अल्प अहार सुल्प सी निद्रा
गुरु गोविंदसिंह जी सिख धर्म के दसवें गुरु थे। इनका जन्म 15 दिसंबर सन् 1666 ई. को बिहार के पटना नगर में हुआ था। आप नौवें गुरु तेगबहादुर जी के पुत्र थे। आपको संस्कृत, फारसी, ब्रज आदि भाषाओं का ज्ञान था। अपने जन्म तथा प्रारंभिक वर्षों का गुरुजी ने अपने आत्मकथात्मक काव्य विचित्र नाटक में वर्णन किया है। गुरु गोविंदसिंह जी निरंजन, निराकार परमात्मा में विश्वास करते थे। इन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की। इस पंथ में जात-पात का बंधन नहीं है। गुरुजी ने मनुष्य शरीरधारियों को गुरु बनाने की परम्परा समाप्त कर दी और आदेश दिया कि आदिग्रंथ साहिब को ही गुरु मानें। उन्होंने 40 रचनाओं का सृजन किया। वे स्वयं तो काव्य रचना करते ही थे, अपने संरक्षण में रहने वाले कवियों को भी काव्य सृजन के लिए प्रोत्साहित करते थे। आप एक सच्चे समाज सुधारक, और दूरदर्शी संत थे। गुरु गोविंदसिंह जी ने जीवन भर संघर्ष कर अन्याय और अत्याचार से लोगों को मुक्ति दिलाई। उनके चारों बेटे सच्चे धर्म के नाम पर बलिदान हो गए। उन्होने सन् 1708 ई. में देह त्याग दिया। प्रस्तुत है गुरु गोविंदसिंह जी का एक पद-
रे मन ऐसो करि सन्यास।
बन से सदन सबै करि समझहु,
मन ही माहिं उदास।
जत की जटा जोग की मंजनु,
नेम के नखन बढ़ाओ।
ग्यान गुरु आतम उपदेसहु,
नाम विभूति लगाओ।
अल्प अहार सुल्प सी निद्रा,
दया छिमा तन प्रीत।
सील संतोख सदा निरबाहिबो,
व्हैबो त्रिगुन अतीत।
काम क्रोध हंकार लोभ हठ,
मोह न मन सो ल्यावै,
तब ही आत्म तत्त को दरसै
परम पुरुष कहं पावै।
गुरु गोविंदसिंह जी सिख धर्म के दसवें गुरु थे। इनका जन्म 15 दिसंबर सन् 1666 ई. को बिहार के पटना नगर में हुआ था। आप नौवें गुरु तेगबहादुर जी के पुत्र थे। आपको संस्कृत, फारसी, ब्रज आदि भाषाओं का ज्ञान था। अपने जन्म तथा प्रारंभिक वर्षों का गुरुजी ने अपने आत्मकथात्मक काव्य विचित्र नाटक में वर्णन किया है। गुरु गोविंदसिंह जी निरंजन, निराकार परमात्मा में विश्वास करते थे। इन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की। इस पंथ में जात-पात का बंधन नहीं है। गुरुजी ने मनुष्य शरीरधारियों को गुरु बनाने की परम्परा समाप्त कर दी और आदेश दिया कि आदिग्रंथ साहिब को ही गुरु मानें। उन्होंने 40 रचनाओं का सृजन किया। वे स्वयं तो काव्य रचना करते ही थे, अपने संरक्षण में रहने वाले कवियों को भी काव्य सृजन के लिए प्रोत्साहित करते थे। आप एक सच्चे समाज सुधारक, और दूरदर्शी संत थे। गुरु गोविंदसिंह जी ने जीवन भर संघर्ष कर अन्याय और अत्याचार से लोगों को मुक्ति दिलाई। उनके चारों बेटे सच्चे धर्म के नाम पर बलिदान हो गए। उन्होने सन् 1708 ई. में देह त्याग दिया। प्रस्तुत है गुरु गोविंदसिंह जी का एक पद-
रे मन ऐसो करि सन्यास।
बन से सदन सबै करि समझहु,
मन ही माहिं उदास।
जत की जटा जोग की मंजनु,
नेम के नखन बढ़ाओ।
ग्यान गुरु आतम उपदेसहु,
नाम विभूति लगाओ।
अल्प अहार सुल्प सी निद्रा,
दया छिमा तन प्रीत।
सील संतोख सदा निरबाहिबो,
व्हैबो त्रिगुन अतीत।
काम क्रोध हंकार लोभ हठ,
मोह न मन सो ल्यावै,
तब ही आत्म तत्त को दरसै
परम पुरुष कहं पावै।