है। पृथ्वीराज रासो चंदबरदाई का प्रसिद्ध प्रबंध काव्य है। इसमें 69 अध्याय और 10,000 छंद हैं जिनमें पृथ्वीराज चौहान की शौर्यगाथा है। इसके लघु रूपांतर में 19 सर्ग और 3500 छंद हैं जो बीकानेर के अनूप संस्कृत पुस्तकालय में सुरक्षित है। इसी प्रबंध काव्य में चंदबरदाई ने रामकथा के कुछ प्रसंगों का भी वर्णन किया है। हिंदी में रामकथा का यह प्रथम और मौलिक वर्णन माना जाता है। विजयादशमी के अवसर पर प्रस्तुत है चंदबरदाई कृत पृथ्वीराज रासो में वर्णित राम-रावण युद्ध प्रसंग पर आधारित यह रचना-

        जब सु राम चढ़ि लंक,
        तब सु मच्छीगिरि तारिय।
        जब सु राम चढ़ि लंक,
        तब सु पत्थर जल धारिय।
        जब सु राम चढ़ि लंक,
        तब सु चक चक्की चाहिय।
        जब सु राम चढ़ि लंक,
        तब सु लंका पुर दाहिय।
        जब राम चढ़े दल बनरन,
        भिरन राम रावन परिय।
        भिर कुंभ मेघ राखिस रसन,
        सीत काम कारन करिय।

भावार्थ -जब भगवान श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई की तब मैनाक पर्वत और पत्थर जल पर तैराए जाने लगे। धूलि उड़ने से दिन में ही रात्रि का भ्रम होने के कारण चक्रवाक दंपति एक दूसरे की प्रतीक्षा करने लगे। लंका जलाई जाने लगी और स्वयं राम के साथ इस पृथ्वी पर रावण, मेघनाद, कुंभकर्ण आदि राक्षसों का युद्ध हुआ। रावण के नाश को रामजी ने सीताजी को पाने का हेतु बनाया। 
   

गुरु गोविंदसिंह जी

अल्प अहार सुल्प सी निद्रा




गुरु गोविंदसिंह जी सिख धर्म के दसवें गुरु थे। इनका जन्म 15 दिसंबर सन् 1666 ई. को बिहार के पटना नगर में हुआ था। आप नौवें गुरु तेगबहादुर जी के पुत्र थे। आपको संस्कृत, फारसी, ब्रज आदि भाषाओं का ज्ञान था। अपने जन्म तथा प्रारंभिक वर्षों का गुरुजी ने अपने आत्मकथात्मक काव्य विचित्र नाटक में वर्णन किया है। गुरु गोविंदसिंह जी निरंजन, निराकार परमात्मा में विश्वास करते थे। इन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की। इस पंथ में जात-पात का बंधन नहीं है। गुरुजी ने मनुष्य शरीरधारियों को गुरु बनाने की परम्परा समाप्त कर दी और आदेश दिया कि आदिग्रंथ साहिब को ही गुरु मानें। उन्होंने 40 रचनाओं का सृजन किया। वे स्वयं तो काव्य रचना करते ही थे, अपने संरक्षण में रहने वाले कवियों को भी काव्य सृजन के लिए प्रोत्साहित करते थे। आप एक सच्चे समाज सुधारक, और दूरदर्शी संत थे। गुरु गोविंदसिंह जी ने जीवन भर संघर्ष कर अन्याय और अत्याचार से लोगों को मुक्ति दिलाई। उनके चारों बेटे सच्चे धर्म के नाम पर बलिदान हो गए। उन्होने सन् 1708 ई. में देह त्याग दिया। प्रस्तुत है गुरु गोविंदसिंह जी का एक पद-

रे मन ऐसो करि सन्यास।
बन से सदन सबै करि समझहु,
मन ही माहिं उदास।
जत की जटा जोग की मंजनु,
नेम के नखन बढ़ाओ।
ग्यान गुरु आतम उपदेसहु,
नाम विभूति लगाओ।
अल्प अहार सुल्प सी निद्रा,
दया छिमा तन प्रीत।
सील संतोख सदा निरबाहिबो,
व्हैबो त्रिगुन अतीत।
काम क्रोध हंकार लोभ हठ,
मोह न मन सो ल्यावै,
तब ही आत्म तत्त को दरसै
परम पुरुष कहं पावै।

कवि रहीम

रहिमन धागा प्रेम का

            भक्तिकालीन हिंदी साहित्य में रहीम का महत्वपूर्ण स्थान है। रहीम का पूरा नाम अब्दुल रहीम ख़ानखाना था। ये अकबर के दरबार के नवरत्नों में से एक थे। रहीम, अकबर के अभिभावक बैरम ख़ां के बेटे थे। इनका जन्म 17 सितंबर 1556 ईस्वी को लाहौर में हुआ था। बैरम ख़ां की हत्या के बाद अकबर ने रहीम की मां सुल्ताना बेग़म से निकाह कर लिया था, इस प्रकार रहीम अकबर के सौतेले बेटे बन गए थे। रहीम अकबर के सेनापति भी थे। इन्हें हिन्दी, अरबी, तुर्की, संस्कृत, ब्रज, अवधी आदि कई भाषाओं का ज्ञान था। रहीम बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। ये कवियों के आश्रयदाता भी थे। केशव, आसकरन, मंडन, नरहरि और गंग जैसे कवियों ने इनकी प्रशंसा की है। रहीम की दानशीलता प्रसिद्ध है। अकबर के दरबारी कवि गंग के दो छंदों पर प्रसन्न होकर रहीम ने उन्हें 36 लाख रुपये दे दिए थे। 
            रहीम के काव्य में नीति, भक्ति, प्रेम, श्रृंगार आदि के छंदों का समावेश है। इनकी 11 रचनाएं प्राप्य हैं। दोहावली में रहीम के 300 दोहे संग्रहित हैं। 70 वर्ष की उम्र में सन् 1626 ईस्वी में इनका देहावसान हुआ। रहीम का मकबरा दिल्ली में हुमायुं के मकबरे के समीप है।
            प्रस्तुत है, रहीम के कुछ नीति विषयक दोहे-

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय,
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े तो गांठ परि जाय।


रहिमन कठिन चितान ते, चिंता को चित चेत,
चिता दहति निर्जीव को, चिंता जीव समेत।


रहिमन तब लगि ठहरिए, दान  मान   सनमान,
घटत मान देखिय जबहिं, तुरतहि करहिं पयान।


आब गई आदर  गया,  नैनन  गया सनेह,
ये तीनों तबही गए, जबहि कहा कछु देह।


रहिमन  विपदा  हू  भली,  जो  थोरे  दिन   होय,
हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय।


रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय,
सुन   इठलैहैं  लोग  सब,  बांट  न  लइहैं  कोय।


रूठे  सुजन  मनाइये,  जो  रूठे  सौ   बार,
रहिमन फिर फिर पोहिये, टुटे मुक्ताहार।


चाह  गई  चिंता   मिटी,   मनुआ   बेपरवाह,
जिनको कछु नहिं चाहिये, वे साहन के साह। 
  


भक्तकवि सूरदास

सबसे ऊंची प्रेम सगाई



मध्यकालीन भक्त कवियों में सूरदास शीर्षस्थ हैं। इनका जन्म संवत 1540 में हुआ था। विवाह के कुछ समय उपरांत ये विरक्त हो गए और भगवद्भक्ति की इच्छा से यमुना के तटवर्ती गांव गउघाट के निवासी हो गए। वृंदावन तीर्थयात्रा के समय सूरदास जी की भेंट महाप्रभु वल्लभाचार्य से हुई। वल्लभाचार्य ने सूरदास को दीक्षा दी और तब से वे कृष्ण लीला का गायन करने लगे। सूरदास से एक बार मथुरा में तुलसीदास की भेंट हुई। सूर से प्रभावित होकर तुलसीदास ने श्रीकृष्ण गीतावली की रचना की। 
अपने पदों के द्वारा अपने आराध्य श्रीकृष्ण की माधुरी लीला को दृश्यमान बनाने में सूर की सफलता अनुपम है। काशी नागरी प्रचारिणी सभा के शोध के अनुसार सूरदास रचित ग्रंथों की सुख्या 25 मानी जाती है, किंतु उनके तीन ही ग्रंथ उपलब्ध हो पाए हैं- सूरसागर, सूरसारावली और साहित्यलहरी। संतकवि शिरोमणि सूरदास जी के संबंध में यह दोहा प्रसिद्ध है-
सूर सूर तुलसी शशि, केशव उडुगनदास।
अबके कवि खद्योत सम, जंह तंह करत प्रकाश।
प्रसिद्ध साहित्यकार अमृतलाल नागर ने सूरदास जी के जीवन-वृत्त पर आधारित ‘खंजन नयन‘ नामक एक बहुचर्चित उपन्यास लिखा है। सूरदास ने गोवर्धन के निकट परसौली ग्राम में संवत 1640 में अपना प्रणोत्सर्ग किया। प्रस्तुत है इनका एक प्रसिद्ध पद-
      
           सबसे ऊंची प्रेम सगाई।
        दुर्योधन को मेवा त्यागो,
        साग विदुर घर खाई।
        जूठे फल सबरी के खाए,
        बहु बिध प्रेम लगाई।
        प्रेम के बस अर्जुन रथ हांक्यो,
        भूल गए ठकुराई।
        ऐसी प्रीत बढ़ी बृंदाबन,
        गोपिन नाच नचाई।
        सूर क्रूर इस लायक नाहीं,
        कहं लग करै बड़ाई। 

महाकवि तुलसीदास

जगत जननि दामिनि दुति माता




गोस्वामी तुलसीदास जी विश्ववंद्य संत कवि हैं। इन्हें महाकवि बाल्मीकि का अवतार भी माना जाता है। इनका जन्म संवत 1532 में उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के राजापुर गांव में हुआ था। पत्नी रत्नावली के द्वारा उलाहना दिए जाने पर इन्होंने गृह त्याग दिया। 14 वर्षों तक ये भारत के विभिन्न तीर्थ स्थलों का भ्रमण करते रहे। हनुमान जी की कृपा से उन्हें भगवान श्रीराम के दर्शन हुए और उसके बाद तो उन्होंने सारा जीवन श्रीराम की भक्ति में बिताया। तुलसीदास जी ने 12 पुस्तकें लिखी जिनमें श्री राम चरित मानस संसार भर में प्रसिद्ध है। दूसरी प्रसिद्ध रचना है-विनय पत्रिका। तुलसीदास जी कुछ समय अयोध्या में रहने के बाद वाराणसी आ गए थे। उुन्होंने वाराणसी के असीघाट पर संवत 1623 में अपने प्राण का विसर्जन किया।
नवरात्रि के पावन अवसर पर प्रस्तुत है गोस्वामी तुलसी दास जी विरचित श्री रामचरित मानस से उद्धरित मां दुर्गा की पावन स्तुति-

जय जय गिरिबरराज किसोरी,
जय महेस मुख चंद चकोरी।
जय गजवदन षडानन माता,
जगत जननि दामिनि दुति माता।
नहि तव आदि मध्य अवसाना,
अमित प्रभाउ बेदु नहीं जाना।
भव भव विभव पराभव कारिनि,
बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।
पतिदेवता  सुतीय  महुं ,  मातु  प्रथम  तव  रेख।
महिमा अमित न सकहि कहि, सहस सारदा सेष।
सेवत तोहि सुलभ फल चारी,
बरदायनी पुरारि पिआरी।
देवि पूजि पद कमल तुम्हारे,
सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।


भक्त कवि रसखान

मानुष हौं तो वही रसखानि

कृष्ण भक्त कवि रसखान का जन्म लगभग 1590 विक्रमी में हुआ था। वे दिल्ली में रहते थे। संवत 1613 में उन्हें दिल्ली छोड़नी पड़ी। वे कई वर्ष तक ब्रज और उसके आस-पास के स्थानों में घूमते रहे। संवत 1634 से 1637 तक उन्होंने यमुना तट पर रामकथा सुनी। गोसाईं विट्ठलनाथ से कृष्णभ्क्ति की दीक्षा लेकर कृष्ण लीला गान करने लगे। उन्होंने कृष्ण की लीलाओं पर आधारित अनेक कवित्त, दोहे आदि रचे। कृष्णभक्त कवियों में उनकी प्रसिद्धि फैल गई। संवत 1671 में रसखान ने ‘प्रेमवाटिका‘ की रचना की। उनका देहावसान संवत 1679 में हुआ। प्रस्तुत है उनका एक प्रसिद्ध छंद -

मानुष हौं तो वही रसखानि,
         बसौं ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन।
जौ पशु हौं तो कहां बसु मेरो,
        चरौं नित नंद को धेनु मझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को,
        जो घर्यो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेर करौं,
        मिलि कालिंदि कूल कदंब की डारन।
या लकुटी अरु कामरिया पर,
        राज तिहूं पुर को तजि डारौं।
आठहुं सिद्धि नवौ निधि कौ सुख,
        नंद की गाइ चराइ बिसारौं।
आंखिन सौं रसखानि कबौं,
        ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक हूं कलधौत के धाम,
        करील की कुंजन उपर वारौं।

मीराबाई

मीरा के प्रभु गिरधर नागर


भक्त कवयित्रियों में मीराबाई का नाम अग्रगण्य है। इनका जन्म विक्रम संवत 1561 में मारवाड़ के मेड़ता गांव में हुआ था । इनके पिता का नाम रतनसिंह राठौर था। मीराबाई के शैशवकाल में ही इनकी माता का स्वर्गवास हो गया था। मीराबाई का लालन-पालन कुड़की गांव में रहने वाली उनकी मौसी ने किया। ये अपने माता-पिता की इकलौती संतान थीं। सम्वत 1573 में इनका विवाह राणा सांगा के पुत्र भोजराज से हुआ था। विवाह के 7-8 वर्ष पश्चात भोजराज की मृत्यु हो गई थी।
मीराबाई के निर्माण में उनकी जीवन परिस्थितियों ने मनोवैज्ञानिक योगदान किया। माता, भाई, बहन और पति के प्यार से वंचिता मीराबाई ने गिरधर गोपाल को ही अपना सर्वस्व मान लिया। एक जन श्रुति है कि एक बारात के दूल्हे को देखकर अबोध बच्ची मीरा माता से पूछ बैठी-‘मेरा वर कौन है ?‘ माता ने उसका कौतूहल शांत करने के लिए गिरधर की मूर्ति की ओर संकेत कर दिया। बस तभी से मीरा ने अपने मन-प्राणों में गिरधर को बसा लिया। भक्त मीराबाई का देहावसान अनुमानतः संवत 1630 के लगभग हुआ था। 
मीराबाई के लगभग 500 भक्तिपद प्राप्य हैं। मीराबाई की विशिष्टता इस बात में है कि उन्होंने कृष्ण भक्ति को ही अपना साधन और साध्य बनाया, किसी दार्शनिक या साम्प्रदायिक मतवाद का अनुसरण उन्होंने नहीं किया। प्रस्तुत है, मीराबाई के दो पद-

1
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, किरपा करि अपनायो।
जनम जनम की पूंजी पाई, जग में सबै खोवायो।
खरचै न कोई चोर न लेवे, दिन दिन बढ़त सवायो।
सत की नाव खेवटिया सतगुरु, भवसागर तरि आयो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, हरख हरख जस गायो।


2
आली रे मेरे नैनन बान पड़ी।
चित्त चढ़े मेरे माधुरि मूरत, उर बिच आन पड़ी।
कब की ठाड़ी पंथ निहारूं, अपने भवन खड़ी।
कैसे प्राण पिया बिन राखूं, जीवन मूर जड़ी ।
मीरा गिरधर हाथ बिकानी, लोग कहै बिगड़ी।

संत रविदास



संत रविदास या रैदास मध्ययुग के महान संतकवि थे। इनका जन्म काशी के निकट मंडूर नामक स्थान में विक्रम संवत 1456 को हुआ था। उन्होंने विधिवत कोई शिक्षा प्राप्त नहीं की किंतु अपने अनुभव, भ्रमण और सत्संग से ही सब कुछ सीखा। संत रविदास ने अपने जीवन काल में ही सिद्धि प्राप्त कर धर्मोपदेशक के रूप में यश अर्जित कर लिया था। गुरुग्रंथ साहिब में उनके 40 पद उसी मौलिक स्वरूप में संग्रहित हैं। इनका देहावसान विक्रम संवत 1584 को हुआ। प्रस्तुत है इनका एक प्रसिद्ध पद -

प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी,
जाकी अंग अंग बास समानी।


प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, 
जैसे चितवत चंद चकोरा ।


प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती,
जा की जोत बरै दिन राती।


प्रभु जी, तुम मोती हम धागा,
जैसे सोनहि मिलत सोहागा।


प्रभु जी, तुम स्वामी हम दासा,
ऐसी   भक्ति    करै    रैदासा।

नज़ीर अकबराबादी


 जब आशिक मस्त फकीर हुए

सूफीमत के शायरों में नज़ीर अकबराबादी का नाम प्रसिद्ध है। ये ग़ालिब और मीर के समकालीन थे। इनका जन्म सन् 1735 में दिल्ली में हुआ था। बाद में ये आगरे में बस गए थे। नवाब वाजिद अली शाह इन्हें दरबारी कवि बनाना चाहते थे लेकिन नज़ीर ने इंकार कर दिया। इन्हें अवधी, ब्रज, मारवाड़ी, पंजाबी और संस्कृत भाषाओं का ज्ञान था। कृष्ण की लीलाओं पर आधारित इनकी रचनाएं बहुत प्रसिद्ध हैं। इनका देहावसान सन् 1830 में हुआ।
मानवता को एकमात्र धर्म मानने वाले सूफीमत के कवि परमात्मा और स्वयं के रिश्ते को आशिक और माशूक का रिश्ता मानते हैं। प्रस्तुत है महान सूफी शायर नज़ीर अकबराबादी की एक महान रचना-

है आशिक और माशूक जहां, वां शाह वज़ीरी है बाबा,
नै रोना है नै धोना है, नै दर्द असीरी है बाबा ।


दिन रात बहारें चुहले हैं, औ ऐश सफीरी है बाबा,
जो आशिक हुए सो जाने है, यह भेद फ़कीरी है बाबा।


हर आन हंसी हर आन खुशी, हर वक्त अमीरी है बाबा,
जब आशिक मस्त फ़कीर हुए, फिर क्या दिलगीरी है बाबा।


कुछ ज़ुल्म नहीं कुछ ज़ोर नहीं, कुछ दाद नहीं फरियाद नहीं,
कुछ क़ैद नहीं कुछ बंद नहीं, कुछ जब्र नहीं आज़ाद नहीं।


शागिर्द नहीं उस्ताद नहीं, वीरान नहीं आबाद नहीं,
है जितनी बातें दुनिया की, सब भूल गए कुछ याद नहीं।


जिस सिम्त नज़र कर देखे हैं, उस दिलवर की फुलवारी है,
कहीं सब्ज़ी की हरियाली है, कहीं फूलों की गुलक्यारी है।


दिन रात मगन ख़ुश बैठे हैं, और आस उसी की भारी है,
बस आप ही वो दातारी हैं, और आप ही वो भंडारी हैं।


हम चाकर जिसके हुस्न के हैं, वह दिलबर सबसे आला है,
उसने ही हमको जी बख़्शा, उसने ही हमको पाला है ।


दिल अपना भोला भाला है, और इश्क बड़ा मतवाला है,
क्या कहिए और नज़ीर आगे, अब कौन समझने वाला है।


हर आन हंसी हर आन ख़ुशी, हर वक़्त अमीरी है बाबा,
जब आशिक मस्त फकीर हुए , फिर क्या दिलगीरी है बाबा।



संत सुंदरदास जी


संत सुंदरदास प्रसिद्ध महात्मा दादूदयाल जी के शिष्य थे। इनका जन्म किक्रम संवत 1653 में राजस्थान के द्यौसा नामक स्थान में हुआ था। इन्होंने वि.सं. 1746 में देहत्याग किया। इनकी रचनाओं में नैतिकता और मानव के गुणों का अच्छा चित्रण है। प्रस्तुत है संत सुंदरदास जी का एक छंद -

वाणी का महत्व

बचन तें दूर मिलै, बचन विरोध होइ,
बचन तें राग बढ़े, बचन तें दोष जू।


बचन तें ज्वाल उठै, बचन सीतल होइ,
बचन तें मुदित होय, बचन ही तें रोष जू।


बचन तें प्यारौ लगै, बचन तें दूर भगै,
बचन तें मुरझाय, बचन तें पोष जू।


सुंदर कहत यह, बचन को भेद ऐसो,
बचन तें बंध होत, बचन तें मोच्छ जू।

संत मलूक दास



मध्यकाल के संत कवियों ने भक्तिपरक काव्य के साथ-साथ नीति विषयक पदों की भी रचना की है। आज प्रस्तुत है संत मलूक दास जी के कुछ नीतिपरक दोहे। इनका जन्म इलाहाबाद जिले के कड़ा नामक स्थान में विक्रम संवत 1631 को हुआ था और देहावसान विक्रम संवत 1739 में हुआ था ।


भेष फकीरी जे करै, मन नहिं आवै हाथ।
दिल फकीर जे हो रहे, साहेब तिनके साथ।।


दया धर्म हिरदे बसे, बोले अमृत बैन।
तेई उंचे जानिए, जिनके नीचे नैन।।


इस जीने का गर्व क्या, कहां देह की प्रीत।
बात कहत ढह जात है, बारू की सी भीत।।


आदर मान महत्व सत, बालापन को नेह।
यह चारों तब ही गए, जबहि कहा कछु देह।।


मलूक वाद न कीजिए, क्रोधे देव बहाय।
हार मानु अनजान तें,बक बक मरे बलाय।।


देही होय न आपनी, समझु परी है मोहि।
अबहीं तैं तजि राख तू, आखिर तजिहैं तोहि।।

संत कबीर


संत कबीर की रचनाएं आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी वे अपने समय में थीं। उनकी कालजयी रचनाएं आज भी मानव जाति के लिए उपयोगी और अनुकरणीय हैं। प्रस्तुत है संत कबीर के कुछ दोहे -

साधु संतोषी सर्वदा, निर्मल जिनके बैन।
तिनके दरसन परसतें, जिय उपजे सुख चैन ।।

शीलवंत सबसों बड़ा, सब रतनों की खानि।
तीन लोक की संपदा, रही शील में आनि।।

ज्ञानी ध्यानी संयमी, दाता सूर अनेक।
जपिया तपिया बहुत है, शीलवंत कोइ एक।।

साधू मेरे सब बडे़, अपनी अपनी ठौर।
शब्द विवेकी पारखी, वे माथे के मौर।।

दीन गरीबी बंदगी, सब सों आदर भाव।
कहै कबीर तेही बड़ा, जामे बड़ा सुभाव।।

मूरख को समुझावता, ज्ञान गांठि का जाय।
कोयला होय न उजला, सौ मन साबुन लाय।।

संगति सो सुख उपजे, कुसंगति सो दुख जोय।
कह कबीर तहं जाइए, साधु संग जंह होय।।

आरम्भ

अपने इस ब्लाग पर मैं आरम्भ में हिंदी साहित्य के कुछ प्राचीन महाकवियों की रचनाओं को पोस्ट करूंगा। यदा कदा मैं अपनी रचनाओं को भी सम्मिलित करूंगा। आज प्रस्तुत है संत कवि कबीर की एक रचना-

तलफै बिन बालम मोर जिया।
दिन नहिं चैन रात नहिं निंदिया, तलफ तलफ के भोर किया।
तन-मन मोर रहट अस डोले, सून सेज पर जनम छिया।
नैन चकित भए पंथ न सूझै, सोइ बेदरदी सुध न लिया।
कहत कबीर सुनो भइ साधो, हरी पीर दुख जोर किया।