बातों का फ़लसफ़ा



 

ज़रा-ज़रा इंसाँ  होने से मन को सुकून मिलना तय है]
  अगर देवता बन बैठे तो हरदम दोष निकलना तय है ।

सूरज गिरा क्षितिज के नीचे   सुबह सबेरे फिर चमकेगा]
चलने वालों का ही गिरना उठना फिर से चलना तय है ।

जब अतीत की गहराई से   यादों का लावा-सा निकले]
मन में जमी भावनाओं का गलना और पिघलना तय है ।

जहाँ-जहाँ  ढूँढ़ोगे   उसको   अपना   ही   साया   देखोगे]
ख़ुद से अलग समझते हो तो इस यक़ीन में छलना तय है ।

बातों का है  यही फ़़लसफ़ा  रपटीली  होती हैं   अक्सर]
समझ गए तो सँभल गए पर चूके अगर फिसलना तय है ।


                    -महेन्द्र वर्मा



उम्र का समंदर

दिन ढला तो साँझ का उजला सितारा मिल गया,
रात की अब फ़िक्र किसको जब दियारा मिल गया ।

ज़िंदगी   की  डायरी   में    बस   लकीरें  थीं  मगर,
कुछ लिखा था जिस सफ़्हे पर वो दुबारा मिल गया ।

तेज़ लहरों ने गिराया फिर उठाया और तब,
उम्र के गहरे समंदर का किनारा मिल गया ।

वो  जिसे  बाहर  हमेशा  ढूँढता  फिरता  रहा,
बंद आखों से हृदय में जब निहारा मिल गया ।

वक़्त ने  की  मेह्रबानी  तोहफ़ा  उसने  दिया,
फिर वही अनबूझ प्रश्नों का पिटारा मिल गया ।


-महेन्द्र वर्मा

चींटी के पग





सहमी-सी है झील शिकारे बहुत हुए,
और उधर तट पर मछुवारे बहुत हुए ।

चाँद सरीखा कुछ तो टाँगो टहनी पर,
जलते-बुझते जुगनू तारे बहुत हुए ।

चींटी के पग नेउर को भी सुनता हूँ,,
ढोल मँजीरे औ’जयकारे बहुत हुए ।

आओ अब मतलब की बातें भी  कर लें,
जुमले वादे भाषण नारे बहुत हुए ।

कुदरत यूँ ही ख़फ़ा नहीं होती हमसे,
समझाने के लिए इशारे बहुत हुए ।

-महेन्द्र वर्मा

मन के नयन



मन के नयन खुले हैं जब तक,
सीखोगे तुम जीना तब तक ।

दीये को कुछ ऊपर रख दो,
पहुँचेगा उजियारा सब तक ।

शोर नहीं बस अनहद से ही,
सदा पहुँच जाएगी रब तक।

दिल दरिया तो छलकेगा ही,
तट भावों को रोके कब तक।

जान नहीं पाया हूँ  कुछ भी,
जान यही पाया हूँ अब तक।

-महेन्द्र वर्मा

श्वासों का अनुप्रास










 







सच को कारावास अभी भी,
भ्रम पर सबकी आस अभी भी ।

पानी ही पानी दिखता  पर,
मृग आँखों में प्यास अभी भी ।

मन का मनका फेर कह रहा,
खड़ा कबीरा पास अभी भी ।                                               

बुद्धि विवेक ज्ञान को वे सब,
देते हैं  संत्रास  अभी  भी ।

जीवन लय  को  साध  रहे हैं,
श्वासों का अनुप्रास अभी भी ।

पाने का  आभास क्षणिक था,
खोने का अहसास अभी भी ।

पंख हौसलों के ना कटते,
उड़ने का उल्लास अभी भी ।


                                 -महेन्द्र वर्मा







यूँ ही

यादों के कुछ ताने-बाने
और अकेलापन,
यूँ ही बीत रहीं दिन-रातें
और अकेलापन।
ख़ुद से ख़ुद की बातें शायद
ख़त्म कभी न हों,
कुछ कड़वी कुछ मीठी यादें
और अकेलापन।
जीवन डगर कठिन है कितनी
समझ न पाया मैं,
दिन पहाड़ खाई सी
रातें और अकेलापन।
किसने कहा अकेला हूँ मैं
देख ज़रा मुझको,
घेरे रहते हैं सन्नाटे
और अकेलापन।
पहले मेरे साथ थे ये सब
अब भी मेरे साथ,
आहें, आँसू, धड़कन
साँसें और अकेलापन।
 

-महेन्द्र वर्मा

अब न कहना

सबने उतना पाया जिसका हिस्सा जितना, क्या मालूम,
मेरे भीतर
कुछ  मेरा है या  सब उसका, क्या मालूम ।

कि़स्मत का आईना बेशक होता है बेहद नाज़ुक,
शायद यूँ सब करते हैं पत्थर का सिजदा क्या मालूम ।

जीवन के उलझे-से ताने-बाने बिखरे इधर-उधर,

एक लबादा बुन पाता मैं काश खुरदरा क्या मालूम ।

झूठ हमेशा कहने वाला बोला - मैं तो झूठा हूँ,
उसके कहने में सच कितना झूठा कितना क्या मालूम ।

दानिशमंदी की परिभाषा जाने किसने यूँ लिख दी,
साजि़श कर के अपना उल्लू सीधा करना, क्या मालूम ।

फ़सल उगा सब को जीवन दूँ, मुझ भूखे को मौत मिली,
कब देंगे वे देशभक्त का मुझको तमग़ा क्या मालूम ।

मैंने तो इंसान बना कर भेजा सब को धरती पर,
जाति-धर्म में किसने बाँटा, अब न कहना क्या मालूम ।
 

                                                                                -महेन्द्र वर्मा

ले जा गठरी बाँध

वक़्त घूम कर चला गया है मेरे चारों ओर,
बस उन क़दमों का नक़्शा है मेरे चारों ओर ।

सदियों का कोलाहल मन में गूँज रहा लेकिन,
कितना सन्नाटा पसरा है मेरे चारों ओर ।

तेरे पास अभाव अगर है ले जा गठरी बाँध,
नभ जल पावक मरुत धरा है मेरे चारों ओर ।

मंदिर मस्जिद क्यूँ भटकूँ जब मेरा तीरथ नेक,
शब्दों का सुरसदन बना है मेरे चारों ओर ।

रहा भीड़ से दूर हमेशा बस धड़कन थी पास,
रुकी तो सारा गाँव खड़ा है मेरे चारों ओर ।

                                             
  -महेन्द्र वर्मा

शीत - सात छवियाँ



धूप गरीबी झेलती, बढ़ा ताप का भाव,
ठिठुर रहा आकाश है,ढूँढ़े सूर्य अलाव ।

रात रो रही रात भर, अपनी आंखें मूँद,
पीर सहेजा फूल ने, बूँद-बूँद फिर बूँद ।

सूरज हमने क्या किया, क्यों करता परिहास,
धुआँ-धुआँ सी जि़ंदगी, धुंध-धुंध विश्वास ।

मानसून की मृत्यु से, पर्वत है हैरान,
दुखी घाटियाँ ओढ़तीं, श्वेत वसन परिधान ।

कितनी निठुरा हो गई, आज पूस की रात,
नींद राह तकती रही, सपनों की बारात ।

उम्र नहीं अब देखती, छोटी चादर माप,
मन को ऊर्जा दे रहा, जीवन का संताप ।

बुझी अँगीठी देखती, मुखिया बेपरवाह,
परिजन हुए विमूढ़-से, वाह करें या आह ।
                                                                  -महेन्द्र वर्मा

उजाले का स्रोत



सदियों से
‘अँधेरे’ में रहने के कारण
‘वे’
अँधेरी गुफाओं में
रहने वाली मछलियों की तरह
अपनी ‘दृष्टि’ खो चुके हैं ।
उनकी देह में
अँधेरे से ग्रसित
मन-बुद्धि तो है
किंतु आत्मा नहीं
क्योंकि आत्मा
अँधेरे में नहीं रहती
वह तो स्वयं
‘उजाले का स्रोत’ होती है ।
                                                       -महेन्द्र वर्मा

सूर्य के टुकड़े

छंदों के तेवर बिगड़े हैं,
गीत-ग़ज़ल में भी झगड़े हैं।

राजनीति हो या मज़हब हो,
झूठ के झंडे लिए खड़े हैं ।

बड़े लोग हैं ठीक है लेकिन,
जि़ंदा हैं तो क्यूँ अकड़े हैं।
 

दीयों की औकात न पूछो
किसी
सूर्य के ये टुकड़े हैं ।

मौन-मुखर-पाखंड-सत्यता,
मेरे गीतों के मुखड़े हैं ।
                                                   -महेन्द्र वर्मा

मौसम की मक्कारी

हरियाली ने कहा देख लो  मेरी यारी कुछ दिन और,
सहना होगा फिर उस मौसम की मक्कारी कुछ दिन और ।

बाँस थामकर  नाच रहा था  छोटा बच्चा रस्सी पर,
दिखलाएगा वही तमाशा वही मदारी कुछ दिन और ।

हर मंजि़ल का सीधा-सादा रस्ता नहीं हुआ करता,
टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी से कर लो यारी कुछ दिन और ।

अंधी श्रद्धा   के बलबूते  टिका नहीं  व्यापार कभी,
बने रहो भगवान कपट से या अवतारी कुछ दिन और ।

ग़म के पौधों  पर यादों की  फलियाँ भी  लग जाएंगी,
अहसासों से सींच सको  ’गर  उनकी क्यारी कुछ दिन और ।

सुकूँ  नहीं मिलता  है दिल को  कीर्तन और अज़ानों से,
हमें सुनाओ बच्चों की खिलती किलकारी कुछ दिन और ।

तस्वीरों  पर  फूल  चढ़ा  कर  गुन  गाएंगे  मेरे  यार,
कर लो जितनी चाहे कर लो चुगली-चारी कुछ दिन और ।


                                                                                                      
-महेन्द्र वर्मा


जाने किसकी नज़र लग गई

कभी छलकती रहती थीं  बूँदें अमृत की धरती पर,
दहशत का जंगल उग आया कैसे अपनी धरती पर ।

सभी मुसाफिर  इस सराय के  आते-जाते रहते हैं,
आस नहीं मरती लोगों की बस जीने की  धरती पर ।

ममतामयी प्रकृति को चिंता है अपनी संततियों की,
सबके लिए जुटा कर रक्खा दाना -पानी धरती पर ।

पूछ  रहे  हो  हथेलियों  पर  कैसे   रेखाएँ   खींचें,
चट्टानों पर ज़ोर लगा, हैं बहुत नुकीली धरती पर ।

रस्म निभाने सबको मरना इक दिन लेकिन उनकी सोच,
जो हैं  अनगिन  बार  मरा  करते  जीते -जी  धरती पर ।

जब से पैसा दूध-सा हुआ  महल बन गए बाँबी-से,
नागनाथ औ’ साँपनाथ की भीड़ है बढ़ी धरती पर ।

मौसम रूठा रूठी तितली रूठी दरियादिली  यहाँ,
जाने किसकी नज़र लग गई आज हमारी धरती पर ।

                                                                                                              -महेन्द्र वर्मा

औषधि ये ही तीन हैं

श्रेष्ठ विचारक से अगर, करना हो संवाद,
उनकी पुस्तक बांचिए, भीतर हो अनुनाद।

जिनकी सोच अशक्त है, वे होते वाचाल,
उत्तम जिनकी सोच है, नहीं बजाते गाल।

सुनना पहले सीखिए, फिर देखें हालात,
बुरे वचन में भी दिखे, कोई अच्छी बात।

स्वविश्वास सहेजिए, कभी न होती हार,
तुष्टि विजय यश आत्मबल, अनुगामी हों चार।

महापुरुष जो दे गए, निज कर्मों से सीख,
भूल गई दुनिया उन्हें, कहीं न पड़ती दीख।

स्वाभिमानियों का सदा, ऊँचा रहता माथ,
दंभी तब तक हाँकते, जब तक सत्ता साथ।

प्रकृति समय अरु धीरता, कभी न होते नष्ट,
औषधि ये ही तीन हैं, हरते सारे कष्ट।


                                           
-महेन्द्र वर्मा

सम्मोहन

अगर मैं ये कहूँ
कि
धर्म से हटा दो
आडम्बर पूरी तरह
तो
क्या तुम मुझे
जीने नहीं दोगे
और
अगर मैं ये कहूँ
कि
मैं धर्म में
मिला सकता हूं
कुछ और सम्मोहनकारी आडम्बर
तो
क्या तुम मुझे
महामंडलाधिपति बना दोगे !


                                                   -महेन्द्र वर्मा

कृष्ण विवर

कुछ भी नहीं था
पर शून्य भी नहीं था
चीख रहे उद्गाता ।

जगती का रंगमंच
उर्जा का है प्रपंच,
अकुलाए-से लगते
आज महाभूत पंच,

दिक् ने ज्यों काल से
तोड़ लिया नाता।

न कोई तल होगा
न ही कोई शिखर,
अस्ति और नास्ति को
निगलेगा कृष्ण विवर,

तुम्ही जानते हो
न जानते विधाता।

                    
-महेन्द्र वर्मा

क्लोन

वह
अनादि है
अनंत है
उसे
न तो
उत्पन्न किया जा सकता है
और न ही नष्ट

उसका
नहीं कोई आकार
रूप नहीं, गुण नहीं
वह
पदार्थ भी नहीं
किंतु  विद्यमान है यत्र-तत्र-सर्वत्र

कण-कण में है वह
व्यक्त कर लेता है

स्वयं को अनेक रूपों में भी


कुछ विद्वान
इसे ऊर्जा कहते हैं
किंतु
मुझे तो यह
‘क्लोन’  लगता है

छांदोग्य उपनिषद
में वर्णित ब्रह्म का।


                                               -महेन्द्र वर्मा

देवता

आदमी को आदमी-सा फिर बना दे देवता,
काल का पहिया ज़रा उल्टा घुमा दे देवता।

लोग सदियों से तुम्हारे नाम पर हैं लड़ रहे,
अक़्ल के दो दाँत उनके फिर उगा दे देवता।

हर जगह मौज़ूद पर सुनते कहाँ हो इसलिए,
लिख रखी है एक अर्ज़ी कुछ पता दे देवता।

शौक से तुमने गढ़े हैं आदमी जिस ख़ाक से,
और थोड़ी-सी नमी उसमें मिला दे देवता।

लोग  तुमसे  भेंट  करवाने  का  धंधा  कर  रहे,
दाम उनको बोल कर कुछ कम करा दे देवता।

धूप-धरती-जल-हवा-आकाश के अनुपात को,
कुछ बदल कर देख थोड़ा फ़र्क़ ला दे देवता।

आजकल दुनिया की हालत देख तुम ग़मगीन हो,
कुछ  ग़लत  मैंने  कहा  हो  तो  सज़ा  दे  देवता।

                                                                              -महेन्द्र वर्मा

एक बूंद की रचना सारी : संत सिंगा जी

                      भारत के महान संत कवियों के परिचय की श्रृंखला के अंतर्गत मैंने ब्रह्मवादी संतों को प्राथमिकता दी है। मैं मानता हूं कि ब्रह्मवादी विचारधारा सत्य के अधिक निकट है। यह केवल श्रद्धा पर आधारित नहीं है बल्कि तर्क की कसौटी पर अधिक खरी उतरती है।
ऐसे ही एक ब्रह्मवादी संत सिंगा जी का परिचय प्रस्तुत है-

                       संत सिंगा जी का जन्म वैशाख शुक्ल 11 संवत 1576 को मध्यप्रदेश के खुजरी ग्राम में हुआ था। इनकी माता का नाम गौरबाई तथा पिता का नाम भीमाजी था। बचपन में बालक सिंगा को माता-पिता के द्वारा दिव्य संस्कार प्राप्त हुए। 5 वर्ष बाद इनका परिवार हरसूद में जाकर बस गया। युवा होने पर सिंगाजी का विवाह हो गया किंतु ये गृहस्थ जीवन के प्रति विरागी थे।
                       एक दिन सिंगाजी के कानों ने संत मनरंगीर जी का मधुर गायन सुना। इस भजन को सुनकर सिंगाजी का हृदय वैराग्य से आपूरित हो गया। उन्होंने संत मनरंगीर जी का शिष्यत्व ग्रहण किया और जंगलों में साधना करने लगे। अपने 3 वर्षों के साधना काल में सिंगाजी ने आठ सौ पदों की रचना की। उनकी रचनाओं में प्रमुख हैं- 1. सिंगाजी की बाणावली, 2. आत्म ध्यान, 3. सिंगाजी का दृढ़ उपदेश, 4.आठ वार सिंगाजी का, 5. पंद्रह दिन, 6. सिंगा जी की नराज।
                        संवत 1616 में श्रावण शुक्ल 9 को सिंगाजी ने हरसूद में स्वेच्छा से समाधि ली।


प्रस्तुत है उनका एक पद-

निर्गुण ब्रह्म है न्यारा, कोइ समझो समझणहारा।
खोजत ब्रह्मा जनम सिराना, मुनिजन पार न पाया।
खोजा खोजत शिव जी थाके, ऐसा अपरंपारा।।
सेस सहस मुख रटे निरंतर, रैन दिवस एकसारा।
ऋषि मुनि और सिद्ध चाौरासी, तैंतिस कोटि पचहारा।।
त्रिकुटी महल में अनहद बाजे, होत सबद झनकारा।
सुकमणि सेज सुन्न में झूले, वो है गुरू हमारा।।
वेद कहे अरु कह निरवाणी, श्रोता कहो विचारा।
काम क्रोध मद मत्सर त्यागों, झूठा सकल पसारा।।
एक बूंद की रचना सारी, जाका सकल पसारा।
सिंगाजी भर नजरा देखा, वो ही गुरू हमारा।।

मैं हुआ हैरान

घर कभी घर थे मगर अब ईंट पत्थर हो गए,
रेशमी अहसास सारे आज खद्दर हो गए।

वक़्त की रफ़्तार पहले ना रही इतनी विकट,
साल के सारे महीने ज्यूं दिसंबर हो गए।

शोर ये कैसा मचा है-सत्य मैं हूं, सिर्फ मैं,
आदमी कुछ ही बचे हैं शेष ईश्वर हो गए।

परख सोने की भला कैसे सही होगी मगर,
जो ‘कसौटी’ थे वे सारे संगमरमर हो गए।

जख़्म पर मरहम लगा दूं, सुन हुआ वो ग़मज़दा,
मैं हुआ हैरान मीठे बोल नश्तर हो गए।
                                                                                    -महेन्द्र वर्मा

श्रद्धा की आंखें नहीं

जंगल तरसे पेड़ को, नदिया तरसे नीर,
सूरज सहमा देख कर, धरती की यह पीर ।

मृत-सी है संवेदना, निर्ममता है शेष,
मानव ही करता रहा, मानवता से द्वेष ।

अर्थपिपासा ने किया, नष्ट धर्म का अर्थ,
श्रद्धा की आंखें नहीं, सत्य हुआ असमर्थ ।

‘मैं’ से ‘मैं’ का द्वंद्व भी
,सदा रहा अज्ञेय,
पर सबका ‘मैं’ ही रहा, अपराजित दुर्जेय ।

उर्जा-समयाकाश है, अविनाशी अन्-आदि,
शेष विनाशी ही हुए, जल-थल-नभ इत्यादि ।

अंधकार के राज्य में, दीये का संघर्ष,
त्रास हारता है सदा, विजयी होता हर्ष ।

कहीं खेल विध्वंस का, कहीं सृजन के गीत,
यही सृष्टि का नियम है, यही जगत की रीत ।
                                                                         -महेन्द्र वर्मा

गाता हुआ वायलिन

                              गाता हुआ वायलिन यानी "singing violin" पूरे विश्व में केवल दो कलाकारों के पास है। एक- पद्मभूषण विदुषी एन. राजम् और दूसरी, उनकी भतीजी, विदुषी कला रामनाथ के पास। दोनों हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत  की विश्वप्रसिद्ध और बहुश्रुत विदुषी हैं। वास्तव में गायकी के अंदाज में वायलिन वादन की उनकी अनूठी और अप्रतिम शैली के कारण संगीत प्रेमियों ने उनके वादन को "singing violin" का खिताब दिया है।

                                सन् 1938 में चेन्नई में जन्मी विदुषी एन. राजम् के पिता विद्वान ए.नारायण अय्यर  कर्नाटक शैली के विख्यात वायलिन वादक थे। 3 वर्ष की उम्र में ही जन्मजात प्रतिभाशालिनी राजम् ने अपने पिताजी से वायलिन सीखना प्रारंभ कर दिया था। हिंदुस्तानी शास्त्रीय शैली में वायलिन वादन उन्होंने ग्वालियर घराने के प्रख्यात गायक पं. ओन्कार नाथ ठाकुर से सीखा जो बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संगीत विभाग के प्रथम विभागाध्यक्ष भी रहे। एक प्रख्यात गायक से संगीत सीखने के कारण ही उनके वायलिन वादन में अनूठी गायकी शैली समृद्ध  हुई।
                          
                           एन. राजम् के बड़े भाई संगीत कलानिधि श्री टी.एन.कृष्णन कर्नाटक शैली के विख्यात वायलिन वादक हैं। उनके एक और संगीतकार भाई श्री टी.एन. मणि की सुपुत्री हैं- विदुषी कला रामनाथ। इनका जन्म सन् 1967 में हुआ और 1970 से उन्होंने अपनी बुआ श्रीमती एन. राजम् से वायलिन सीखना प्रारंभ किया। तत्पश्चात उन्होंने मेवाती घराने के प्रख्यात गायक पद्मविभूषण पं. जसराज से संगीत की शिक्षा ग्रहण की । हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के इन दो महान विभूतियों से संगीत सीखने और अपनी जन्मजात प्रतिभा के कारण श्रीमती कला रामनाथ के वायलिन से भी गायकी के अंदाज में राग सृजित होने लगे। देश-विदेश में अनेक पुरस्कारों से सम्मानित श्रीमती कला रामनाथ ने पश्चिमी और अफ्रीकी संगीतकारों के साथ भी अनेक सराहनीय कार्यक्रम प्रस्तुत किए हैं।
 
                                विदुषी एन. राजम् की सुपुत्री तथा शिष्या श्रीमती संगीता शंकर और इनकी दो प्रतिभाशाली बेटियां रागिनी और नंदिनी शंकर भी गायकी शैली में वायलिन वादन की अप्रतिम विभूतियां हैं। एक ही परिवार की निरंतर चार पीढि़यों ने वायलिन वादन के क्षेत्र में जो वैश्विक ख्याति अर्जित की है वह अपनी तरह का पहला उदाहरण है।
 
                               इतना ही नहीं, विदुषी एन.राजम् के एक और भाई पं. नारायण गणेश सरोद वादक हैं तथा चौथे भाई टी.एन. रामचंद्रन की सुपुत्री श्रीमती इंदिरा रामानी कर्नाटक शैली की प्रसिद्ध गायिका हैं। बड़े भाई श्री टी.एन.कृष्णन की सुपुत्री श्रीमती विजी कृष्णन नटराजन और सुपु़त्र श्रीराम कृष्णन भी प्रसिद्ध संगीतज्ञ हैं।
 
                           विदुषी एन.राजम के पिता विद्वान ए.नारायण अय्यर के पूर्व की तीन पीढि़यां भी केरल राजघराने के संगीतगुरु रहे। सात पीढि़यों के संगीत साधकों का यह सुरीला संकुल भविष्य में भी भारतीय शास्त्रीय संगीत की सतत् श्रीवृद्धि करता रहेगा, निस्संदेह।
 
                                                          " इन विभूतियों को प्रणाम "

                                ( इस चित्र में वे सभी हैं, जिनका उल्लेख इस आलेख में है )
[मुझे विदुषी एन.राजम्, श्रीमती संगीता शंकर और श्रीमती कला रामनाथ के वायलिन वादन की मंचीय प्रस्तुति देखने-सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। ]
                                                                                                                             - महेन्द्र वर्मा

                                                                                                                                                                     

शुभ की कामना


घर का कोना-कोना उजला हुआ करे तो अच्छा हो,
मन के भीतर में भी दीपक जला करे तो अच्छा हो।

कहते हैं कुछ लोग कि कोई ऊपर वाला सुनता है,
तेरा मेरा उसका सबका भला करे तो अच्छा हो।

बैठे-ठालों के घर पर क्यों धन की बारिश होती है,
मिहनतकश लोगों के आँँगन गिरा करे तो अच्छा हो।

ढोंग और पाखंड तुले हैं नाश उजाले का करने,
एक दिया इनके मरने की दुआ करे तो अच्छा हो।

स्वस्थ-सुखी-समृद्ध सभी हों कहती है ये दीवाली,
शुभ की यही कामना सबको फला करे तो अच्छा हो।

त्योहारें  तो  मौसम-से  हैं  आते  जाते  रहते हैं,
अंतस्तल में रोज दिवाली हुआ करे तो अच्छा हो।


केवल वे ही सुन पाते हैं जिनको सुनना आता है,
इन बातों को सुनकर कोई जिया करे तो अच्छा हो।



 सभी मित्रों को दीपावली की अशेष शुभकामनाएँँ।

                                                               
                                                                                   -महेन्द्र वर्मा

सर्पिल नीहारिका

ठिठके-से तारों की ऊँघती लड़ी,
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।

                     होनी के हाथों में जकड़न-सी आई
                     सूरज की किरणों को ठंडक क्यों भाई,

झींगुर को फाँस रही नन्ही मकड़ी।
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।
                     

                     पश्चिम के माथे पर सुकवा की बिंदी,
                     आलिंगन को आतुर गंगा कालिंदी

संध्या नक्षत्रों की खोलती कड़ी।
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।
                     

                      वर्तुल में घूमता है सप्तर्षि मन,
                      चंदा की जुगनू से कैसी अनबन,

सर्पिल नीहारिका में दृष्टि जा गड़ी।
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।

 


                                                                    -महेन्द्र वर्मा


घर की चौखट

गूँज उठा पैग़ाम आखि़री, चलो ज़रा,
‘जो बोया था काट रहा हूँ, रुको ज़रा।’

हर बचपन में छुपे हुए हैं हुनर बहुत,
आहिस्ता से चाबी उनमें भरो ज़रा।

औरों के बस दोष ढूँढ़ते रहते हो,
अपने ज़ुल्मों की गिनती भी करो ज़रा।

ऊब उठेगा, किसको फुरसत सुनने की,
अपने दिल का
हा किसी से कहो ज़रा।

ख़ामोशी की भी अपनी भाषा होती है,
मन के ज़रिए अहसासों को सुनो ज़रा।

कितनी बेरहमी से सर काटे तुमने,
ऊपर भी है एक अदालत, डरो ज़रा।

क़द ऊँचा कर दिया तुम्हारा अपनों ने,
घर
की चौखट  छोटी-सी है, झुको ज़रा।

                                                              
-महेन्द्र वर्मा

मंजर कैसे-कैसे


मंजर      कैसे-कैसे     देखे,
कुछ हँस के कुछ रो के देखे।

बड़ी भीड़ थी, सुकरातों के-
ऐब    ढूंढते-फिरते   देखे।

घर के भीतर घर, न जाने-
कितने बनते-गिरते देखे।

पूछा, कितने  बसंत  गुजरे, 
इतने पतझर कहते देखे।

शब्दों के नश्तर के आगे,
बेबस मौन सिसकते देखे।

गए  दूसरों  को  समझाने,
खुद को ही समझाते देखे।

कुछ ही साबुत इंसां-से थे,
बाकी  आड़े-तिरछे  देखे।

                                                        - महेन्द्र वर्मा