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ग़ज़ल



अंधकार को डरा रौशनी तलाश कर,
‘मावसों की रात में चांदनी तलाश कर।

बियाबान चीखती खामोशियों का ढेर है,
जल जहां-जहां मिले जि़ंदगी तलाश कर।

डगर-डगर घूमती सींगदार साजिशें,
जा अगर कहीं मिले आदमी तलाश कर।

जानते रहे जिसे साथ न दिया कोई,
दोस्ती के वास्ते अजनबी तलाश कर।

बाग है धुआं-धुआं खेत-खेत कालिखें
सुब्ह शबनमी फिजां में ताजगी तलाश कर।

वर्जना की बेडि़यां हत परों की ख्वाहिशें,
आंख में घुली हुई बेबसी तलाश कर।

हर तरफ उदास-से चेहरों की भीड़ है,
मन किवाड़ खोल दे हर खुशी तलाश कर।

                                                                        
                                                                        -महेन्द्र वर्मा

ग़ज़ल

रोज़-रोज़  यूं बुतख़ाने न जाया कर,
दिल में पहले बीज नेह के बोया कर।

वक़्त लौट कर चला गया दरवाज़े से,
ऐसी बेख़बरी से अब ना सोया कर।

तू ही एक नहीं है दुनिया में आलिम,
अपने फ़न पर न इतना इतराया कर।

औरों के चिथड़े दामन पर नज़रें क्यूं,
पहले अपनी मैली चादर धोया कर।

लोग देखकर मुंह फेरेंगे झिड़केंगे,
सरे आम ग़म का बोझा न ढोया कर।

मैंने तुमसे कुछ उम्मीदें पाल रखी हैं,
और नहीं तो थोड़ा सा मुसकाया कर।

नीचे भी तो झांक जरा ऐ ऊपर वाले,
अपनी करनी पर थोड़ा पछताया कर।

                                   
                                                             -महेन्द्र वर्मा      

ग़ज़ल



भीड़ में अस्तित्व अपना खोजते देखे गए,
मौन थे जो आज तक वे चीखते देखे गए।

आधुनिकता के नशे में रात दिन जो चूर थे,
ऊब कर फिर जि़ंदगी से भागते देखे गए।

हाथ में खंजर लिए कुछ लोग आए शहर में,
सुना हे मेरा ठिकाना पूछते देखे गए।

रूठने का सिलसिला कुछ इस तरह आगे बढ़ा,
लोग जो आए मनाने रूठते देखे गए।

लोग उठ कर चल दिए उसने सुनाई जब व्यथा,
और जो बैठे रहे वे ऊबते देखे गए।

बेशऊरी इस कदर बढ़ती गई उनकी कि वे,
काँच के शक में नगीने फेंकते देखे गए।

कह रहे थे जो कि हम हैं नेकनीयत रहनुमा,
काफिले को राह में ही लूटते देखे गए।

                                                                           
                                                                       -महेन्द्र वर्मा

हमन है इश्क मस्ताना




क्या यह हिंदी की पहली ग़ज़ल है ?

कबीर साहब का प्रमुख ग्रंथ ‘बीजक‘ माना जाता है। इसमें तीन प्रकार की रचनाएं सम्मिलित हैं- साखी, सबद और रमैनी। यहां कबीर की एक ऐसी रचना प्रस्तुत है जो न तो बीजक में है और न ही श्याम सुंदर दास रचित ‘कबीर ग्रंथावली‘ में।


प्रतीत होता है कि विशुद्ध ग़ज़ल शैली में लिखी गई यह आध्यात्मिक रचना कबीर द्वारा कही गई न होकर किसी परवर्ती कबीरपंथी साधु द्वारा लिखी गई । रचना की अंतिम पंक्ति यानी मक़्ते में कबीर शब्द आने के कारण इसे कबीर कृत मान लिया गया। प्राचीन ग्रंथों में इस तरह की प्रक्षिप्त रचनाएं मिलती रही हैं। आज से लगभग 100 वर्ष पूर्व वेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद से 4 भागों में  प्रकाशित ‘कबीर साहब की शब्दावली‘ नामक पुस्तक प्रकाशित हुई थी। इसी पुस्तक में अन्य पदों के साथ ग़ज़ल शैली की यह एकमात्र रचना भी संकलित है।


यदि यह कबीर द्वारा कही गई है तो क्या इसे हिंदी की पहली ग़ज़ल कह सकते हैं ?

हमन है इश्क़ मस्ताना, हमन को होशियारी क्या,
रहें आजाद या जग में, हमन दुनिया से यारी क्या।

जो बिछड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में, हमन को इंतज़ारी क्या।

खलक सब नाम जपने को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरु नाम सांचा है, हमन दुनिया से यारी क्या।

न पल बिछड़ें पिया हमसे, न हम बिछड़ें पियारे से,
उन्ही से नेह लागी है, हमन को बेक़रारी क्या।

कबीरा इश्क़ का नाता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाजुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या।


दूरदर्शन धारावाहिक ‘कबीर‘ में कबीर की भूमिका निभाने वाले अन्नू कपूर ने इस ग़ज़ल 
को अपना स्वर दिया है, बिना वाद्य के। सुनना चाहें तो यहां सुन लीजिए।

                                                                                                 -महेन्द्र वर्मा

कहाँ तुम चले गए / 10.10.2011



दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है



कलाकार
ईश्वर की सबसे प्यारी संतान होता है।
हे ईश्वर !
तुम जब भी अपनी बनाई दुनिया के
तमाम दंद-फंद से
कुछ पलों के लिए अलग होकर
अकेले होना चाहते  होगे,
अपने आत्म के सबसे करीब बेठना चाहते होगे,
मुझे यकीन है, 
उस समय तुम जगजीत सिंह को सुनते होगे।
हे ईश्वर ! 
अपनी आत्मा पर लगी हुई हर खुरच को
तुम जगजीत की आवाज के मखमल से
पोंछा करते होगे। 
मुझे यकीन है !

                                                                      -गीत चतुर्वेदी




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 दुनिया थोड़ी भली लगेगी



बज़्मे-ज़ीस्त सजाकर देख,
क़ुदरत के संग गा कर देख।


घर आएगा नसीब तेरा,
अपना पता लिखाकर देख।


रब तो तेरे दिल में ही है, 
सर को ज़रा झुका कर देख।


जानोगे हमदर्द कौन है,
कोई साज बजा कर देख।


क़ुदरत नेमत बाँट रही है,
दामन तो फैला कर देख।


दिल के ज़ख़्म कहाँ भरते हैं,
आँसू चार बहा कर देख।


दुनिया थोड़ी भली लगेगी,
ख़ामोशी अपना कर देख।

                                        -महेंद्र वर्मा

कुछ लोग




सच्चाई की बात करो तो, जलते हैं कुछ लोग,
जाने कैसी-कैसी बातें, करते हैं कुछ लोग।


धूप, चांदनी, सीप, सितारे, सौगातें हर सिम्त,
फिर भी अपना दामन ख़ाली, रखते हैं कुछ लोग।


उसके आंगन फूल बहुत है, मेरे आंगन धूल,
तक़दीरों का रोना रोते रहते हैं कुछ लोग।


इस बस्ती से शायद कोई, विदा हुई है हीर,
उलझे-उलझे, खोए-खोए, दिखते हैं कुछ लोग।


ख़ुशियां लुटा रहे जीवन भर, लेकिन अपने पास,
कुछ आंसू, कुछ रंज बचाकर, रखते हैं कुछ लोग।


इतना ही कहना था मेरा, बनो आदमी नेक,
हैरां हूं, यह सुनते ही क्यूं, हंसते हैं कुछ लोग।


जुल्म ज़माने भर का जिसने, सहन किया चुपचाप,
उसको ही मुज़रिम ठहराने लगते हैं कुछ लोग।



                                                                -महेंद्र वर्मा

मैं भी इक संतूर रहा हूं।


दिल ही हूं मजबूर रहा हूं,
इसीलिए मशहूर रहा हूं।


चलता आया उसी लीक पर,
दुनिया का दस्तूर रहा हूं।


नए दौर में सच्चाई का,
चेहरा हूं, बेनूर रहा हूं।


वो नज़दीक बहुत हैं मेरे,
जिनसे अब तक दूर रहा हूं।


चोट लगी तो फूल झरे हैं,
मैं भी इक संतूर रहा हूं।


कहते हैं सब कभी किसी की,
आंखों का मैं नूर रहा हूं।


अब मुझको आना न जाना,
मैं तो बस मग़्फ़ूर रहा हूं।

.............................................
संतूर-  एक वाद्ययंत्र
मग़्फ़ूर-जिसे मोक्ष प्राप्त हो गया हो



                                          -महेंद्र वर्मा

किसी ने हंसाया रुलाया किसी ने।


सरे बज़्म जी भर सताया किसी ने,
मेरा कर्ज सारा चुकाया किसी ने।


थकी ज़िंदगी थी सतह झील की सी,
तभी एक पत्थर गिराया किसी ने।


सुकूने-जिगर यक-ब-यक खो गया है,
या वक़्ते- फ़रागत चुराया किसी ने।


मिले नामवर हमनफ़स ज़िंदगी में,
किसी ने हंसाया रुलाया किसी ने।


वो मासूम सा ग़मज़दा लग रहा था,
कि जैसे उसे आजमाया किसी ने।


कोई कह रहा था कि इंसानियत हूं,
मगर नाम उसका मिटाया किसी ने।


दीवानगी बेतरह बढ़ चली जब,
मेरा हाल मुझको सुनाया किसी ने।

बज़्म- महफिल
वक़्ते फ़रागत- आराम का समय
नामवर- प्रसिद्ध
हमनफ़स- साथी

                                                  -महेन्द्र वर्मा

अब हमारे शहर का दस्तूर है यह



घबराइये मत

इस ज़माने की चलन से चौंकिये मत,
कीजिये कुछ, थामकर सिर बैठिये मत।


आज गलियों की हवा कुछ गर्म सी है,
भूलकर भी खिड़कियों को खोलिये मत।


अब हमारे शहर का दस्तूर है यह,
हादसों के बीच रहिये भागिये मत।


मोम के घर में छिपे बैठे हुए जो,
आंच की उम्मीद उनसे कीजिये मत।



रौशनी तो झर रही है तारकों से,
अब अंधेरी रात को तो कोसिये मत।


                                                                       -महेन्द्र वर्मा




मेरे दोस्त ने की है तारीफ़ मेरी


ग़ज़ल
रचनाकार में पूर्व प्रकाशित

कोई शख़्स ग़म से घिरा लग रहा था,
हुआ जख़्म उसका हरा लग रहा था।


मेरे दोस्त ने की है तारीफ़ मेरी, 
किसी को मग़र ये बुरा लग रहा था।


ये चाहा कि इंसां बनूं मैं तभी से,
सभी की नज़र से गिरा लग रहा था।


लगाया किसी ने गले ख़ुशदिली से, 
छुपाता बगल में छुरा लग रहा था।


मैं आया हूं अहसान तेरा चुकाने,
ये जिसने कहा सिरफिरा लग रहा था।


जो होने लगे हादसे रोज इतने,
सुना है ख़ुदा भी डरा लग रहा था।


ग़र इंसाफ तुझको दिखा हो बताओ,
वो जीता हुआ या मरा लग रहा था।

                                                              -महेन्द्र वर्मा

हिंदयुग्म का वार्षिकोत्सव



कल 5 मार्च, 2011 को नई दिल्ली के राजेन्द्र भवन ट्रस्ट सभागार में हिंदयुग्म का वार्षिक सम्मान समारोह आयोजित हुआ। इस आयोजन में 12 यूनिकवियों को सम्मानित किया गया। सम्मानित होने वाले कवियों की सूची में एक नाम मेरा भी था। यह आप सब की शुभकामनाओं का असर है...।
अस्वस्थता के कारण मैं इस कार्यक्रम में भाग नहीं ले सका।
बहरहाल मैं उस ग़ज़ल को यहां प्रस्तुत कर रहा हूं जो हिंदयुग्म की सितम्बर  2010 की प्रतियोगिता में प्रथम स्थान पर चयनित हुई थी।

आपकी दीवानगी बिल्कुल लगे मेरी तरह,
ये अचानक आप कैसे हो गए मेरी तरह।


इक अकेला मैं नहीं कुछ और भी हैं शहर में, 
जेब में रक्खे हुए दो  चेहरे मेरी तरह।


भीड़ से पूछा किसी ने किस तरह हो आदमी,
हो गई मुश्किल कि सारे कह उठे मेरी तरह।


लोग जो सब जानने का कर रहे दावा मगर,
दरहक़ीकत वे नहीं कुछ जानते मेरी तरह।


किस लिए   यूं  आह के पैबंद टांके जा रहे,
क्या जिगर में छेद हैं अहसास के मेरी तरह।


ख़ुदपरस्ती के अंधेरे में भला कैसे जिएं,
देख जैसे जल रहे हैं ये दिये मेरी तरह।


मजहबी धागे उलझते जा रहे थे और वे,
नोक से तलवार की सुलझा रहे मेरी तरह।

                                                                       -महेन्द्र वर्मा

ग़ज़ल



अक्स निशाने पर था रक्खा किसी और का,
शीशा टूट-टूट कर बिखरा किसी और का।


दरवाजे  पर  देख  मुझे  मायूस हुए वो, 
शायद उनको इंतज़ार था किसी और का।


बहुत  दिनों  के  बाद कहीं से ख़त इक आया,
नाम मगर उस पर लिक्खा था किसी और का।


यादों का इक रेला मन को तरल कर गया, 
आंचल भिगो रहा अब होगा किसी और का।


दोस्त  हमारे  कतरा  कर  यूं निकल गए,
मेरा चेहरा समझा होगा किसी और का।


जब दीवारें  अपनेपन  के  बीच  खड़ी हों, 
अपना आंगन लगने लगता किसी और का।


सुबह धूप  का  टुकड़ा  उतरा  देहरी पर,
रुका नहीं वह मेहमान था किसी और का।

                                                                    -महेन्द्र वर्मा

उतना ही सबको मिलना है



ग़ज़ल

उतना ही सबको मिलना है,
जिसके हिस्से में जितना है।


क्यूं ईमान सजा कर रक्खा,
उसको तो यूं ही लुटना है।


ढोते रहें सलीबें अपनी, 
जिनको सूली पर चढ़ना है।


मुड़ कर नहीं देखता कोई, 
व्यर्थ किसी से कुछ कहना है।


जंग आज की जीत चुका हूं,
कल जीवन से फिर लड़ना है।


सूरज हूं जलता रहता हूं,
दुनिया को ज़िंदा रखना है।


बोल सभी लेते हैं लेकिन,
किसने सीखा चुप रहना है।

                                              -महेन्द्र वर्मा


गीतिका





बंद होती सभी खिड़कियां देखिए,
ढा रही हैं कहर आंधियां देखिए।


याद मुझको करे कोई्र ऐसा नहीं,
आ रही हैं मगर हिचकियां देखिए।


भीड़ को फिर कोई आश्वासन मिला, 
बज रही हैं उधर तालियां देखिए।


चल रहे थे मेरी रहनुमाई में जो,
आज गिनते रहे गलतियां देखिए।


जल चुकी हैं मगर ऐंठ बाक़ी रही,
राख सी हो चुकी रस्सियां देखिए।


किस अदा से पसीना दिखाता असर,
खेत में झूमती बालियां देखिए।


रंग फीके लगें ज़िंदगी के अगर,
बाग़ में उड़ रही तितलियां देखिए।

                                                           -महेन्द्र वर्मा


ख़ाक है संसार





बुलबुले सी ज़िदगानी, या ख़ुदा,
है कोई झूठी कहानी, या ख़ुदा।


वक़्त की फिरकी उफ़क पर जा रही,
छोड़ती अपनी निशानी, या ख़ुदा।


पांव धरती पर गड़े सबके मगर,
ख़्वाब बुनते आसमानी, या ख़ुदा।


फूल मुरझाने लगे हैं चमन के,
खो गई है रुत सुहानी, या ख़ुदा।


उल्लुओं ने पंख नोचे हंसिनी के,
दुश्मनी लगती पुरानी, या ख़ुदा।


हंस रहे होगे हमारे हाल पर,
आपकी है मेहरबानी, या ख़ुदा।


ख़ाक है संसार, माज़ी के सिवा, 
है यहां हर चीज़ फ़ानी, या ख़ुदा।

                                                -महेन्द्र वर्मा
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उफ़क - क्षितिज, उल्लू - लक्ष्मी का वाहन
हंसिनी /हंस - सरस्वती का वाहन
माज़ी - अतीत, फ़ानी - नश्वर

ज़िदगी से सुर मिलाना चाहिए



अब अंधेरे को डराना चाहिए
फिर कोई सूरज उगाना चाहिए।

शोर से ऊबी गली ने फिर कहा
झींगुरों को गुनगुनाना चाहिए।

जुगनुओं को देख तारे जल गए
अब हमें भी झिलमिलाना चाहिए।

प्यार के पल को समझने के लिए
सुन रहे हैं इक ज़माना चाहिए।

आदमी को कुछ नही तो कम से कम
जि़्दगी से सुर मिलाना चाहिए।

क्या पता कब दाग़ लग जाए कहीं
वक़्त से दामन बचाना चाहिए।

                                       -महेन्द्र वर्मा

है कैसा दस्तूर




भूल चुके हैं हरदम साथ निभाने वाले,
याद किसे रखते हैं आज ज़माने वाले।


दूर कहीं जाकर बहलाएं मन को वरना,
चले यहां भी आएंगे बहकाने वाले।


उनका कहना है वो हैं हमदर्द हमारे,
चेहरे बदल रहे अब हमें मिटाने वाले।


रस्ते कहां, कहां मंज़िल है कौन बताए,
भटक गए हैं खु़द ही राह दिखाने वाले।


सुनते हैं रोने से दुख हल्का होता है,
कैसे जीते होंगे फिर न रोने वाले।


है कैसा दस्तूर निराला दुनिया का,
अंधियारे में बैठे शमा जलाने वाले।


रोते रोते ऊब चुके वे पूछा करते,
क्या तुमने देखे हैं कहीं हंसाने वाले।


                                                        -महेन्द्र वर्मा

आप भी






‘ग़र अकेले ऊब जाएं आप भी,
आईने से दिल लगाएं आप भी।


देखिए शम्आ की जानिब इक नज़र,
ज़िदगी को यूं लुटाएं आप भी।


हर अंधेरे में नहीं होता अंधेरा,
आंख से परदा हटाएं आप भी।


जान लोगे लोग जीते किस तरह हैं,
इक मुखौटा तो लगाएं आप भी।


भूल जाएं रंज अब ऐसा करें,
साथ मेरे गुनगुनाएं आप भी।


सब इसे कहते, ख़ुदा की राह है,
आशिक़ी को आज़माएं आप भी।


मैं कबीरा की लुकाठी ले चला हूं,
हो सके तो साथ आएं आप भी।

                                                       -महेन्द्र वर्मा

नया ज़माना

  



नाकामी को ढंकते क्यूं हो,
नए बहाने गढ़ते क्यूं हो ?


रस्ते तो बिल्कुल सीधे हैं,
टेढ़े-मेढ़े चलते क्यूं हो ?


तुमने तो कुछ किया भी नहीं,
थके-थके से लगते क्यूं हो ?


भीतर कालिख भरी हुई है,
बाहर उजले दिखते क्यूं हो ?


पैर तुम्हारे मुड़ सकते हैं,
चादर छोटी कहते क्यूं हो ?


कद्र वक़्त की करना सीखो,
छत की कड़ियां गिनते क्यूं हो ?


नया ज़माना पूछ रहा है,
मुझ पर इतना हंसते क्यूं हो ?


                        -महेन्द्र वर्मा

गुज़रा हुआ ज़माना ढूंढ




लम्हा  एक  पुराना  ढूंढ,
फिर खोया अफ़साना ढूंढ।


वे गलियां वे घर वे लोग,
गुज़रा हुआ ज़माना ढूंढ।


भला मिलेगा क्या गुलाब से,
बरगद  एक  सयाना  ढूंढ।


लोग बदल से गए यहां के,
कोई  और  ठिकाना  ढूंढ।


कुदरत में है तरह तरह के,
  सुंदर  एक  तराना ढूंढ।


दिल की गहराई जो नापे,
ऐसा  इक  पैमाना   ढूंढ।


प्रेम   वहीं  कोने पर बैठा,
दिल को ज़रा दुबारा ढूंढ।


जिस पर तेरा नाम लिखा हो,
ऐसा   कोई   दाना   ढूंढ।


                                          - महेन्द्र वर्मा