आइन्स्टीन ने धर्म और ईश्वर के संबंध में क्या कहा था


14 जुलाई, 1930 को, अल्बर्ट आइंस्टीन ने भारतीय दार्शनिक, संगीतकार और नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर का बर्लिन के अपने घर में स्वागत किया। दोनों की बातचीत इतिहास में सबसे उत्तेजक, बौद्धिक और दिलचस्प विषय पर हुई, और वह विषय है - विज्ञान और धर्म के बीच पुराना संघर्ष -



आइन्स्टीनः  यदि इंसान नहीं होते, तो क्या बेल्वेडियर का अपोलो सुंदर नहीं होता ?
टैगोरः  नहीं !
आइन्स्टीन :  मैं सौंदर्य की इस अवधारणा से सहमत हूं, लेकिन सच के संबंध में नहीं।
टैगोरः  क्यों नहीं ? मनुष्यों के माध्यम से सत्य महसूस किया जाता है।
आइन्स्टीन :  मैं साबित नहीं कर सकता कि मेरी धारणा सही है, लेकिन यह मेरा धर्म है। ...... मैं साबित नहीं कर सकता, लेकिन मैं पाइथागोरियन तर्क में विश्वास करता हूं कि सत्य मनुष्यों से स्वतंत्र है।
टैगोरः   किसी भी मामले में, अगर कोई सत्य मानवता से बिल्कुल असंबंधित है, तो हमारे लिए यह बिल्कुल अस्तित्वहीन है।
आइन्स्टीन :   तब तो मैं आप से अधिक धार्मिक हूँ !
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विज्ञान और धर्म के विषय में जब भी बात होती है तो आइन्स्टीन के एक कथन को प्रायः उद्धरित किया जाता है-  “ धर्म के बिना विज्ञान लंगड़ा है, विज्ञान के बिना धर्म अंधा है। “
इस कथन से यह प्रतीत होता है कि आइन्स्टीन धर्म और विज्ञान को परस्पर पूरक मानते हैं । इस कथन के पूर्व के वाक्य इस प्रकार हैं-
“दूसरी तरफ, धर्म केवल मानव विचारों और कार्यों के मूल्यांकन के साथ ही व्यवहार करता है, यह तथ्यों के बीच तथ्यों और उनके संबंधों की उचित व्याख्या नहीं कर सकता है। ... विज्ञान केवल उन लोगों द्वारा समझा जा सकता है जो सच्चाई और समझ की आकांक्षा के प्रति पूरी तरह से समर्पित हैं। हालांकि, भावना का यह स्रोत धर्म के क्षेत्र से उगता है। इसके लिए इस संभावना में भी विश्वास है कि अस्तित्व की दुनिया के लिए मान्य नियम तर्कसंगत हैं, यानी, कारणों से समझने योग्य हैं। मैं उस गहन विश्वास के बिना एक वास्तविक वैज्ञानिक की कल्पना नहीं कर सकता। यह स्थिति एक रूपक द्वारा इस तरह व्यक्त की जा सकती हैः धर्म के बिना विज्ञान लंगड़ा है, विज्ञान के बिना धर्म अंधा है।     
 “( Ideas and Opinions] , क्राउन पब्लिशर्स, 1 9 54, यहां पुनः उत्पन्न)
आइंस्टीन की मृत्यु से एक साल पहले, 1954 की बात। एक संवाददाता ने आइंस्टीन के धार्मिक विचारों के बारे में एक लेख पढ़ा था । उसने आइंस्टीन से पूछा कि लेख सही था या नहीं। आइंस्टीन ने उत्तर दिया-
“यह निश्चित रूप से एक झूठ था जो आपने मेरे धार्मिक दृढ़ विश्वासों के बारे में पढ़ा था, एक झूठ जिसे व्यवस्थित रूप से दोहराया जा रहा है। मैं एक निजी ईश्वर में विश्वास नहीं करता हूं और मैंने कभी इनकार नहीं किया है लेकिन इसे स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है। अगर मेरे अंदर कुछ है जिसे धार्मिक कहा जा सकता है तो यह दुनिया की संरचना के लिए असहज प्रशंसा है, जहां तक हमारा विज्ञान इसे प्रकट कर सकता है।
 “ (Albert Einstein: The Human Side से 24 मार्च 1954 का पत्र, हेलेन डुकास और बनेश हॉफमैन, प्रिंसटन यूनिवर्सिटी द्वारा संपादित)


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धर्म और ईश्वर के संबंध में आइन्स्टीन के कुछ और विचार -




“ईश्वर के विषय में मेरी स्थिति एक अज्ञेयवादी है। मैं आश्वस्त हूं कि जीवन के सुधार और संवर्धन के लिए नैतिक सिद्धांतों की चेतना को किसी कानून नियंता के विचार की आवश्यकता नहीं है, विशेष रूप से एक ऐसा कानून नियंता जो पुरस्कार और दंड के आधार पर काम करता है। “ (एम.बर्कोवित्ज़ को पत्र, 25 अक्टूबर, 1950;
Einstein  Archive    51-215)

“मानव जाति के आध्यात्मिक विकास की अवधि के दौरान मानव फंतासी ने मनुष्य की अपनी छवि में देवताओं को बनाया, जिन्होंने अपनी इच्छा के संचालन के द्वारा दुनिया को प्रभावित किया था। मनुष्य ने जादू और प्रार्थना के माध्यम से इन देवताओं के स्वभाव को अपने पक्ष में बदलने की कोशिश की। वर्तमान में प्रचलित धर्मों में भगवान का विचार देवताओं की पुरानी अवधारणा का एक उत्थान है। उदाहरण के लिए, उसके मानववंशीय चरित्र को दिखाया गया है कि पुरुष प्रार्थनाओं में दिव्य होने के लिए अपील करते हैं और अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए अनुरोध करते हैं। “ ...

    “मुझे यह पसंद नहीं है कि मेरे बच्चों को ऐसा कुछ सिखाया जाना चाहिए जो सभी वैज्ञानिक सोचों के विपरीत है।
“(Einstein, his life and times पी. फ्रैंक, पृष्ठ 280)

अपने जीवन के आखिरी साल आइंस्टीन ने दार्शनिक एरिक गुटकिंड को लिखा-
“ईश्वर शब्द मेरे लिए मानव कमजोरियों की अभिव्यक्ति और उत्पाद से अधिक कुछ नहीं है । मेरे लिए धर्म बचकाने अंधविश्वासों की पुनर्रचना है। “
“मैं ऐसे ईश्वर की कल्पना नहीं कर सकता जो अपने प्राणियों को पुरस्कृत करता है और दंडित करता है। न तो मैं कल्पना करता हूं और न करूंगा कि कोई है जो मनंष्य को उसकी शारीरिक मृत्यु से बचाती है । डर या बेतुका अहंकार से कमजोर आत्माओं को इस तरह के विचारों की सराहना करने दें।
“(The World as I See It, 1949, फिलॉसॉफिकल लाइब्रेरी, न्यूयॉर्क)

“नैतिकता के बारे में दिव्य कुछ भी नहीं है, यह एक पूरी तरह से मानवीय क्रियाकलाप है।
“( The World as I See It, 1949, फिलॉसॉफिकल लाइब्रेरी, न्यूयॉर्क)

“मैं एक ऐसे ईश्वर की कल्पना नहीं कर सकता जो सीधे व्यक्तियों के कार्यों को प्रभावित करेगा, या सीधे अपने द्वारा सृजित प्राणियों के लिए निर्णयक की भूमिका निभाएगा। ...नैतिकता सर्वोच्च महत्व का है - लेकिन हमारे लिए, ईश्वर के लिए नहीं।
“(Einstein Archive5 अगस्त 1927 को कोलोराडो बैंकर से पत्र)

“मैं जीवन या मृत्यु का भय या अंधविश्वास के आधार पर ईश्वर की किसी भी अवधारणा को स्वीकार नहीं कर सकता। मैं आपको साबित नहीं कर सकता कि कोई विशिष्ट ईश्वर नहीं है, लेकिन अगर मैं उसके अस्तित्व पर बात करूँ तो मैं झूठा होउंगा।
“( Einstein, his life and times रोनाल्ड डब्ल्यू क्लार्क, वर्ल्ड पब द्वारा, कं, एनवाई, 1971, पृष्ठ 622)

न्यूयॉर्क के रब्बी हरबर्ट गोल्डस्टीन ने आइंस्टीन को यह पूछने के लिए कहाः   “क्या आप ईश्वर पर विश्वास करते हैं ?“
आइंस्टीन ने जो जवाब दिया, वह प्रसिद्ध है-

    “मैं स्पिनोज़ा के ईश्वर में विश्वास करता हूं जो अपने अस्तित्व की क्रमबद्ध सुव्यवस्था  में खुद को प्रकट करता है, न कि ईश्वर में जो मनुष्यों के भाग्य और कार्यों के साथ खुद को संलग्न करता है। “
( स्पिनोज़ा ने प्रकृति को ईश्वर कहा था।)

                                           
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उसके हृदय में पीर है सारे जहान की

नीरज - श्रद्धांजलि

 विनम्र श्रद्धांजलि
4 जनवरी, 1925 - 19 जुलाई, 2018


हिंदी के श्रेष्ठ कवियों के स्वर्णयुग का अंतिम सूरज अस्त हो गया ।

सर्वप्रिय गीतकार नीरज ने ग़ज़लें भी कहीं । उनके समय के हिंदी के बहुत से प्रतिष्ठित कवियों ने ग़ज़लें लिखीं । नीरज ने अपनी इस तरह की रचनाओं को ग़ज़ल न कहकर ‘गीतिका’ की संज्ञा दी यद्यपि वे उर्दू की परंपरागत शैली से भिन्न नहीं थीं। ग़ज़लों का उनका संग्रह भी ‘नीरज की गीतिकाएं’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ ।

वे जन-सरोकार के कवि थे । उनकी कुछ चुनी हुई ग़ज़लें प्रस्तुत हैं जिनमें समय के हस्ताक्षर की स्याही आज भी नहीं सूख पाई है, जैसे आज ही लिखी गई हों ।


1.
अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए
जिस में इंसान को इंसान बनाया जाए

जिस की ख़ुश्बू से महक जाए पड़ोसी का भी घर
फूल इस क़िस्म का हर सम्त खिलाया जाए

आग बहती है यहाँ गंगा में झेलम में भी
कोई बतलाए कहाँ जा के नहाया जाए

प्यार का ख़ून हुआ क्यूँ ये समझने के लिए
हर अँधेरे को उजाले में बुलाया जाए

मेरे दुख-दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूँ भूखा तो तुझ से भी न खाया जाए

जिस्म दो हो के भी दिल एक हों अपने ऐसे
मेरे आँसू तेरी पलकों से उठाया जाए

गीत उन्मन है ग़ज़ल चुप है रुबाई है दुखी
ऐसे माहौल में ’नीरज’ को बुलाया जाए
2.
ख़ुशबू-सी आ रही है इधर जाफ़रान की
खिड़की खुली हुई है उनके मकान की

हारे हुए परिंदे ज़रा उड़ के देख तो
आ जाएगी ज़मीन पे छत आसमान की

बुझ जाए शरे-शाम ही जैसे कोई चिराग़
कुछ यों है शुरुआत मेरी दास्तान की

ज्यों लूट ले कहार ही दुलहिन की पालकी
हालत यही है आजकल हिंदोस्तान की

औरों के घर की धूप उसे क्यों पसंद हो
बेची हो जिसने रोशनी अपने मकान की

ज़ुल्फ़ों के पेंचो-ख़म में उसे मत तलाशिए
ये शायरी ज़ुबां है किसी बेज़ुबान की

नीरज से बढ़ के और धनी कौन है यहां
उसके हृदय में पीर है सारे जहान की

3.
 

बदन पे जिस के शराफ़त का पैरहन देखा
वो आदमी भी यहाँ हम ने बद-चलन देखा

ख़रीदने को जिसे कम थी दौलत-ए-दुनिया
किसी कबीर की मुट्ठी में वो रतन देखा

मुझे मिला है वहाँ अपना ही बदन ज़ख़़््मी
कहीं जो तीर से घायल कोई हिरन देखा

बड़ा न छोटा कोई फ़र्क़ बस नज़र का है
सभी पे चलते समय एक सा कफ़न देखा

ज़बाँ है और बयाँ और उस का मतलब और
अजीब आज की दुनिया का व्याकरन देखा

लुटेरे डाकू भी अपने पे नाज़ करने लगे
उन्होंने आज जो संतों का आचरन देखा

जो सादगी है कुहन में हमारे ऐ ’नीरज’
किसी पे और भी क्या ऐसा बाँकपन देखा


4.
 

है बहुत अँधियार अब सूरज निकलना चाहिए
जिस तरह से भी हो ये मौसम बदलना चाहिए

रोज़ जो चेहरे बदलते हैं लिबासों की तरह
अब जनाज़ा ज़ोर से उन का निकलना चाहिए

अब भी कुछ लोगो ने बेची है न अपनी आत्मा
ये पतन का सिलसिला कुछ और चलना चाहिए

फूल बन कर जो जिया है वो यहाँ मसला गया
ज़ीस्त को फ़ौलाद के साँचे में ढलना चाहिए

छीनता हो जब तुम्हारा हक़ कोई उस वक़्त तो
आँख से आँसू नहीं शोला निकलना चाहिए

दिल जवाँ सपने जवाँ मौसम जवाँ शब भी जवाँ
तुझ को मुझ से इस समय सूने में मिलना चाहिए

 

5.
 

जितना कम सामान रहेगा
उतना सफ़र आसान रहेगा

जितनी भारी गठरी होगी
उतना तू हैरान रहेगा

उस से मिलना नामुम्किन है
जब तक ख़ुद का ध्यान रहेगा

हाथ मिलें और दिल न मिलें
ऐसे में नुक़सान रहेगा

जब तक मंदिर और मस्जिद हैं
मुश्किल में इंसान रहेगा

’नीरज’ तू कल यहाँ न होगा
उस का गीत विधान रहेगा



शिवसिंह सरोज


‘शिवसिंह सरोज’, एक पुस्तक का नाम है, जिसकी रचना आज से 143 वर्ष पूर्व जिला उन्नाव, ग्राम कांथा निवासी शिवसिंह सेंगर नाम के एक साहित्यानुरागी ने की थी । इस ग्रंथ में पंद्रहवीं शताब्दी से लेकर सन् 1875 ई. तक के 1003 हिंदी कवियों का संक्षिप्त आलोचनात्मक विवरण और उनकी कुछ रचनाएं सम्मिलित हैं । यह पुस्तक  परवर्ती हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने वालों के लिए सबसे महत्वपूर्ण स्रोत रहा है । डॉ. जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने अपनी अंग्रेज़ी किताब ‘द माडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान’, मिश्र बंधुओं ने ‘मिश्र बंधु विनोद’ और आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ लिखने में ‘शिवसिंह सरोज’ की सहायता ली थी ।

शिव सिंह सेंगर साहित्यकार तो नहीं थे, थोड़ी-बहुत काव्य-रचना कर लेते थे किंतु अध्ययनप्रेमी अवश्य थे । खा़स बात यह है कि वे पुलिस विभाग में इंस्पेक्टर थे । यह जानना बहुत रोचक है कि ऐसा व्यक्ति हिंदी काव्य के 400 वर्षों का विवरण आखिर कैसे लिख सका !  हिंदी, उर्दू के अतिरिक्त अरबी, फ़ारसी और संस्कृत की सामान्य जानकारी शिवसिंह को थी । इन्हें पुस्तकें इकट्ठा करने और पढ़ने में बहुत रुचि थी । घर में एक लघु पुस्तकालय ही बन गया था जिसमें हस्तलिखित ग्रंथ अधिक थे । उनके पुस्तक प्रेमी होने का प्रमाण इस प्रसंग में  निहित है-

सन् 1858 ई. में ज़िला रायबरेली के किसुनदासपुर गांव के एक विद्याप्रेमी पं. ठाकुर प्रसाद त्रिपाठी का जब देहांत हुआ तब उनके चार महामूर्ख पुत्रों ने उनके द्वारा संग्रहित पुस्तकों के 18-18 बस्ते बांट लिए और कौड़ियों के भाव बेच डाले । शिवसिंह ने भी इनसे 200 ग्रंथ खरीद कर अपने पुस्तकालय को और समृद्ध किया । इन पुस्तकों के अध्ययन से शिवसिंह में काव्य और कवियों के प्रति रुचि में और वृद्धि हुई ।

‘शिवसिंह सरोज’ क्यों लिखा गया, इसका उत्तर उन्होंने इस पुस्तक की भूमिका में दे दिया है-
 ‘‘मैंने सन् 1876 ई. में भाषा कवियों के जीवन चरित्र विषयक एक-दो ग्रंथ ऐसे देखे जिनमें ग्रंथकर्ता ने मतिराम इत्यादि ब्राह्मणों को लिखा था कि वे असनी के महापात्र भाट हैं । इसी तरह की बहुत सी बातें देख कर मुझसे चुप नहीं रहा गया । मैंने सोचा कि अब कोई ग्रंथ ऐसा बनाना चाहिए जिसमें प्राचीन और अर्वाचीन कवियों के जीवन चरित्र, सन्-संवत, जाति, निवास-स्थान आदि कविता के ग्रंथों समेत विस्तारपूर्वक लिखे हों । ’’

सन् 1877-78 में उन्होंने ग्रंथों का गहराई से अध्ययन प्रारंभ किया और एक वर्ष और 3 महीने में ‘शिवसिंह सरोज’ का लेखन पूर्ण कर लिया । मुंशी नवल किशोर प्रेस से 1878 में ही इस ग्रंथ का पहला संस्करण, 1887 में दूसरा संस्करण और 1926 में सातवां संस्करण प्रकाशित हुआ । आज से 143 वर्ष पहले शिव सिंह सेंगर ने ऐसे समय में यह महत्वपूर्ण कार्य संपन्न किया जब कोई बड़ी साहित्यिक संस्था नहीं थी जिसका सहयोग उन्हें मिल पाता, तत्कालीन ब्रिटिश शासन से अनुदान प्राप्त करना भी कठिन था ।

कुछ लोगों को यह भ्रम हो सकता है कि ‘शिवसिंह सरोज’ में हिंदी साहित्य के इतिहास का विवरण है । किंतु ऐसा नहीं है । यह एक काव्य संग्रह है । इस में 500 से अधिक पृष्ठ हैं । ग्रंथ के प्रारंभ में 12 पृष्ठों की भूमिका है । इस भूमिका में ग्रंथ लिखने का कारण, आधार ग्रंथों की सूची, संस्कृत साहित्य-शास्त्र और हिंदी भाषा काव्य का संक्षिप्त विवरण दिया गया है । उसके पश्चात 376 पृष्ठों में 839 कवियों की रचनाओं का संग्रह है । अंत में 125 पृष्ठों में 1003 कवियों के संक्षिप्त जीवन परिचय दिए गए हैं ।

शिवसिंह सेंगर ने कुछ छंदों की रचना की थी । कवियों के परिचय में उन्होंने अपना नाम इस तरह उल्लिखित किया है-
‘‘21. शिवसिंह सेंगर, कांथा, जिला उन्नाव के निवासी, संवत् 1878 में उ.।’’

आगे उन्होंने लिखा है- ‘‘अपना नाम इस ग्रंथ में लिखना बड़े संकोच की बात है । कारण यह कि हमें कविता का कुछ भी ज्ञान नहीं । इस हमारी ढिठाई को विद्वज्जन क्षमा करें । काव्य करने की शक्ति हममें नहीं है । काव्य इत्यादि सब प्रकार के ग्रंथों को इकट्ठा करने का बड़ा शौक है । हमने अरबी, संस्कृत, फ़ारसी आदि के सैकड़ों अद्भुत ग्रंथ जमा किए हैं और करने जा रहे हैं। इन विद्याओं का हमें थोड़ा अभ्यास भी है ।’’

इस अनूठे साहित्यसेवी का जन्म सन् 1833 ई. उत्तर प्रदेश के कांथा गांव में हुआ था जो लखनऊ  से लगभग 40 कि.मी. दक्षिण में है। इन के पिता रणजीत सिंह कांथा के ताल्लुकेदार थे । शिवसिंह का देहावसान 1879 ई. में मात्र 45 वर्ष की आयु में हुआ ।

शिवसिंह सेंगर की इस कहानी से यह बात प्रमाणित होती है कि एक सामान्य व्यक्ति भी अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति होते हुए एक कालजयी कार्य सम्पन्न कर  सकता है ।





पुस्तक के प्रथम संस्करण के मुखपृष्ठ का चित्र । शीर्षक के नीचे उर्दू में भी ‘शिवसिंह सरोज’ लिखा है । यह चित्र उस समय के पुस्तकों के मुखपृष्ठ की डिज़ाइन, भाषा  और वर्तनी का रोचक नमूना प्रदर्शित करता है ।

-महेन्द्र वर्मा

एक बस्तरिहा गीत और झपताल



परंपरागत जनजातीय गीतों की कुछ अपनी विशिष्टताएं होती हैं । पहली, इनमें 3, 4 या कहीं-कहीं 5 स्वरों का ही उपयोग होता है । आधुनिक संगीत में कुल 12 स्वर होते हैं । कर्नाटक संगीत में 22 स्वर या श्रुतियां होती हैं । लेकिन जनजातीय गीत-संगीत में और कुछ मैदानी लोक गीतों में भी केवल 3 से 5 स्वर ही प्रयुक्त होते हैं ।

उदाहरण के लिए छत्तीसगढ के सुवा गीत के एक मौलिक रूप में 4 स्वरों का ही प्रयोग होता है । यहां उस सुवा गीत का जिक्र हो रहा है जिसे गांवों में महिलाएं ताली बजाती हुई गाती हैं, किसी वाद्य-यंत्र का सहारा नहीं लिया जाता । पंथी गीत और एक बिहाव गीत में 4 स्वरों का  तो जस गीत में 5 स्वरों का प्रयोग होता है । पंथी गीत के मुखड़े में केवल दो स्वरों की ही आवश्यकता होती है ।

दूसरी विशेषता, इन गीतों में अंतरा के लिए अलग धुन नहीं होती । स्थायी की धुन में ही सभी अंतरे गाए जाते हैं ।

तीसरी विशेषता, इन गीतों के कुछ बहुत पुराने और मौलिक रूपों में किसी वाद्य-यंत्र का उपयोग नहीं होता । जैसे, सुवा गीत और बिहाव गीत में । खेतों में काम करते हुए गाए जाने वाले ददरिया गीतों में भी वाद्य-यंत्र की आवश्यकता नहीं होती । लेकिन उनमें ताल स्वाभाविक रूप से मौजूद होता है ।

इन विशेषताओं से कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं । एक तो ये कि मनुष्य ने गीत-संगीत की शुरुआत इसके सरलतम रूप से की अर्थात 2-3 स्वर वाले गीतों से । दूसरा ये कि ताल वाद्यों और अन्य सहायक वाद्य-यंत्रों का प्रयोग संगीत के विकास क्रम में बहुत बाद में शुरू हुआ । आज भी चीन, जापान, तिब्बत और कुछ अफ्रीकी देशों में 5 स्वर वाले गीत-संगीत ही वहां के मुख्य संगीत-रूप हैं ।

बात शुरू हुई थी जनजातीय गीतों से । बस्तर के कांंडागांव जिले के बड़गैंया गांव के जनजातीय कलाकारों द्वारा गाया गया ये पारंपरिक गोंडी गीत पहले सुन लेते हैं -

अब इस गीत की विशेषताएं-

इस समूह गीत में केवल 3 स्वरों का प्रयोग हुआ है । आधार स्वर सा के अतिरिक्त शुद्ध गंधार और मंद्र सप्तक के पंचम का । गीत की पंक्ति ‘ग’ स्वर से आरंभ होती है लेकिन इस स्वर को केवल छूकर ‘सा’ तक मीड़ जैसे रूप में वापस आती है और फिर एक निश्चित लय में सा से ग तथा ग से सा के बीच मानो झूलती रहती है ।  मंद्र सप्तक के ‘प’ में पंक्ति के गायन का केवल अंतिम छोर ही पहुंचता है ।

प, सा और ग की यह स्वर-संगति बहुत ही कर्णप्रिय है । यह गीत मन में अनाम-सा कोमल भाव भी जगाता है। संगीत-शास्त्रों में कहा गया है कि 5 स्वर से कम का कोई राग संभव नहीं है। भले ही यह गीत इस परिभाषा के अनुसार राग के दायरे में न हो किंतु मन में ‘राग’ उत्पन्न करने में तो सक्षम है ही ।

गीत में ताल वाद्य का प्रयोग हुआ है । सुनने से प्रतीत होता है कि जो ताल प्रयुक्त हुआ है वह केवल 2 मात्रा का है । लेकिन लय के अनुसार पंक्ति की एक आवृत्ति में मात्राओं को गिनने से पता चलता है कि कुल 10 मात्राएं हैं ।इस गीत में झपताल नहीं बजा है, 2-2 मात्रा की 5 आवृत्ति से यह गीत के लय के अनुकूल हो जाता है । किंतु गीत का प्रवाह झपताल के अनुरूप है । क्योंकि एक आवृत्ति में पंक्ति में जो बलाघात हैं वे पहली, तीसरीं, छठवीं और आठवीं मात्राओं में हैं । स्पष्ट है, ये झपताल है- धी ना, धी धी ना, ती ना, धी धी ना ।

कहने की आवश्यकता नहीं कि संगीत के शास्त्र के अंकुर लोकराग के बीज से ही प्रस्फुटित हुए हैं ।

तो, यह तय है कि संगीत का उद्गम जानने के लिए हमें जनजातीय संगीत-सागर में डूबना-उतराना होगा ।



-महेन्द्र वर्मा

तीन मणिकाएं




1.

तुम्हारा झूठ
उसके लिए
सच है
मेरा सच
किसी और के लिए
झूठ है
ऐसा तो होना ही था
क्योंकि
सच और झूठ को
तौलने वाला तराजू
अलग-अलग है
हम सबका  !

2.

जो नासमझ है
उसे समझाने से
क्या फ़ायदा
और
जो समझदार है
उसे
समझाने की क्या ज़रूरत 

क्या इसका
ये अर्थ निकाला जाए
कि

जो समझदार
किसी नासमझ को

समझाने की कोशिश करते हैं
वे नासमझ हैं !!

3.

मैं
तुम्हारे लिए
कुछ और हूं
किसी और के लिए
कुछ और
यानी
दूसरों की
अलग-अलग  नज़रों में
मैं अलग-अलग ‘मैं’ हूं
बस
मैं सिर्फ़ वह नहीं हूं
‘जो मैं हूं’ !!!

                                                         

                                                                          -महेन्द्र वर्मा

विमोचन



छ.ग. प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन, ज़िला इकाई, बेमेतरा के तत्वावधान में मेरा काव्य संग्रह ‘श्वासों का अनुप्रास’ का विमोचन देश के सुपरिचित व्यंग्यकार, कवि और पत्रकार श्री गिरीश पंकज और प्रसिद्ध भाषाविद्, गीतकार और संगीतज्ञ डॉ. चित्तरंजन कर के करकमलों से दिनांक 11 मार्च, 2018 को बेमेतरा में संपन्न हुआ । इस काव्य संग्रह में ‘‘शाश्वत शिल्प’’ में प्रकाशित पद्य रचनाएं सम्मिलित हैं जिसे अभिव्यक्ति प्रकाशन, दिल्ली ने प्रकाशित किया है ।

कार्यक्रम में दुर्ग के छंदकार श्री अरुण निगम, छ.ग. राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग के सचिव, साहित्यकार श्री बलदाउ राम साहू, खैरागढ़ के वरिष्ठ गीतकार डॉ. जीवन यदु ‘राही’, गंडई के साहित्यकार डॉ. पीसी लाल यादव, लोक कवि और गायक श्री सीताराम साहू ‘श्याम’, रायपुर के श्री रामशरण सिंह, सेवानिवृत्त उपायुक्त, अ.जा. एवं अ.ज.जा. कल्याण विभाग, छ.ग. विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित थे । सभी अतिथियों ने विमोचित कृति पर अपने विचार व्यक्त किए ।

कार्यक्रम के द्वितीय सत्र में डॉ. चित्तरंजन कर ने ‘‘श्वासों का अनुप्रास’’ के कुछ गीतों और ग़ज़लों का सुमधुर गायन प्रस्तुत किया ।


आयोजन की कुछ छवियां प्रस्तुत हैं-













होली का दस्तूर




 देहरी पर आहट हुई, फागुन पूछे कौन
मैं बसंत तेरा सखा, तू क्यों अब तक मौन।

निरखत बासंती छटा, फागुन हुआ निहाल
इतराता सा वह चला, लेकर रंग गुलाल।

कलियों के संकोच से, फागुन हुआ अधीर
वन-उपवन के भाल पर, मलता गया अबीर।

फागुन आता देखकर, उपवन हुआ निहाल,
अपने तन पर लेपता, केसर और गुलाल।


तन हो गया पलाश-सा, मन महुए का फूल,
फिर फगवा की धूम है, फिर रंगों की धूल। 


ढोल मंजीरे बज रहे, उड़े अबीर गुलाल,
रंगों ने ऊधम किया, बहकी सबकी चाल।


कोयल कूके कान्हड़ा, भँवरे भैरव राग,
गली-गली में गूँजता, एक ताल में फाग।
 

रंगों की बारिश हुई, आँधी चली गुलाल,
मन भर होली खेलिए, मन न रहे मलाल।


उजली-उजली रात में, किसने गाया फाग,
चाँद छुपाता फिर रहा, अपने तन के दाग। 
 

टेसू पर उसने किया, बंकिम दृष्टि निपात
लाल लाज से हो गया, वसन हीन था गात।

अमराई की छांव में, फागुन छेड़े गीत
बेचारे बौरा गए, गात हो गए पीत।

फागुन और बसंत मिल, करे हास-परिहास
उनको हंसता देखकर, पतझर हुआ उदास।

पूनम फागुन से मिली, बोली नेह लुटाय
 और माह फीके लगे, तेरा रंग सुहाय।

नेह-आस-विश्वास से, हुए कलुष सब दूर,
भीगे तन-मन-आत्मा, होली का दस्तूर। 


आतंकी फागुन हुआ, मौसम था मुस्तैद
आनन-फानन दे दिया, एक वर्ष की क़ैद।

शुभकामनाएं
 

- महेन्द्र वर्मा




फूल हों ख़ुशबू रहे












दर रहे या ना रहे छाजन रहे,
फूल हों ख़ुशबू रहे आँगन रहे ।

फ़िक्र ग़म की क्यों, ख़ुशी से यूँ अगर,
आँसुओं से भीगता दामन रहे ।

झाँक लो भीतर कहीं ऐसा न हो,
आप ही ख़ुद आप का दुश्मन रहे ।

ज़िंदगी में लुत्फ़ आता है तभी,
जब ज़रा-सी बेवजह उलझन रहे ।

कल सुबह सूरज उगे तो ये दिखे,।
बीज मिट्टी और कुछ सावन रहे ।

                                                      -महेन्द्र वर्मा

ग्रेगोरियन कैलेण्डर

                                                                                                                              
 तिथि, माह और वर्ष की गणना के लिए ईस्वी सन् वाले कैलेण्डर का प्रयोग आज पूरे विश्व में हो रहा है। यह कैलेण्डर आज से 2700 वर्श पूर्व प्रचलित रोमन कैलेण्डर का ही क्रमषः संषोधित रूप है। 46 ई. पूर्व में इसका नाम जूलियन कैलेण्डर हुआ और 1752 ई. से इसे ग्रेगोरियन कैलेण्डर कहा जाने लगा। आज यह कैलेण्डर इसी नाम से प्रसिद्ध है । रोमन कैलेण्डर का ग्रेगोरियन कैलेण्डर में परिवर्तित होने तक की कहानी बहुत रोचक है ।
रोमन कैलेण्डर की शुरुआत रोम नगर की स्थापना करने वाले पौराणिक राजा रोम्युलस के पंचांग से होती है। वर्ष की गणना रोम नगर की स्थापना वर्ष 753 ई. पूर्व से की जाती थी। इसे संक्षेप में ए.यू.सी. अर्थात एन्नो अरबिस कांडिटाइ कहा जाता था, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘शहर की स्थापना के वर्ष से‘ हैं।

रोम्युलस के इस कैलेण्डर में वर्ष में दस महीने होते थे। इन महीनों में प्रथम चार का नाम रोमन देवताओं पर आधारित था, शेष छह महीनों के नाम क्रम संख्यांक पर आधारित थे। दस महीनों के नाम क्रमशः इस प्रकार थे- मार्टियुस, एप्रिलिस, मेयुस, जूनियुस, क्विंटिलिस, सेक्स्टिलिस, सेप्टेम्बर, आक्टोबर, नोवेम्बर और डिसेम्बर। मार्टियुस जिसे अब मार्च कहा जाता है, वर्ष का पहला महीना था। शेष छह महीनों के नामों का अर्थ क्रमशः पांचवां, छठवां, सातवां, आठवां, नवां और दसवां था । नए वर्ष का आरंभ मार्टियुस अर्थात मार्च की 25 तारीख को होता था क्योंकि इसी दिन रोम के न्यायाधीश शपथ ग्रहण करते थे। इस कैलेण्डर में तब जनवरी और फरवरी माह नहीं थे।

लगभग 700 ई. पूर्व (रोमन संवत् के अनुसार 53 ए.यू.सी.) रोम के द्वितीय नरेश न्यूमा पाम्पलियस ने 10 महीने वाले कैलेण्डर को 12 महीने वाले कैलेण्डर में परिवर्तित कर दिया । कैलेण्डर में दो नए महीने - जेन्युअरी और फेब्रुअरी - क्रमशः ग्यारहवें और बारहवें महीने के रूप में जोड गए। रोमन देवता जेनुअस के नाम पर जेन्युअरी महीने का नाम रखा गया । फेब्रुअरी  लेटिन शब्द फेब्रुअम से बना है जिसका अर्थ है-शुद्धिकरण । प्राचीन रोम में ‘शुद्धिकरण’ एक त्योहार था जिसे वर्ष की अंतिम पूर्णिमा को मनाया जाता था । यह कैलेण्डर 355 दिनों के चांद्र वर्ष अर्थात 12 पूर्णिमाओं पर आधारित था इसलिए इसमें दो नए महीने जोड़े गए। इसमें 7 महीने 29 दिनों के, 4 महीने 31 दिनों के और फेब्रुअरी महीना 28 दिनों का होता था।  इस कैलेण्डर का उपयोग रोमवासी 45 ई. पूर्व तक करते रहे।

सन् 46 ई. पूर्व में रोमन सम्राट जूलियस सीज़र ने अनुभव किया कि त्योहार और मौसम में अंतर आने लगा है। इसका कारण यह था कि प्रचलित कैलेण्डर चांद्रवर्ष पर आधारित था जबकि ऋतुएं सौर वर्ष पर आधारित होती हैं। जूलियस सीज़र ने अपने ज्योतिषी सोसिजेनस की सलाह पर 355 दिन के वर्ष में 10 दिन और जोड़कर वर्ष की अवधि 365 दिन 6 घंटे निर्धारित किया। वर्ष की अवधि में जो छह घंटे अतिरिक्त थे वे चार वर्षों में कुल 24 घंटे अर्थात एक दिन के बराबर हो जाते थे। अतः सीज़र ने प्रत्येक चौथे वर्ष का मान 366 दिन रखे जाने का नियम बनाया और इसे लीप ईयर का नाम दिया। लीप ईयर के इस एक अतिरिक्त दिन को अंतिम महीने अर्थात फेब्रुअरी में जोड़ दिया जाता था। जूलियस सीज़र ने क्विंटिलिस नामक पांचवे माह का नाम बदलकर जुलाई कर दिया क्योंकि उसका जन्म इसी माह में हुआ था।

जूलियस सीज़र द्वारा संशोधित रोमन कैलेण्डर का नाम 46 ई. पूर्व से जूलियन कैलेण्डर हो गया। इसके 2 वर्ष पश्चात सीज़र की हत्या कर दी गई। आगस्टस रोम का नया सम्राट बना। आगस्टस ने सेक्स्टिलिस महीने में ही युद्धों में सबसे अधिक विजय प्राप्त की थी इसलिए उसने इस महीने का नाम बदलकर अपने नाम पर आगस्ट कर दिया।

जूलियन कैलेण्डर अब प्रचलन में आ चुका था। किंतु कैलेण्डर बनाने वाले पुरोहित लीप ईयर संबंधी व्यवस्था को ठीक से समझ नहीं सके । चौथा वर्ष गिनते समय वे दोनों लीप ईयर को शामिल कर लेते थे। फलस्वरूप प्रत्येक तीन वर्ष में फेब्रुअरी माह में एक अतिरिक्त दिन जोड़ा जाने लगा। इस गड़बड़ी का पता 50 साल बाद लगा और तब कैलेण्डर को पुनः संशोधित किया गया। तब तक ईसा मसीह का जन्म हो चुका था किंतु ईस्वी सन् की शुरुआत नहीं हुई थी। जूलियन कैलेण्डर के साथ रोमन संवत ए.यू.सी. का ही प्रयोग होता था। ईस्वी सन् की शुरुआत ईसा के जन्म के 532 वर्ष बाद सीथिया के शासक डाइनीसियस एक्लिगुस ने की थी। ईसाई समुदाय में ईस्वी सन् के साथ जूलियन कैलेण्डर का प्रयोग रोमन शासक शार्लोमान की मृत्यु के दो वर्ष पश्चात सन् 816 ईस्वी से ही हो सका।

जूलियन कैलेण्डर रोमन साम्राज्य में 1500 वर्षों तक अच्छे ढंग से चलता रहा। अपने पूर्ववर्ती कैलेण्डरों से यह अधिक सही था फिर भी पूरी तरह से शुद्ध नहीं था । गणितज्ञ जब सूक्ष्म गणना करने लगे तो उन्होंने पाया कि जूलियन कैलेण्डर का वर्षमान सौर वर्ष से 0.0078 दिन या लगभग 11 मिनट अधिक था। बाद के 1500 वर्षों में यह अधिकता बढ़कर पूरे 10 दिनों की हो चुकी थी।

1582 ई. में रोम के पोप ग्रेगोरी तेरहवें ने कैलेण्डर के इस अंतर को पहचाना और इसे सुधारने का निश्चय किया। उसने 4 अक्टूबर 1582 ई. को यह व्यवस्था की कि दस अतिरिक्त दिनों को छोड़कर अगले दिन 5 अक्टूबर की बजाय 15 अक्टूबर की तारीख होगी, अर्थात 5 अक्टूबर से 14 अक्टूबर तक की तिथि कैलेण्डर से विलोपित कर दी गई। भविष्य में कैलेण्डर वर्ष और सौर वर्ष में अंतर न हो, इसके लिए ग्रेगोरी ने यह नियम बनाया कि प्रत्येक 400 वर्षों में एक बार लीप वर्ष में एक अतिरिक्त दिन न जोड़ा जाए। सुविधा के लिए यह निर्धारित किया गया कि शताब्दी वर्ष यदि 400 से विभाज्य है तभी वह लीप ईयर माना जाएगा। इसीलिए सन् 1600 और 2000 लीप ईयर थे किंतु सन् 1700, 1800 और 1900 लीप ईयर नहीं थे, भले ही ये 4 से विभाज्य हैं।

ग्रेगोरी ने जूलियन कैलेण्डर में एक और महत्वपूर्ण संशोधन यह किया कि नए वर्ष का आरंभ 25 मार्च की बजाय 1 जनवरी से कर दिया। इस तरह जनवरी माह जो जूलियन कैलेण्डर में 11वां महीना था, पहला महीना और फरवरी दूसरा महीना बन गया। शेष महीनों का क्रम वही रहा किंतु क्रमांक बदल गए । संख्यासूचक महीने सेप्टेम्बर, अक्टोबर, नोवेम्बर और डिसेम्बर क्रमशः सातवें, आठवें, नवें और दसवें के स्थान पर अब क्रमशः नवें, दसवें, ग्यारहवें और बारहवें महीने बन गए । ग्रेगोरी ने महीनों के दिनों की संख्या को भी नए रूप में निर्धारित किया ।

ग्रेगोरी के द्वारा किए गए इन संशोधनों के पश्चात जूलियन कैलेण्डर को ग्रेगोरियन कैलेण्डर कहा जाने लगा । उक्त व्यापक परिवर्तनों के कारण 16 वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में तिथि को लेकर प्रायः भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाती थी । इस भ्रम को दूर करने के लिए 4 अक्टूबर, 1582  की किसी तारीख को लिखने के लिए ओ.एस. यानी ओल्ड स्टाइल और उसके बाद की तारीख के साथ एन.एस. यानी न्यू स्टाइल लिखा जाता था । आज भी किताबों में 4 अक्टूबर, 1582 के पहले की तिथियां जूलियन कैलेण्डर के अनुसार और उसके बाद की तिथियां ग्रेगोरियन कैलेण्डर के अनुसार लिखी होती हैं ।

सन् 1582 में पोप ग्रेगरी द्वारा संशोधित कैलेण्डर को रोमन कैथोलिक देशों ने तुरंत अपना लिया था किंतु प्रोटेस्टेंट, ग्रीक कैथोलिक, सात्यवादी तथा पूर्वी देशों ने इसे तुरंत लागू नहीं किया। इटली, डेनमार्क और हालैंड ने ग्रेगोरियन कैलेण्डर को उसी वर्ष अपना लिया। लेकिन शेष देशों ने बहुत बाद में, अलग-अलग वर्षों में स्वीकार किया ।

ग्रेट ब्रिटेन ने ग्रेगोरियन कैण्डर को उसके प्रवर्तन के 170 वर्षों के पश्चात अर्थात सन् 1752 में अपनाया । लेकिन तब तक ब्रिटेन में प्रचलित जूलियन कैलेण्डर 10 की बजाय 11 दिन आगे बढ़ चुका था । इसलिए जब ग्रेट ब्रिटेन ने 2 सितंबर, 1752 को इसे अपनाया तो कैलेण्डर में पूरे 11 दिन कम करने पड़े । जूलियन कैलेण्डर के अनुसार 2 सितंबर 1752 की तिथि के पश्चात अगले दिन की तारीख ग्रेगोरियन कैलेण्डर के अनुसार 14 सितंबर घोषित की गई । इस के लिए ब्रिटेन को संसद में बाकायदा ‘न्यू स्टाइल कैलेण्डर एक्ट’ नामक विधेयक पारित करना पड़ा । जनता पर इस का व्यापक असा पड़ा । ब्रिटेन के इस कदम पर उस समय दंगे भी हुए । लोगों के मन में इस बात को लेकर विरोध और आक्रोश था कि सरकार ने उनके जीवन के 11 दिन छीन लिए । वे सड़कों पर नारे लगाते थे- ‘‘हमारे 11 दिन हमें वापस करो ।’’ बहरहाल ब्रिटेन के सभी उपनिवेशों में भी नया कैलेण्डर 1752 में लागू हो गया था ।

जर्मनी और स्विटज़रलैंड ने 1759 ई. में, आयरलैंड ने 1839 ई. में और थाईलैंड ने सबसे बाद में, सन् 1941 में इस नए कैलेण्डर को अपने देश में लागू किया। तत्कालीन रूसी सरकार ने सन् 1917 में ग्रेगोरियन कैलेण्डर को जब अपने देश में लागू किया तो उसे 14 दिन कम करने पड़े । रूस की 1917 की बोल्शिविक क्रांति को महान अक्टूबर क्रांति कहा जाता है, वास्तव में यह क्रांति ग्रेगोरियन कैलेण्डर के अनुसार 7 नवंबर को हुई थी ।
कैलेण्डर की यह रोचक कहानी अधूरी ही रहेगी यदि हम इस बात की चर्चा न करें कि टैक्स निर्धारण के लिए वर्ष की गणना 1 अप्रेल से क्यों की जाती है, 1 जनवरी से क्यों नहीं ।

मध्ययुग में यूरोप के अधिकांश  देशों में वर्ष का आरंभ 25 मार्च को होता था इसलिए अन्य देशों की तरह ब्रिटेन में भी टैक्स की गणना 25 मार्च से की जाती थी । एंग्लो सैक्सन इंग्लैंड में क्रिसमस के दिन को नए वर्ष का प्रारंभ माना जाता था । वहां के राजा विलियम प्रथम ने जूलियन कैलेण्डर का अनुसरण करते हुए वर्ष का प्रारंभ 1 जनवरी से कर दिया था लेकिन टैक्स की गणना 25 मार्च से होती रही । ग्रेगोरी के कैलेण्डर को सन्1752 में ब्रिटेन ने अपनाया तो 25 मार्च की तिथि को 11 दिन बढ़ा कर 5 अप्रेल करना पड़ा । तब से करों की गणना 5 अप्रेल से होने लगी ।

सन्1800 ई. में एक भूल यह हुई कि इस वर्ष को लीप ईयर मानकर फरवरी 29 दिन का कर दिया गया था । इस भूल को सुधारने के लिए 1 दिन कैलेण्डर में से फिर निकालना पड़ा । फलस्वरूप 5 अप्रेल की तिथि 6 अप्रेल हो गई । ब्रिटेन में अभी भी करों की गणना 6 अप्रेल से की जाती है किंतु अधिकांश देशों ने 6 अप्रेल के स्थान पर निकटतम और सुविधाजनक तिथि 1 अप्रेल को चुना । यही कारण है कि हमारे देश में भी करों की गणना 1 अप्रेल से की जाती है और इसीलिए वित्तीय वर्ष भी 1 अप्रेल से 31 मार्च तक माना जाता है ।

ग्रेगोरियन कैलेण्डर का उपयोग आज अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होता है किंतु यह अभी भी पूर्ण रूप से त्रुटिहीन नहीं है । गणितज्ञों के अनुसार ग्रेगोरियन कैलेण्डर के औसत वर्षमान और सौर वर्षमान में 27 सेकंड का अंतर है । यह अंतर 3236 वर्षों में 1 दिन का और 32360 वर्षों में 10 दिनों का हो जाएगा । इस प्रकार हज़ारों वर्षों बाद ऋतुओं और महीनों का क्रम असंगत होने लगेगा । कम्प्यूटर विशेषज्ञों ने ग्रेगोरियन कैलेण्डर सहित विश्व के किसी भी कैलेण्डर पद्धति को अनुपयुक्त माना है । उन्होंने काल गणना के लिए अपना एक अलग मानक ‘रेटा डाइ’ का प्रयोग प्रारंभ कर दिया है ।


   -महेन्द्र वर्मा

पूजा से पावन





                 जाने -पहचाने  बरसों के  फिर  भी   वे अनजान लगे,
                 महफ़िल सजी हुई है लेकिन सहरा सा सुनसान लगे ।

                इक दिन मैंने अपने ‘मैं’ को अलग कर दिया था ख़ुद से,
                अब जीवन  की  हर  कठिनाई  जाने क्यों आसान लगे ।

                 चेहरे  उनके  भावशून्य  हैं  आखों  में  भी  नमी  नहीं,
                 वे  मिट्टी  के  पुतले  निकले  पहले  जो  इन्सान  लगे ।

                 उजली-धुँधली यादों की जब चहल-पहल सी रहती है,
                 तब  मन  के  आँगन का कोई कोना क्यों वीरान लगे ।

                  होते  होंगे  और कि जिनको भाती है आरती अज़ान,
                  हमको  तो  पूजा  से  पावन बच्चों की मुस्कान लगे ।

                                                                                                                            -महेन्द्र वर्मा

तितलियों का ज़िक्र हो





प्यार का, अहसास का, ख़ामोशियों का ज़िक्र हो,
महफ़िलों में अब ज़रा तन्हाइयों का ज़िक्र हो।


मीर, ग़ालिब की ग़ज़ल या, जिगर के कुछ शे‘र हों,
जो कबीरा ने कही, उन साखियों का ज़िक्र हो।


रास्ते तो और भी हैं, वक़्त भी, उम्मीद भी,
क्या ज़रूरत है भला, मायूसियों का ज़िक्र हो।


फिर बहारें आ रही हैं, चाहिए अब हर तरफ़,
मौसमों का गुलशनों का, तितलियों का ज़िक्र हो।


गंध मिट्टी की नहीं ,महसूस होती सड़क पर,
चंद लम्हे गाँव की, पगडंडियों का ज़िक्र हो।


इस शहर की हर गली में, ढेर हैं बारूद के,
बुझा देना ग़र कहीं, चिन्गारियों का ज़िक्र हो।


दोष सूरज का नहीं है, ज़िक्र उसका न करो,
धूप से लड़ती हुई परछाइयों का ज़िक्र हो।

                                                                            -महेन्द्र वर्मा                                            

ऊबते देखे गए



भीड़ में अस्तित्व अपना खोजते देखे गए,
मौन थे जो आज तक वे चीखते देखे गए।

आधुनिकता के नशे में रात दिन जो चूर थे,
ऊब कर फिर ज़िंदगी से भागते देखे गए।

हाथ में खंजर लिए कुछ लोग आए शहर में,
सुना हे मेरा ठिकाना पूछते देखे गए।

रूठने का सिलसिला कुछ इस तरह आगे बढ़ा,
लोग जो आए मनाने रूठते देखे गए।

लोग उठ कर चल दिए उसने सुनाई जब व्यथा,
और जो बैठे रहे वे ऊबते देखे गए।

बेशऊरी इस कदर बढ़ती गई उनकी कि वे,
काँच के शक में नगीने फेंकते देखे गए।

कह रहे थे जो कि हम हैं नेकनीयत रहनुमा,
काफिले को राह में ही लूटते देखे गए।

                                                                           
                                                                       



 -महेन्द्र वर्मा

तबला वादन में ख्यातिलब्ध महिलाएँ






             हिंदुस्तानी संगीत में तालवाद्यों में तबला सबसे अधिक प्रतिष्ठित वाद्ययंत्र है । शास्त्रीय संगीत हो या सुगम, गायन-वादन हो या नृत्य, एकल वादन हो या संगत, लोकगीत हो या सिनेगीत, सभी में तबले की श्रेष्ठ भूमिका सदैव रही है । सदियों से इस तालवाद्य पर पुरुषों का एकाधिकार रहा है । यह माना जाता था कि तबला वादन एक कठिन कला है ,इसमें अन्य वाद्यों की तुलना में अधिक शारीरिक और मानसिक परिश्रम की आवश्यकता होती है इसलिए इसे महिलाएँ नहीं बजा सकतीं।

              किंतु यह मान्यता अब टूट चुकी है । देश और विदेश की अनेक महिलाएँ आज शास्त्रीय तबला वादन के क्षेत्र में पर्याप्त प्रतिष्ठा और ख्याति अर्जित कर रही हैं, एकल वादन और संगतकार, दोनों रूपों में ।
आइए, जानें कुछ प्रसिद्ध महिला तबला वादकों का संक्षिप्त परिचय -


डॉ. अबन मिस्त्री
डॉ. अबन मिस्त्री

आज से लगभग 5 दशक पूर्व स्व. डॉ. अबन ई. मिस्त्री (1940-2012 ) को मंच पर    एकल तबला वादन करते हुए देख कर लोग आश्चर्यचकित हुए थे । इन्हें प्रथम महिला तबला वादक होने का गौरव प्राप्त हुआ । तबला विषय पर पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त करने और अपने तबला वादन का एलबम जारी करने वाली ये पहली महिला कलाकार थीं । ये अन्य महिला कलाकारों के लिए प्रेरणास्रोत भी बनीं ।







अनुराधा पाल

डॉ. मिस्त्री के पश्चात तबला वादन के क्षेत्र में जिन्होंने विश्व में प्रसिद्धि प्राप्त की, वे हैं पं. अनुराधा पाल ( जन्म 1975, निवास मुंबई ) जिन्हें ‘तबला क्वीन’ और ‘लेडी ज़ाकिर हुसैन’ भी कहा जाता है । इन्होंने उस्ताद अल्लारक्खा ख़ाँ और उस्ताद ज़ाकिर हुसैन से तबले की शिक्षा ग्रहण की थी । अनेक पुरस्कारों से सम्मानित पं. अनुराधा पाल ‘स्त्री शक्ति’ और ‘रिचार्ज’ नामक संगीत मंडली संचालित करती हैं । देश और विदेश के अनेक बड़े आयोजनों में ये प्रसिद्ध संगीतविदों के साथ तबला संगत करने के अलावा एकल वादन और अपनी संगीत मंडली के कार्यक्रमों की प्रस्तुति करती रही हैं ।





रिम्पा सिवा 

‘प्रिंसेस ऑफ तबला’ के नाम से चर्चित डॉ. रिम्पा सिवा ( जन्म 1986 ) निवास कोलकाता तबला वादन के नए आयाम गढ़ रही हैं । 14 वर्ष की आयु में पं. हरिप्रसाद चौरसिया जी के साथ तबला संगत करने वाली ये युवा कलाकार देश-विदेश में एक हज़ार से अधिक कार्यक्रम   प्रस्तुत कर चुकी हैं । अपने पिता और गुरु प्रो. स्वपन सिवा से 3 वर्ष की आयु से ही तबला सीखने वाली रिम्पा सिवा का तबला वादन सुनकर आश्चर्य होता है कि क्या तबला ऐसा भी बज सकता है !





सावनी तलवलकर

प्रसिद्ध तबला वादक तालयोगी पं. सुरेश तलवलकर और विदुषी पद्मा तलवलकर की सुपुत्री सावनी तलवलकर नई पीढ़ी की   तबला वादक हैं । इनके पिताजी ही इनके तबला गुरु भी हैं । उनके एकल वादन कार्यक्रमों में सावनी तबले पर जुगलबंदी करती रही हैं । कौशिकी चक्रवर्ती की संगीत मंडली ‘सखी’ में सावनी तबले पर संगत करती हुई देश-विदेश में ख्याति अर्जित कर रही हैं ।
        




सुनयना घोष

1979 में कोलकाता में जन्मीं सुनयना घोष प्रसिद्ध तबला वादक पं. शंकर घोष की शिष्या हैं । रवींद्र भारती विश्वविद्यालय, कोलकाता की प्रत्येक डिग्री परीक्षा में सुनयना घोष ने स्वर्ण पदक प्राप्त किया । भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद द्धारा यूरोप और अमेरिका में कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाली संगीत मंडली में 10 युवा कलाकारों का चयन किया गया था जिसमें सुनयना घोष भी सम्मिलित थीं ।



  रेशमा पंडित 

रायपुर, छ.ग. के जाने-माने तबला वादक पं. संपत लाल की पोती 26 वर्षीया रेशमा पंडित ने 10 वर्ष की उम्र से ही अपने पिता कुमार पंडित से तबला सीखना प्रारंभ किया । रेशमा अब तक 300 से अधिक कार्यक्रम प्रस्तुत कर चुकी हैं । इनके एकल वादन में बोलों की सुस्पष्ट और सुंदर प्रस्तुति चमत्कृत करती है ।



               इनके अतिरिक्त पायल कोटगीरकर,नजीमाबाद, अश्विनी वाघचौरे, पुणे, विजेता हेगड़े, होन्नावर कर्नाटक, संजीवनी हसब्नीस, पुणे, मिठू टिकदर, प. बंगाल आदि भी तबलावादन के क्षेत्र में कला-साधना कर रही हैं ।

                विदेश में भारतीय मूल की और अन्य देशों की महिला कलाकार भी तबलावादन में ख्याति अर्जित कर रही हैं । उनमें से कुछ के केवल नाम और चित्र से परिचय प्रस्तुत है -



सुफला पाटनकर
यू.एस.ए.
हिना पटेल
कनाडा
सेजल कुकाडिया
यू.एस.ए.










                                                                               

                                                      

अयाको इकेदा
जापान

समीरा वारिस
पाकिस्तान
अन्ना सोबेल
यू.एस.ए.
संस्कृति श्रेष्ठ
नेपाल


                              








                                        


                             














जिन वान
द. कारिया



 ( तथ्य एवं चित्र विभिन्न वेबसाइट से संकलित )

जो भी होगा अच्छा होगा



जो  भी   होगा  अच्छा   होगा,
फिर क्यूँ सोचें कल क्या होगा ।

भले  राह  में  धूप  तपेगी,
मंज़िल पर तो साया होगा ।

दिन को ठोकर खाने वाले,
तेरा  सूरज  काला  होगा ।

पाँव  सफ़र  मंज़िल सब ही हैं,
क़दम-दर-क़दम चलना होगा ।

कभी बात ख़ुद से भी कर ले,
तेरे   घर   आईना   होगा ।
 

-महेन्द्र वर्मा

अनुभव का उपहार


समर भूमि संसार है, विजयी होते वीर,
मारे जाते हैं सदा, निर्बल-कायर-भीर।


मुँह पर ढकना दीजिए, वक्ता होए शांत,
मन के मुँह को ढाँकना, कारज कठिन नितांत।


दुख के भीतर ही छुपा, सुख का सुमधुर स्वाद,
लगता है फल, फूल के, मुरझाने के बाद।


भाँति-भाँति के सर्प हैं, मन जाता है काँप,
सबसे जहरीला मगर, आस्तीन का साँप।


हो अतीत चाहे विकट, दुखदायी संजाल,
पर उसकी यादें बहुत, होतीं मधुर रसाल।


विपदा को मत कोसिए, करती यह उपकार,
बिन खरचे मिलता विपुल, अनुभव का उपहार।


प्राकृत चीजों का सदा, कर सम्मान सुमीत,
ईश्वर पूजा की यही, सबसे उत्तम रीत।

                       
                                                                             -महेन्द्र वर्मा





कुछ और

मेरा कहना था कुछ और,
उसने समझा था कुछ और ।

धुँधला-सा है शाम का  सफ़र,
सुबह उजाला था कुछ और ।

गाँव जला तो बरगद रोया,
उसका दुखड़ा था कुछ और ।

अजीब नीयत धूप की हुई,
साथ न साया, था कुछ और ।

जीवन-पोथी में लिखने को,
शेष रह गया था कुछ और ।

 

-महेन्द्र वर्मा

बरगद माँगे छाँव




सूरज सोया रात भर, सुबह गया वह जाग,
बस्ती-बस्ती घूमकर, घर-घर बाँटे आग।

भरी दुपहरी सूर्य ने, खेला ऐसा दाँव,
पानी प्यासा हो गया, बरगद माँगे छाँव।
 

सूरज बोला  सुन जरा, धरती मेरी बात,
मैं ना उगलूँ आग तो, ना होगी बरसात।

सूरज है मुखिया भला, वही कमाता रोज,
जल-थल-नभचर पालता, देता उनको ओज।

पेड़ बाँटते छाँव हैं, सूरज बाँटे धूप,
धूप-छाँव का खेल ही, जीवन का है रूप।

धरती-सूरज-आसमाँ, सब करते उपकार,
मानव तू बतला भला, क्यों करता अपकार।

जल-जल कर देता सदा, सबके मुँह में कौर,
बिन मेरे जल भी नहीं, मत जल मुझसे और।

                                                                               

  -महेन्द्र वर्मा

भवानी प्रसाद मिश्र, अनुपम मिश्र और बेमेतरा



स्व. भवानी प्रसाद मिश्र
................एक छोटा-सा किस्सा सुनाता हूँ,  आज के माता-पिता के लिए वो ज़रा चौंकाने वाला होगा । आज हम यह देखते हैं कि बच्चे कैसे अच्छे-से पढ़ें और पढ़-लिख कर कैसे अच्छी नौकरियों में चले जाएँ , कितना बड़ा उनको पैकेज मिले । पिताजी का दौर उस समय के माता-पिता जैसा रहा होगा लेकिन उनका विचार कुछ और था ।
 
हम लोग बम्बई में शायद तीसरी कक्षा में पढ़ते थे, साधारण स्कूल था, ठीक-ठाक । एक दिन हम लोग आए तो अचानक उन्होंने कहा - कल हम लोग सब बेमेतरा चलेंगे । बेमेतरा कहाँ है ये हमें मालूम था क्योंकि पिताजी के बड़े भाई बेमेतरा में एस.डी.एम. थे । अच्छा ही लगा, स्कूल से छुट्टी मिलेगी। जो दो-चार कपड़े थे और थोड़ा-सा सामान  बाँध-बूँध कर, माता-पिता  का हाथ पकड़ कर हम लोग रेलगाड़ी से बेमेतरा चले गए ।
 
वहाँ दो-तीन दिन रहे । अचानक एक दिन पता चला, माँ और मन्ना बम्बई लौट रहे हैं । हम और जीजी (नंदिता मिश्र) वहीं रुकेंगे, बेमेतरा में । तब तक हमको पता नहीं था । उन्होंने कहा कि एक दिन बड़े भैया यानी हमारे ताऊ जी ने बम्बई में एक पोस्टकार्ड लिखा पिताजी को कि मेरे सब बच्चे बड़े होकर हास्टल में चले गए हैं। घर बिल्कुल सूना हो गया है । पिताजी ने कहा कि ये दोनों तुम्हारे हैं, इनको मैं बम्बई से आपके पास भेज देता हूँ ।
बेमेतरा उस समय दस-पंद्रह हज़ार की आबादी वाला एक छोटा-सा कस्बा था । एक ही स्कूल था, पूरे कस्बे में । उन्होंने कहा कि बड़े पिताजी का सूनापन दूर हो जाना चाहिए इसलिए तुम लोग किलकारी मारो उनके घर में । बम्बई के स्कूल से हटाकर हमें एक गाँव के स्कूल में डाल दिया ।
 
जिसको कहते हैं ना, भविष्य देखना, ये सवाँरना वो सवाँरना , ये सब नहीं, उन्होंने कहा - बड़े भाई का मन सवाँरना । 

स्व. अनुपम मिश्र
एकाध दिन रोए होंगे लेकिन उसके बाद हमको बेमेतरा बहुत पसंद आया । हम बम्बई में जूता पहन कर स्कूल जाते थे, अच्छी तरह से चमका कर,, यही हमें सिखाया गया था । वहाँ हमने देखा, हमारे क्लास में किसी भी बच्चे के पैर में जूता-चप्पल नहीं था । उसके बाद हमने भी दूसरे दिन से स्कूल में जूता पहनना छोड़ दिया ।
 
कोई डेढ़ वर्ष वहाँ रहे । अब बड़े पिताजी को लगा होगा कि खूब किलकारी हो गई । तब तक पिताजी बम्बई से दिल्ली आ गए थे। फिर वैसे ही पीले पोस्टकार्ड का आदान-प्रदान हुआ होगा । तब बड़े पिताजी ने हम लोगों को कहा, चलो, तुम लोग अपना सामान बाँधो । कल तुम लोगों को दिल्ली  जाना है । तब हमने पहली बार रेल में फर्स्ट क्लास देखा। बड़े पिताजी के कोई मित्र एम.पी. थे, उनके साथ हम लोगों को रवाना कर दिया ।
ये घटना आप लोगों को इसलिए बताई कि पिता कैसा होता है और उसका व्यापक परिवार क्या होता है और उसको कितना भरोसा होता है कि केवल स्कूल की शिक्षा बच्चे के भविष्य को नहीं बनाती या बिगाड़ती उसके अलावा पचासों और चीज़ें होती हैं । तो, हम लोग जो बने हैं वो आप सब के कारण बने हैं, किसी स्कूल और शिक्षा के कारण नहीं............... ।
 

 -स्व. अनुपम मिश्र
  प्रसिद्ध गाँधीवादी विचारक और पर्यावरणविद्
 (‘सूत्रधार’ संस्था द् वारा  21 सितम्बर, 2013 को   इंदौर में  आयोजित  भवानी प्रसाद मिश्र जी  की    जन्मशती समारोह में संस्मरण सुनाते हुए )

  29 मार्च को स्व. भवानी प्रसाद मिश्र की जयंती है, उन्हें सादर नमन ।









अपने हिस्से की बूँदें

तूफ़ाँ बनकर वक़्त उमड़ उठता है अक्सर,
खोना ही है जो कुछ भी मिलता है अक्सर ।

उसके माथे पर कुछ शिकनें-सी दिखती हैं,
मेरी  साँसों  का  हिसाब रखता है अक्सर ।

वक़्त ने गहरे हर्फ़ उकेरे जिस किताब पर,
उस के सफ़्हे वो छू कर पढ़ता है अक्सर ।

सहरा  हो  या  शहर  तपन  है  राहों में,
जख़्मी पाँवों से चलना पड़ता है अक्सर ।

अपने  हिस्से  की  बूँदों  को  ढूँढ  रहा  हूँ,
दरिया का ही नाम लिखा दिखता है अक्सर ।

 


-महेन्द्र वर्मा

गीत बसंत का




सुरभित मंद समीर ले                                                 
आया है मधुमास।

पुष्प रँगीले हो गए
किसलय करें किलोल,
माघ करे जादूगरी
अपनी गठरी खोल।

गंध पचीसों तिर रहे
पवन हुए उनचास ।

अमराई में कूकती
कोयल मीठे बैन,
बासंती-से हो गए
क्यों संध्या के नैन।

टेसू के संग झूमता
सरसों का उल्लास ।


पुलकित पुष्पित शोभिता
धरती गाती गीत,
पात पीत क्यों हो गए
है कैसी ये रीत।

नृत्य तितलियाँ कर रहीं
भौंरे करते रास ।

                                              -महेन्द्र वर्मा