डरता है अंधियार

जगमग हर घर-द्वार  कि अब दीवाली आई,
पुलकित  है  संसार  कि  अब  दीवाली आई।


दुनिया के  कोने-कोने  में  दीप  जले हैं, 
डरता है अंधियार कि अब दीवाली आई।


गीत प्यार के गीत मिलन के गीत ख़ुशी के, 
गाओ  मेरे   यार   कि  अब   दीवाली  आई।


जी भर जी लो गले लगालो सबको हंसकर,
जीवन के  दिन  चार  कि अब दीवाली आई।


दुनिया से  अब  द्वेष  मिटाकर ही दम लेंगे,
दिल में रहे बस प्यार कि अब दीवाली आई।


सुख समृद्धि स्वास्थ्य संपदा मिले सभी को,
यही  कामना   चार  कि   अब दीवाली आई।


धरती  सागर  जंगल सरिता गगन पवन पर,
हो सबका  अधिकार कि  अब  दीवाली आई।


खुद  भी  जियो   और   दूसरों को जीने दो,
जीवन  का यह सार कि अब  दीवाली  आई।



जीवन के इस महा समर में दुआ करें हम,
हो न किसी की हार कि अब दीवाली आई।


अक्षत  रोली  और  मिठाई  ले  आया  हूं,
स्वीकारो  उपहार  कि अब दीवाली  आई।

दीपावली की अशेष शुभकामनाओं के साथ...

                                       -महेन्द्र वर्मा

जानना और समझना

                                   जो जानते हैं, जरूरी नहीं कि वे समझते भी हों। लेकिन जो समझते हैं, वे जानते भी हैं। जानना पहले होता है, समझना उसके बाद। यह तत्काल बाद भी हो सकता है और बरसों भी लग सकते हैं । कभी-कभी जानना और समझना साथ-साथ चलता है। जानते हुए समझना से ज्यादा बेहतर है- समझते हुए जानना। जानना आसान है, समझना कठिन। जानना सतही होता है, एक विमीय होता है, जबकि समझने में कर्इ आयामों से गुजरना पड़ता है। वैसे, गहनता और गंभीरतापूर्वक जानना को समझना कह सकते हैं।
                                   जानने की प्रक्रिया  ज्ञान ग्रहण करने वाले अंगों और मस्तिष्क के सहयोग से कुछ ही समय में सम्पन्न हो जाती है। कोर्इ व्यकित स्वयं अपने प्रयासों से चीजोंतथ्यों के बारे में जान सकता है या फिर, दूसरों के अनुभवों को सुनकर, किताबों से पढ़कर या आधुनिक संचार माध्यमों के जरिए जान सकता है। लेकिन इन्हीं चीजोंतथ्यों के बारे में समझना भी हो तो  केवल ज्ञान ग्रहण करने वाले अंगों और मस्तिष्क का उपयोग व्यर्थ साबित होगा।
                                    समझने की प्रक्रिया में जिसका भरपूर योगदान होता है, वह है- बुद्धि।  बुद्धि का प्रमुख काम यह है कि यह उनको सोचने के लिए प्रेरित और कभी-कभी बाध्य भी करती है, जिनके पास यह होती है। होती तो सभी मनुष्यों के पास है, किंतु स्तर या मात्रा में भिन्नता होती है। बुद्धि के स्तर में अंतर होने के कारण सोचने के स्तर में भी अंतर हो ही जाता है। सोचने के इस अंतर के कारण समझने में फर्क आना स्वाभाविक है। सोचने और फिर समझने की इस प्रक्रिया में व्यकित का पूर्वज्ञान, पूर्व अनुभव और विवेक की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
                     समझ का यही अंतर विवादों का जनक होता है।
एक बात और- बिना जाने समझना संभव नहीं है लेकिन बिना समझे जानना व्यर्थ है, निरर्थक है।
                                                                                                                                                                                                                                -                                                                                                                         * महेन्द्र वर्मा


पितर-पूजन का पर्व



                                     आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की कोई  तिथि। अभी सूर्योदय में कुछ पल शेष है। छत्तीसगढ़ के एक गांव का घर। गृहलक्ष्मी रसोईघर के सामने के स्थल को गोबर से लीपती है। उस पर चावल के आटे से चौक पूरती है, पुष्पों का आसन बिछाती है। पुत्र बालसुलभ जिज्ञासा से पूछता है- 'ये क्या है मां ?' मां श्रद्धापूरित स्वरों में कहती है-'आज हमारे पितर आएंगे।' पुत्र के मन में यह दृश्य अंकित हो जाता है।
                                           तालाब में पुरुषों के स्नान घाट के एक पत्थर पर बैठा गृहस्वामी अंगूठे और तर्जनी के मध्य कुश धारण कर जल, तिल और चावल का तर्पण करता है। पुत्र प्रश्न करता है- 'आप क्या कर रहे हैं ?' उत्तर मिला-'पितरों का स्मरण कर उन्हें जल तर्पण कर रहा हूं।' पुत्र के मानस-पटल पर यह दृश्य भी अंकित हो जाता है। घर लौट कर गृहस्वामी रसोईघर के सामने घी-गुड़ और चीला-बरा का हूम-धूप देता है। पुत्र पुन: पूछता है-'ये क्या है ?' पिता कहता है-'पितरों को भोग लगा रहा हूं।' ये सभी दृश्य पुत्र के मन को संस्कारित कर देते हैं और उसमें पुरखों की अनंत श्रृंखला के प्रति आश्चर्यमिश्रित श्रद्धा उत्पन्न कर देते हैं।
                                           पुरखों को श्रद्धापूर्वक स्मरण करने की यह परम्परा लोक-जीवन में आदिम है। भारत में जब आर्यों ने शास्त्रों की रचना प्रारंभ की तो लोक-जीवन में प्रचलित यही परंपराएं भोजपत्र में लिपिबद्ध हो कर शास्त्र में परिवर्तित हुई । पुराणों में पितृपक्ष या श्राद्धपक्ष के संबंध में विविध रूपों में विवरण और कथाएं वर्णित हैं। शास्त्रों में व्याख्यायित होने के पूर्व यह लोक-परंपरा कैसे विकसित हुई  होगी ?                                                                                  दिवंगत अपनों को जन्मतिथि के स्थान पर मृत्युतिथि पर सम्मानांजलि अर्पित करने की परंपरा के संबंध में विचार करें तो प्राचीन काल के कुछ महत्वपूर्ण व्यावहारिक तथ्य इस प्रकार उभरते हैं- संतान यह जानती थी कि उनके जनक-जननी ने उसका सप्रेम लालन-पालन जन्मपूर्व से युवावस्था पर्यन्त किया है। उन्होंने अपनी देह त्यागने तक का प्रत्येक क्षण संतान के हित के लिए ही जिया है। कृतज्ञ भाव से संतान ने भी अपने माता-पिता की मृत्युपर्यंत सेवा की। माता-पिता की मृत्यु के पश्चात उस समय के लोक-चिंतन-परंपरा के अनुसार कृतज्ञ संतान को अनुभूति हुई  कि मुझे अपने माता-पिता की आत्मा की भी सेवा करनी चाहिए। उसे यह भी अनुभूति हुई  कि मेरे माता-पिता के माता-पिता ने भी अपने संतानों की सुरक्षा और लालन-पालन किया होगा और इसी के साथ पुरखों की लंबी श्रृंखला के प्रति उसमें कृतज्ञता का भाव उत्पन्न हुआ।  तब उसने महत्वपूर्ण अवसरों पर अपने मृत माता-पिता के साथ अपने पूर्वजों का भी आवाहन, स्मरण और पूजन करना प्रारंभ किया। संतान के मन में विश्वास उत्पन्न हुआ कि पूर्वजों के आशीर्वाद से ही उसका जीवन सुखपूर्वक बीतेगा, कष्ट के समय पूर्वज उनकी सहायता करेंगे।
                                                        यह सहज, श्वेत-श्याम लोक-परंपरा जब शास्त्रों में लिपिबद्ध हुई  तो उसमें विद्वता और शास्त्रीयता के रंगों का उभरना स्वाभाविक था। पूर्वजों के लिए शास्त्रों में पितर: शब्द का उल्लेख है जो पिता का पर्यावाची पितृ का बहुवचन है। छत्तीसगढ़ी में पितर: का रूप पितर हो गया। पुराणों में पितरों के समूह को देवगण के समान पितृगण की संज्ञा दी गई । इनके निवास स्थल को पितृलोक कहा गया। ब्रहमाण्ड पुराण के अनुसार पितृगण के चार वर्ग हैं-अगिनष्वात्त, बर्हिषद, सौम्य और काव्य। यह वर्ग विभाजन तत्कालीन चतृर्वर्ण व्यवस्था के अनुरूप प्रतीत होता है। वायुपुराण में ऋषियों से पितर, पितरों से देवता और देवताओं से संपूर्ण स्थावर-जंगम सृष्टि की उत्पत्ति मानी गई  है। इस प्रकार पितरों को देवताओं से भी उच्च स्थान प्राप्त है। भागवतपुराण और वायुपुराण में कहा गया है कि पितरों के प्रति केवल जलदान अर्थात तर्पण करने से ही अक्षय सुख प्राप्त होता है तथा वंश की वृद्धि होती है। मत्स्यपुराण में गया, वाराणसी, प्रयाग आदि कुल 222 तीरथों को पितृतीर्थ कहा गया है।
                                                        पुराणों में आश्विन मास के कृष्णपक्ष को पितृपक्ष माना गया है। इसे ही श्राद्धपक्ष या महालय भी कहते हैं। पितृमोक्ष अमावस्या की संज्ञा महालया है। 'श्रद्धा हेतुत्वेन असित अस्य'- पितरों के प्रति श्रद्धा की भावांजलि अर्पित करना ही श्राद्धपक्ष में कर्तव्य है। जिस पूर्वज की मृत्यु जिस तिथि में हुई  हो उसी तिथि में श्राद्ध-तर्पण करने का विधान है। यदि तिथि का स्मरण न हो तो पुरुषों का अष्टमी को, महिलाओं का नवमी को, जो पूर्वज वैरागी रहे हों उनका द्वादशी को, जिनकी अकाल मृत्यु हुई  हो उनका श्राद्धकर्म त्रयोदशी और चतुर्दशी को किया जाता है। अन्य सभी का श्राद्धकर्म अमावस्या को किया जाता है।
                                                         आधुनिक समय में जीवित माता-पिता, दादा-दादी के प्रति सम्मान में न्यूनता दिखाई  देती है। विचार करें कि हमारे पुरखे कितने सभ्य और कृतज्ञ थे जिन्होंने न केवल जीवित माता-पिता की सेवा की बलिक मृत पूर्वजों या पितरों के प्रति भी श्रद्धा   व्यक्त कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करने की अभिलाषा की। वराहपुराण और मत्स्यपुराण में वर्णित पितृगीत से ज्ञात होता है कि पुरखे अपने वंशजों के सुख-समृद्धिपूर्ण जीवन के लिए किस प्रकार लालायित होकर कहते हैं-
                                                          ''क्या हमारे कुल में कोई  ऐसा बुद्धिमान, धन्य मनुष्य जन्म लेगा जो वित्तलोलुपता त्याग कर हमारे निमित्त पिण्डदान करेगा ! सम्पतित होने पर जो हमारे उददेश्य से महापुरुषों  को रत्न, वस्त्र व अन्य भोग-सामग्री का दान करेगा ! केवल अन्न-वस्त्र मात्र वैभव होने पर श्राद्धकाल में भकितविनम्र चित्त से याचकों को यथाशकित भोजन ही कराएगा ! क्या हमारे कुल में कोई  ऐसा मनुष्य जन्म लेगा जो अन्न देने में भी असमर्थ होने पर सज्जनों को वन्य फल-मूल, शाक और किंचित दक्षिणा ही दे सकेगा ! यदि इसमें भी असमर्थ रहा तो किसी भी द्विजश्रेष्ठ को प्रणाम करके एक मुटठी काला तिल ही देगा या हमारे उददेश्य से भकित एवं नम्रतापूर्वक सात-आठ तिलों से युक्त जलांजलि ही देगा ! यदि इसका भी अभाव हो तो कहीं से घास लाकर प्रीति और श्रद्धापूर्वक हमारे उददेश्य से गौ को खिलाएगा ! इन सभी वस्तुओं का अभाव होने पर क्या हमारा वंशज दोनों हाथों को उठाकर सूर्य आदि दिक्पालों से उच्च स्वर में यह कहेगा-

न मे सित वित्तं न धनं च अन्य-
च्छ्राद्धस्य योग्यं स्वपितृन्नतो सिम।
तृप्यन्तु भक्त्या पितरो मयैतौ
भुजौ ततौ वत्र्मनि मारुतस्य।
                             
  'मेरे पास श्राद्धकर्म के योग्य न धन-संपत्ति है और न अन्य सामग्री, अत: मैं अपने पितरों को प्रणाम करता हूं। वे मेरी भक्ति से ही तृप्ति लाभ करें । मैंने अपनी दानों भुजाएं आकाश में उठा रखी हैं।''
                               उक्त पितृगान से स्पष्ट है कि पितर केवल श्रद्धा और भक्तिभाव से ही तृप्त होने की कामना अपने वंशजों से करते हैं।
                              श्राद्धकर्म की यदि परामनोवैज्ञानिक निहितार्थ के संबंध में विचार करें तो तथ्य यह है कि पितरों के प्रति जब हम अपने मन में श्रद्धा-भाव की मानस उर्जा उत्पन्न करते हैं तो वही उर्जा हमारे भीतर सकारात्मक शक्तियों का सृजन करती है।
   







HARIBHOOMI-OCT. 3, 2013
                                                                                                                             -महेन्द्र वर्मा



  


जिस्म पर फफोले

पराबैगनी किरणों के
एक समूह ने
ओजोन छिद्र से
धरती की ओर झांका
सयानी किरणों के
निषेध के बावजूद
कुछ ढीठ, उत्पाती किरणें
धरती पर उतर आर्इं
विचरण करने लगीं
बाग-बगीचों, नदी-तालाबों और
सड़कों-घरों में भी
कुछ पल बाद ही
मानवों के इर्द-गिर्द
घूमने वाली पराबैगनी किरणें
चीखती-चिल्लातीं
रोती-बिलखतीं
आसमान की ओर भागीं
उनके जिस्म पर
फफोले उग आए थे
कटोरों के आकार के
कराहती हुर्इ
वे कह रही थीं-
हाय !
कितनी भयानक
और घातक हैं
मनुष्यों से
निकलने वाली
'मनोकलुष किरणें' !

                                 -महेन्द्र वर्मा


नेह का दीप

सहमे से हैं लोग न जाने किसका डर है,
यही नज़ारा रात यही दिन का मंजर है।

दुनिया भर की ख़ुशियां नादानों के हिस्से,
अल्लामा को दुख सहते देखा अक्सर है।

सच कहते हैं लोग समय बलवान बहुत है,
रहा कोई महलों में लेकिन अब बेघर है।

हसरत भरी निगाहें तकतीं नील गगन में,
मगर कहां परवाज हो चुके हम बेपर हैं।

अच्छी सूरत वालों ने इतिहास बिगाड़ा,
सीरत जिसकी अच्छी बेशक वह सुंदर है।

मैं तो हूं बंदे का मालिक मेरा क्या है,
जहां नेह का दीप जले मेरा मंदर है।

मेरे मन की बात समझ न पाओगे तुम,
तेरे मेरे दुख में शायद कुछ अंतर है।

                                                   
- महेन्द्र वर्मा

उर की प्रसन्नता




दोनों हाथों की शोभा है दान करने से अरु,
मन की शोभा बड़ों का मान करने से है।
दोनों भुजाओं की शोभा वीरता दिखाने अरु,
मुख की शोभा तो प्यारे सच बोलने से है।
कान की शोभा है मीठी वाणी सुनने से अरु,
आंख की शोभा तो अच्छे भाव देखने से है।
चेहरा शोभित होता उर की प्रसन्नता से,
मानव की शोभा शुभ कर्म करने से है।

                                         -
महेन्द्र वर्मा

बिना बोले



विपत बनाती मनुज को, दुर्बल न बलवान,
वह तो केवल यह कहे, क्या है तू, ये जान।

कौन, कहां मैं, किसलिए, खुद से पूछें आप,
सहज विवेकी बन रहें, कम होगा संताप।

मूर्खों के सम्मुख स्वयं, जो बनते विद्वान,
विद्वानों के सामने, वही मूर्ख पहचान।

क्रोध जीतिए शांति से, मृदुता से अभिमान,
व्यर्थवादिता मौन से, लोभ जीतिए दान।

बड़े बिना बोले बचन, करते यों व्यवहार,
विनय सिखाते लघुन को, करते पर उपकार।


                                                                          
                                                                      -महेन्द्र वर्मा

संत बाबा किनाराम


                                   बनारस  जिले की चंदौली तहसील के रामगढ़ गांव में अकबर सिंह और मनसा देवी के घर जिस बालक ने जन्म लिया वही प्रसिद्ध संत बाबा किनाराम हुए। 12 वर्ष की अवस्था में इन्होंने गृह त्याग कर अध्यात्म की राह पकड़ी। बलिया जिले के कारों गांव निवासी बाबा शिवराम इनके गुरु थे। काशी में इन्होंने केदार घाट के बाबा कालूराम अघोरी से दीक्षा प्राप्त की। अपने गुरु की स्मृति में इन्होंने 4 मठों का निर्माण कराया। इनकी जन्मस्थली रामगढ़ में बाबा किनाराम का आध्यात्मिक आश्रम है।
                                  ये कवि भी थे। इनकी प्रधान रचना ‘विवेकसार‘ है। अन्य प्रकाशित रचनाएं ‘रामगीता‘, ‘गीतावली‘, ‘रामरसाल‘ आदि हैं। इनकी रचनाओं से इनके अवधूत मत का सहज ही अनुमान हो जाता है।

प्रस्तुत है बाबा किनाराम रचित एक पद-

कथें ज्ञान असनान जग्य व्रत, उर में कपट समानी।
प्रगट छांडि करि दूरि बतावत, सो कैसे पहचानी।
हाड़ चाम अरु मांस रक्त मल, मज्जा को अभिमानी।
ताहि खाय पंडित कहलावत, वह कैसे हम मानी।
पढ़े पुरान कुरान वेद मत, जीव दया नहिं जानी।
जीवनि भिन्न भाव करि मारत, पूजत भूत भवानी।
वह अद्ष्ट सूझ नहिं तनिकौ, मन में रहै रिसानी।
अंधहि अंधा डगर बतावत, बहिरहि बहिरा बानी।
राम किना सतगुरु सेवा बिनु, भूलि मरो अज्ञानी।।


वर्तमान की डोर




ज्ञान और ईमान अब, हुए महत्ताहीन,
छल-प्रपंच करके सभी, धन के हुए अधीन।

बिना परिश्रम ही किए, यदि धन होता प्राप्त,
वैचारिक उद्भ्रांत से, मन हो जाता व्याप्त।

जैसे-जैसे लाभ हो , वैसे बढ़ता लोभ,
जब अतिशय हो लोभ तब, मन में उठता क्षोभ।

भूत और भवितव्य पर, नहीं हमारा जोर,
सुलझाते चलते रहो, वर्तमान की डोर।

रूप वही सुंदर जहां, गुण का ही हो वास,
गुणविहीन यदि रूप है, वह केवल आभास।

सुख की छाया में सदा, पलता रहता राग,
दुख का कारण बन गया, किंतु राग की आग।

जगती सम विष-वृक्ष के, दो फल अमृत जान,
सज्जन की संगति तथा, काव्यामृत का पान।


                                                                         -महेन्द्र वर्मा


छत्तीसगढ़ी हाना



                             वाचिक परम्पराएं सभी संस्कृतियों का एक महत्वपूर्ण अंग होती हैं। लिखित भाषा का प्रयोग न करने वाले लोक समुदाय में संस्कृति का ढांचा अधिकतर मौखिक परम्परा पर आधारित होता है। कथा, गाथा, गीत, भजन, नाटिका, प्रहसन, मुहावरा, लोकोक्ति, मंत्र आदि रूपों में मौखिक साधनों द्वारा परम्परा का संचार ही वाचिक परम्परा  है। इसमें निहित लोक-संस्कृति समुदाय की अक्षुण्ण धरोहर है। विभिन्न विधाओं में वाचिक परम्परा की यह धरोहर आज लोक साहित्य की संज्ञा प्राप्त कर चुकी है।
                            अन्य संस्कृतियों की भांति ही छत्तीसगढ़ की संस्कृति के संचार में वाचिक परम्परा ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। पंडवानी, भरथरी, चनैनी, लोरिक-चंदा, देवार गीत, बांस गीत और आल्हा जैसी लोकगाथाएं इतिहास को अपनी विशिष्ट शैली में रूपायित करती हैं। विभिन्न अवसरों पर गाए जाने वाले सुआ, करमा, ददरिया, पंथी, सोहर, फाग, बिहाव गीत, गौरा गीत, जसगीत, निर्गुणी भजन आदि लोककाव्य लोक-जीवन के हर्ष-विषाद, आस-विश्वास, आमोद-प्रमोद, रीति-नीति, श्रद्धा-भक्ति, राग-विराग आदि भावों को अत्यंत सहजता से सप्राण करते रहे हैं। इसी प्रकार रहस और नाचा जैसी लोक-नाट्य की विशिष्ट परम्पराएं लोक-संस्कृति की अद्भुत ध्वज-वाहक हैं।
                               छत्तीसगढ़ की वाचिक परम्परा को समृद्ध बनाने में लोकोक्तियों अर्थात हाना का महत्वपूर्ण योगदान है। लोकोक्ति मात्र लोक उक्ति नहीं है बल्कि यह सु-उक्ति अर्थात सूक्ति या सुभाषित भी है। हाना छत्तीसगढ़ के लोक-जीवन का नीति शास्त्र है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता संक्षिप्तता है। कम शब्दों में बहुत गहरी बात कहने की क्षमता हाना में होती है। इनमें गागर में सागर भरा होता है। हाना जनमानस के लिए आलोक स्तंभ हैं जो जीवन-पथ को निरंतर आलोकित करता रहता है।
                               संसार की सभी सभ्यताओं में हाना या लोकोक्तियों का प्रचलन है। लोक-जीवन के अनुभवों के बल पर ही लोकोक्तियां बनती हैं। छत्तीसगढ़ में हजारों हाना प्रचलित हैं। किसी हाना विशेष को कब और किसने गढ़ा होगा, यह जान पाना असंभव है। किंतु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि सामान्य जीवनचर्या के किसी प्रसंग या विचार की उपयुक्तता अथवा अनुपयुक्तता को प्रमाणित करने के लिए प्रकृति के किसी अन्य समान गुणधर्म वाले प्रसंग को कम शब्दों में उद्धरित किए जाने से  हाना कहने की परम्परा विकसित हुई होगी। जिसने भी कोई हाना गढ़ा होगा, उसकी लोकनीति की समझ, त्वरित सूझ-बूझ और वाक्चातुर्य पर आश्चर्य होता है। हाना अमिधात्मक न होकर लक्षणात्मक और व्यंजनात्मक होता है। वार्तालाप के समय किसी बात या विचार की स्वीकार्यता या अस्वीकार्यता अर्थात हां और ना दोनों के लिए हाना प्रयुक्त किया जाता है।

                                 छत्तीसगढ़ी हाना अपने गढ़न के लिए इतिहास, राजनीति, धर्म, नीति, समाज, घर-परिवार, स्वास्थ्य, चिकित्सा, कृषि, व्यापार, लोक-व्यवहार आदि विषयों से मूल तत्व ग्रहण करता है। प्रकृति का व्यवहार, जीव-जंतुओं के क्रियाकलाप, खाद्य पदार्थों के लक्षण, मनुष्य का आचरण, जाति विशेष के कार्य और गुण, पारिवारिक रिश्तों का ताना-बाना, वस्तुओं की विशेषताएं आदि से हाना के कथ्य लिए गए हैं। हाना के गढ़न में छत्तीसगढ़ी के ‘क्लासिकल‘ शब्दों का प्रयोग उसे सरसता प्रदान करता है। शब्दों का ऐसा सुंदर प्रयोग अन्यत्र परिलक्षित नहीं होता। कुछ में शब्दों की सादगी भी है किंतु हाना में व्यक्त भाव उसके अर्थ की व्यापकता को समृद्ध करता है। शब्द, अर्थ और भावों का समुच्चय हाना सूक्तियों का स्वरूप लेकर छत्तीसगढ़ की संस्कृति का भी दिग्दर्शन कराता है।
                                   छत्तीसगढ़ के जन-मानस में ‘अतिथि देवो भव‘  की भावना रची-बसी है। किंतु उदारता और बड़प्पन की असीमता देखिए, अतिथि यदि शत्रु हो तो भी उसका सम्मान करता है और ‘‘बैरी बर ऊंच पीढ़ा‘‘ कहकर गौरवान्वित अनुभव करता है। यही उदारता जब सीमा से अधिक होने लगी तो वह यह कहने से भी नहीं चूकता- ‘‘घर गोसइयां ला पहुना डरवावै‘‘। जब कोई व्यक्ति किसी की वस्तु पर अपना अधिकार पाने की अनधिकृत चेष्टा करता है तब इस हाना का प्रयोग किया जाता है।
                                  यहां के लोग भागयवाद पर नहीं बल्कि कर्मवाद पर विश्वास करते हैं । वे जानते हैं कि उचित कार्य न करने से प्रतिकूल परिणाम प्राप्त होता है किंतु व्यक्ति अपने कार्य में ध्यान न देकर भाग्य को दोष देता है। ऐसी ही परिस्थितियों के लिए कहा जाता है- ‘‘चलनी म दूध दुहै, करम ल दोस दै‘‘।
                                      यह प्रचलित मान्यता है कि गांव के लोग अंधविश्वासी होते हैं। क्या छत्तीसगढ़ में भी ऐसा ही है ? वर्तमान में भले ही कुछ मात्रा में हो, लेकिन इस हाना से ज्ञात होता है कि पहले ऐसा नहीं था-‘‘ जोग मा साख नहीं, आंखी मा भभूत आंजै।‘‘ ढोंग और दिखावे के प्रति कितना सटीक व्यंग्य !
                                   ‘‘पढ़े हे फेर कढ़े नइए‘‘, यह हाना इस तथ्य को संकेतित करता है कि पुस्तकीय ज्ञान की तुलना में जीवनानुभव के पन्ने अधिक महत्व रखते हैं। ऐसी सूझ-बूझ वाले छत्तीसगढ़ के लोग निश्चित रूप से पहले निरे भोले-भाले नहीं रहे होंगे।
                                    मानव-मन की एक दुर्बलता यह है कि वह अपने दुर्गुणों को छिपाता है और दूसरों के दुर्गुणों को बताने में अधिक रुचि लेता है। इस सार्वभौमिक सत्य को सहज शब्दों में किंतु कलात्मक ढंग से एक हाना में इस तरह कहा गया है-‘‘अपन ला तोपै, दूसर के ला उघारै‘‘। अमिधार्थ में हास्य है, लक्षणार्थ में मनोविज्ञान है और व्यंजनार्थ में तीखा व्यंग्य। यथार्थ को यूं कहने का अंदाज़ हाना में ही संभव है। दार्शनिक अंदाज़ का एक हाना यह है-‘‘करनी  दिखै, मरनी के बेर‘‘। जीवन भर मनुष्य अपने गलत कार्यों पर ध्यान नहीं देता किंतु मृत्यु के समय उसे सब याद आ ही जाता है।
                                      ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जो परिश्रम से जी चुराते हैं लेकिन कार्य का श्रेय लेने में आगे रहते हैं। इनके लिए जो हाना गढ़ा गया उसमें दौंरी द्वारा फसल मिसाई के प्रसंग से तुलना की गई है। कोई बैल नांगर या गाड़ा में जोते जाने पर रेंगता नहीं है लेकिन दौंरी में जुतने के लिए तत्पर रहता है क्योंकि वहां दाना और पैरा दोनों खाने को मिलेगा, अर्थात, ‘‘काम के न धाम के, दौंरी बर बजरंगा‘‘। बजरंगा शब्द का ध्वन्यात्मक प्रभाव हाना के अर्थ को सुदृढ करता है।
                                     ‘‘कुसियार ह जादा मिठाथे त ओकर जरी ला नई चुहकैं‘‘। ध्यातव्य तथ्य प्राप्त होता है कि  पहले भी छत्तीसगढ़ में पारम्परिक फसलों के साथ-साथ गन्ने की फसल भी ली जाती थी। कुसियार से परिश्रमी व्यक्ति और सीधे-सादे व्यक्ति की तुलना, कार्य कराने से चुहकना की तुलना और स्वास्थ्य से  जरी की तुलना करते हुए हाना कहा गया।
                                     हाना में ऐतिहासिक और धार्मिक स्थलों का भी नाम मिलता है। जैसे-‘‘गोकुल के बिटिया, मथुरा के गाय, करम छांड़े त अंते जाय‘‘। अमिधार्थ स्पष्ट है। व्यंजनार्थ यह है कि सुख-सुविधा संपन्न स्थान पर आश्रित किसी व्यक्ति को वह स्थान छोड़ना पड़े तो यह उसका दुर्भाग्य ही होगा।
                                        कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हमें जिस वस्तु या व्यक्ति से अत्यधिक मोह है, उसी के द्वारा हमारा अनर्थ हो, हानि हो, तब अपनी व्यथा को व्यक्त करते हुए उसे इस तरह व्यक्त करें तो कुछ संतुष्टि तो मिलेगी ही-‘‘जरै वो सोन, जेमा कान टुटै‘‘।
                                        ‘‘महतारी के परसे अउ मघा के बरसे‘‘ दोनों तृप्ति    कारक हैं। मां की तुलना मघा नक्षत्र से की गई है जिसमें हुई वर्षा संतान रूपी फसल को संतृप्त करती है। पत्नी के खाना परोसने में भला क्या अंतर है ? इसका उत्तर तो इस हाना में निहित है-‘‘डौकी टमड़ै कन्हिया, महतारी टमड़ै पेट‘‘।
                                          बेटियों को लेकर भी एक मार्मिक हाना है। बेटी के प्रति माता-पिता का असीम स्नेह है। बेटी की असामयिक मृत्यु     हो जाती है। माता-पिता पर दुख का पहाड़ टूट पड़ता है। परिवार के अन्य सदस्य उन्हें सांत्वना देते हुए कहते हैं- ‘‘दई लेगे लेगे, दमाद लेगे लेगे‘‘। बेटी को तो एक दिन इस घर से जाना ही था, अब उसे ईश्वर ले जाए या दामाद, एक ही बात है।
                                          छत्तीसगढ़ की संस्कृति की एक हल्की सी झलक इन उदाहरणों में अभिव्यक्त है, इस लघु आलेख में इतना ही संभव है। समग्र विवरण के लिए एक वृहद्काय ग्रंथ रचने की आवश्यकता होगी। क्योंकि छत्तीसगढ़ में लोकोक्तियों की संख्या अनुमानतः कई हजार है । ऊपर जो गिनती के प्रतिनिधि उदाहरण दिए गए हैं वे मध्य छत्तीसगढ़ में प्रचलित हैं। उत्तरी और दक्षिणी पर्वतीय क्षेत्रों की बोलियों में प्रचलित लोकोक्तियों को भी सम्मिलित करें तो इनकी संख्या कितनी होगी, अनुमान लगाना कठिन है।
                                           अंत में, छत्तीसगढ़ की पीड़ा के मर्म को अभिव्यक्त करने वाला एक हाना । यह प्रदेश सदैव अन्य अंचलों के लोगों का आश्रयदाता रहा है। उन्हें अतिथि न मानकर परिवार का सदस्य माना गया। उनको भोजन और आवास देने के साथ-साथ यह भी बता दिया गया कि छत्तीसगढ़ की सम्पन्नता कहां छुपी है। कालांतर में छत्तीसगढ़ को लगा कि ऐसा कर उसने उचित नहीं किया। किसी समय बरबस उसके मुंह से जो हाना निकला , वह हमें अभी भी सचेत कर रहा है - ‘‘दू कोतरी दे दै, फेर दाहरा ला झन देखावै‘‘।
                                          हाना छत्तीसगढ़ की वाचिक परम्परा की एक विशिष्ट विधा है। अन्य विधाओं की अपेक्षा हाना में संस्कृति का समग्र और व्यापक उल्लेख मिलता है। यद्यपि इसमें कम शब्दों का प्रयोग होमा है किंतु प्रत्येक हाना छत्तीसगढ़ की संस्कृति के एक विशिष्ट प्रसंग को दृश्यमान बना देता है।

                                                                                                                  महेन्द्र  वर्मा

राजरानी देवी



                      सन् 1905 में एक माँ ने जिस बालक को जन्म दिया, वह हिंदी साहित्याकाश में नक्षत्र बन कर चमका। उस बालक को हिंदी और हिंदी साहित्य का ककहरा उसकी माँ ने ही सिखाया। माँ स्वयं एक भावप्रवण कवयित्री थीं। काव्य-सृजन का मर्म समझने और अपने बालक को कविता का संस्कार देने वाली उस माँ का नाम था- राजरानी देवी।
                      यह माना जाता है कि जिस प्रकार पुरुष कवियों में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कविता का एक नया युग उपस्थित किया था उसी प्रकार राजरानी देवी ने महिला कवियों में एक नए संसार की सृष्टि की थी।
                       राजरानी देवी का जन्म मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले के पिपरिया गांव में हुआ था। 12 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह नरसिंहपुर के लक्ष्मीप्रसाद जी से हुआ जो बाद में डिप्टी कलेक्टर हुए। प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. रामकुमार वर्मा इन्हीं के पुत्र थे।
                       प्रस्तुत है, राजरानी देवी की एक लंबी रचना के अंश जो एक शताब्दी बाद भी समाज के लिए प्रेरणाप्रद है-

नव-हरिद्र-रंजित अंग में, सर्वदा सुख में तुम्ही लवलीन हो,
ग्रंथि-बंधन के अनूप प्रसंग में, दूसरे के ही सदा अधीन हो।
 

बस तुम्हारे हेतु इस संसार में, पथ प्रदर्शक अब न होना चाहिए,
सोच लो संसार के कान्तार में, बद्ध होकर यदि जिए तो क्या जिए।
 

कर्म के स्वच्छन्य सुखमय क्षेत्र में, किंकिणी के साथ भी तलवार हो,
शौर्य हो चंचल तुम्हारे नेत्र में, सरलता का अंग पर मृदु भार हो।
 

सुखद पतिव्रत धर्म-रथ पर तुम चढ़ो, बुद्धि ही चंचल अनूप तरंग हांे,
दिव्य जीवन के समर में तुम लढ़ो, शत्रु के प्रण शीघ्र ही सब भंग हों।
 

हार पहनो तो विजय का हार हो, दुंदुभी यश की दिगंतों में बजे,
हार हो तो बस यही व्यवहार हो, तन चिता पर नाश होने को सजे।
 

मुक्त फणियों के सदृश कच-जाल हों, कामियों को शीघ्र डसने के लिए,
अरुणिमायुत हाथ उनके काल हों, सत्य का अस्तित्व रखने के लिए।

मृत्यु के निकट



आत्म प्रशंसा त्याज्य है, पर निंदा भी व्यर्थ,
दोनों मरण समान हैं, समझें इसका अर्थ।

एक-एक क्षण आयु का, सौ-सौ रत्न समान,
जो खोते हैं व्यर्थ ही, वह मनुष्य नादान।

इच्छा अजर अनंत है, अभिलाषा अति दुष्ट,
जो वीतेच्छा है वही, कहलाता संतुष्ट।

जिन कार्यों को पूर्ण कर, अंतर्मन हो शांत,
वही कर्म स्वीकार्य है, अन्य कर्म दिग्भ्रांत।

दुखी व्यक्तियों को सदा, खोजा करता कष्ट,
है यदि चित्त प्रसन्न तो, पल में कष्ट विनष्ट।

हर क्षण हम सब जा रहे, मृत्यु के निकट और,
इसीलिए सत्कर्म कर, करें सुरक्षित ठौर।

गुणीजनों के पास ही, गुण का होता पोष,
निर्गुण जन के निकट ये, बन जाते हैं दोष।

                                                                                      -महेन्द्र वर्मा

नए वर्ष से अनुनय

ढूँढो कोई कहाँ पर रहती मानवता,
मानव से भयभीत सहमती मानवता।

रहते हैं इस बस्ती में पाषाण हृदय,
इसीलिए आहत सी लगती मानवता।

मानव ने मानव का लहू पिया देखो,
दूर खड़ी स्तब्ध लरजती मानवता।

है कोई इस जग में मानव कहें जिसे,
पूछ-पूछ कर रही भटकती मानवता।

मेरे दुख को अनदेखा न कर देना
नए वर्ष से अनुनय करती मानवता।

                                                           
-महेन्द्र वर्मा
नव-वर्ष शुभकर हो !

सफेद बादलों की लकीर



1.
 

कितनी धुँधली-सी
हो गई हैं
छवियाँ
या
आँखों में
भर आया है कुछ

शायद
अतीत की नदी में
गोता लगा रही हैं
आँखें !

2.

विवेक ने कहा-
हाँ,
यही उचित है !
........
अंतर्मन का प्रकाश
कभी काला नहीं होता !

3.

दिन गुजर गया
विलीन हो गया
दूर क्षितिज में
एक बिंदु-सा
लेकिन
अपने पैरों में
बँधे राकेट के धुएँ से
सफेद बादलों की लकीर
उकेर गया
मन के आकाश में !

                                        -महेन्द्र वर्मा


सुख-दुख से परे

एकमात्र सत्य हो
तुम ही

तुम्हारे अतिरिक्त
नहीं है अस्तित्व
किसी और का

सृजन और संहार
तुम्ही से है
फिर भी
कोई जानना नहीं चाहता
तुम्हारे बारे में !

कोई तुम्हें
याद नहीं करता    
आराधना नहीं करता
कोई भी तुम्हारी

कितने उपेक्षित-से
हो गए हो तुम
पहले तो
ऐसा नहीं था !!

भले ही तुम
सुख-दुख से परे हो
किंतु,
मैं तुम्हारा दुख
समझ सकता हूं
ऐ ब्रह्म !!!

 

                                                   -महेन्द्र वर्मा


शब्द रे शब्द, तेरा अर्थ कैसा


‘मेरे कहने का ये आशय नहीं था, आप गलत समझ रहे हैं।‘
यह एक ऐसा वाक्य है जिसका प्रयोग बातचीत के दौरान हर किसी को करने की जरूरत पड़ ही जाती है।
क्यों जरूरी हो जाता है ऐसा कहना ?

उत्तर स्पष्ट है-बोलने वाले ने अपना विचार व्यक्त करने के लिए शब्दों का प्रयोग जिन अर्थों में किया, सुनने वाले ने उन शब्दों को भिन्न अर्थों में सुना और समझा।

किसी शब्द का अर्थ बोलने और सुनने वाले के लिए भिन्न-भिन्न क्यों हो जाता है ?
दरअसल, शब्दों के अर्थ 3 बिंदुओं पर निर्भर होते हैं-
1.    संदर्भ
2.    मनःस्थिति
3.    अर्थबोध क्षमता

बोलने वाला  अपनी बात एक विशिष्ट संदर्भ में कहता है। आवश्यक नहीं कि सुनने वाला ठीक उसी संदर्भ में अर्थ ग्रहण करे। वह एक अलग संदर्भ की रचना कर लेता है।

मनःस्थिति और मनोभाव शब्दों के लिए एक विशिष्ट अर्थ का निर्माण करते हैं। बोलने और सुनने वाले की मनःस्थिति और मनोभावों में अंतर होना स्वाभाविक है।

शब्दों के अर्थबोध की क्षमता अध्ययन, अनुभव और बुद्धि पर निर्भर होती है। जाहिर है, ये तीनों विशेषताएं बोलने और सुनने वाले में अलग-अलग होंगी।

तो, क्या शब्दों के निश्चित अर्थ नहीं होते ?
गणित के प्रतीकों के अर्थ निश्चित होते हैं। ऐसे निश्चित अर्थ भाषाई शब्दों के नहीं हो सकते।

अर्थ परिवर्तन की यह स्थिति केवल वाचिक संवाद में ही नहीं बल्कि लिखित और पठित शब्दों के साथ भी उत्पन्न होती है।

जीवन में सुख और दुख देने वाले अनेक कारणों में से एक ‘शब्द‘ भी है।

शब्दों के इस छली स्वभाव को आपने भी महसूस किया होगा !

                                                                                                                                                    -महेन्द्र वर्मा

नवगीत



शब्दों से बिंधे घाव
उम्र भर छले,
आस-श्वास पीर-धीर
मिल रहे गले।

सुधियों के दर्पण में
अलसाये-से साये,
शुष्क हुए अधरों ने
मूक छंद फिर गाए,

हृद के नेहांचल में
स्वप्न-सा पले।

उज्ज्वल हो प्रात-सा
युग का नव संस्करण,
चिंतन के सागर में
सुलझन का अवतरण,

रावण के संग-संग
कलुष सब जले।

-महेन्द्र वर्मा

क्या हुआ

बाग दरिया झील झरने वादियों का क्या हुआ,
ढूंढते थे सुर वहीं उन माझियों का क्या हुआ।

कह रहे कुछ लोग उनके साथ है कोई नहीं,
हर कदम चलती हुई परछाइयों का क्या हुआ।

जंग जारी है अभी तक न्याय औ अन्याय की,
राजधानी में भटकती रैलियों का क्या हुआ।

मजहबों के नाम पर बस खून की नदियां बहीं,
जो कबीरा ने कही उन साखियों का क्या हुआ।
 

है जुबां पर और  उनके बगल में कुछ और है,
सम्पदा को पूजते सन्यासियों का क्या हुआ।

बेबसी लाचारियों से हारती उम्मीदगी,
दिल जिगर से फूटती चिन्गारियों का क्या हुआ।

लुट रहा यह देश सुबहो-शाम है यह पूछता,
जेल में सुख भोगते आरोपियों का क्या हुआ।

                                                         -महेन्द्र वर्मा

संत किसन दास

राजस्थान के प्रमुख संतों में से एक थे- संत किसन दास। इनका जन्म वि.सं. 1746, माघ शुक्ल 5 को नागौर जनपद के  टांकला नामक स्थान में हुआ। इनके पिता का नाम दासाराम तथा माता का नाम महीदेवी था। ये मेघवंशी थे। वि.सं. 1773, वैशाख शुक्ल 11 को इन्होंने संत दरिया साहब से दीक्षा ग्रहण की।
 
संत किसनदास रचित पदों की संख्या लगभग 4000 है जो साखी, चौपाई, कवित्त, चंद्रायण, कुंडलियां,आदि छंदों में लिखी गई हैं। इनके प्रमुख शिष्यों की संख्या 21 थी जिनमें से 11 ने साहित्य रचना भी की।
 
वि.सं. 1835, आषाढ़ शुक्ल 7 को टांकला में इन्होंने देहत्याग किया।
 
प्रस्तुत है, संत किसनदास रचित कुछ साखियां-

बाणी कर कहणी कही, भगति पिछाणी नाहिं,
किसना गुरु बिन ले चला, स्वारथ नरकां माहिं।

किसना जग फूल्यो फिरै, झूठा सुख की आस,
ऐसो जग में जीवणे, पाणी माहिं पतास।

बेग बुढ़ापो आवसी, सुध-बुध जासी छूट,
किसनदास काया नगर, जम लै जासी लूट।

दिवस गमायो भटकता, रात गमायो सोय,
किसनदास इस जीव को, भलो कहां से होय।

कुसंग कदै ना कीजिए, संत कहत है टेर,
जैसे संगत काग की, उड़ती मरी बटेर।

दया धरम संतोस सत, सील सबूरी सार,
किसन दास या दास गति, सहजां मोख दुवार।

उज्जल चित उज्जल दसा, मुख का अमृत बैण,
किसनदास वै नित मिलौ, रामसनेही सैण।

दुख का हो संहार




उद्यम-साहस-धीरता, बुद्धि-शक्ति-पुरुषार्थ,
ये षट्गुण व्याख्या करें, मानव के निहितार्थ।

जब स्वभाव से भ्रष्ट हो, मनुज करे व्यवहार,
उसे अमंगल ही मिले, जीवन में सौ बार।

जो अपने को मान ले, ज्ञानी सबसे श्रेष्ठ,
प्रायः कहलाता वही, मूर्खों में भी ज्येष्ठ।

विनम्रता के बीज से, नेहांकुर उत्पन्न,
सद्गुण शाखा फैलती, प्रेम-पुष्प संपन्न।

वाणी पर संयम सही, मन पर हो अधिकार,
जीवन में सुख-शांति हो, दुख का हो संहार।

                                                                            -महेन्द्र वर्मा

ज्ञान हो गया फकीर

नैतिकता कुंद हुई
न्याय हुए भोथरे,
घूम रहे जीवन के
पहिए रामासरे।

भ्रष्टों के हाथों में
राजयोग की लकीर,
बुद्धि भीख माँग रही
ज्ञान हो गया फकीर।

घूम रहे बंदर हैं
हाथ लिए उस्तरे।

धुँधला-सा दिखता है
आशा का नव विहान,
क्षितिज पार तकते हैं
पथराए-से किसान।

सोना उपजाते हैं
लूट रहे दूसरे।
                                                                -महेन्द्र वर्मा

इस वर्ष दो भाद्रपद क्यों ? --- तेरह महीने का वर्ष



                   अभी भादों का महीना चल रहा है। इसके समाप्त होने के बाद इस वर्ष कुंवार का महीना नहीं आएगा बल्कि भादों का महीना दुहराया जाएगा। दो भादों होने के कारण वर्तमान वर्ष अर्थात विक्रम संवत् 2069 तेरह महीनों का है। इस अतिरिक्त तेरहवें मास को अधिक मास, अधिमास, लौंद मास, मलमास या पुरुषोत्तम मास भी कहते हैं।
                   अधिमास होने की घटना दुर्लभ नहीं है, प्रत्येक 32-33 महीनों के पश्चात एक अधिमास का होना अनिवार्य है। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि विश्व की किसी अन्य कैलेण्डर पद्धति में 13 महीने का वर्ष नहीं होता। हिन्दू कैलेण्डर में किसी वर्ष 13 महीने निर्धारित किए जाने की परंपरा खगोलीय घटनाओं के प्रति विज्ञानसम्मत दृष्टिकोण तथा गणितीय गणना पर आधारित है।
                     अधिमास का सबसे प्राचीन उल्लेख ऋग्वेद में प्राप्त होता है, जिसका रचनाकाल 2500 ई. पूर्व माना जाता है। ऋग्वेद (1.25.8) में तेरहवें मास का वर्णन इस प्रकार आया है-‘‘जो व्रतालंबन कर अपने-अपने फलोत्पादक बारह महीनों को जानते हैं और उत्पन्न होने वाले तेरहवें मास को भी जानते हैं...।‘‘ वाजसनेयी संहिता (22.30) में इसे मलिम्लुच्च तथा संसर्प कहा गया है किंतु (22.31) में इसके लिए अंहसस्पति शब्द का प्रयोग हुआ है।
                      तैत्तिरीय ब्राह्मण (3.10.1) में तेरहवें महीने का नाम महस्वान दिया गया है। ऐतरेय ब्राह्मण (3.1) में अधिमास का वर्णन इस प्रकार है - ‘‘...उन्होंने उस सोम को तेरहवें मास से मोल लिया था इसलिए निंद्य है...।‘‘ नारद संहिता में अधिमास को संसर्प कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि किसी वर्ष में तेरहवें मास को सम्मिलित किए जाने की परंपरा वैदिक युग या उसके पूर्व से ही चली आ रही है।
                       अधिक मास होने का सारा रहस्य चांद्रमास और सौरमास  के कालमान में तालमेल स्थापित किए जाने में निहित है। पूर्णिमा से अगली पूर्णिमा या अमावस्या से अगली अमावस्या तक के समय को चांद्रमास कहते हैं। सूर्य एक राशि (रविमार्ग का बारहवां भाग यानी 30 अंश की परिधि) पर जितने समय तक रहता है वह सौरमास कहलाता है। 12 चांद्रमासों के वर्ष को चांद्रवर्ष और 12 सौर मासों के वर्ष को सौरवर्ष कहते हैं। इन दोनों वर्षमानों की अवधि समान नहीं है। एक सौरवर्ष की अवधि लगभग 365 दिन 6 घंटे होती है जबकि एक चांद्रवर्ष की अवधि लगभग 354 दिन 9 घंटे होती है। अर्थात चांद्रवर्ष सौरवर्ष से लगभग 11 दिन छोटा होता है। यह अंतर 32-33 महीनों में एक चांद्रमास के बराबर हो जाता है। इस अतिरिक्त तेरहवें चांद्रमास को ही अधिमास के रूप में जोड़कर चांद्रवर्ष और सौरवर्ष में तालमेल स्थापित किया जाता है ताकि दोनों लगभग साथ-साथ चलें।
                       अब यह स्पष्ट करना है कि किसी चांद्रवर्ष के किस मास को अधिमास निश्चित किया जाए। इसके निर्धारण के लिए प्राचीन हिन्दू खगोल शास्त्रियों ने कुछ गणितीय और वैज्ञानिक आधार निश्चित किए हैं तथा चांद्रमास को सुपरिभाषित किया है। इसे समझने के लिए कुछ प्रारंभिक तथ्यों को ध्यान में रखना होगा -
1.    चांद्रमासों का नामकरण दो प्रकार से प्रचलित है। पूर्णिमा से पूर्णिमा तक की अवधि पूर्णिमांत मास और अमावस्या से अमावस्या तक की अवधि को अमांत मास कहते हैं। अधिमास निर्धारित करने के लिए केवल अमांत मास पर ही विचार किया जाता है।
2.    सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण को संक्रांति कहते हैं।
3.    सभी 12 सौरमासों की अवधि बराबर नहीं होती। सौरमास का अधिकतम कालमान सौर आषाढ़ में 31 दिन, 10 घंटे, 53 मिनट और न्यूनतम मान पौष मास में 29 दिन, 10 घंटे, 40 मिनट का होता है। जबकि चांद्रमास का अधिकतम मान 29 दिन, 19 घंटे, 36 मिनट और न्यूनतम मान 29 दिन, 5 घंटे, 54 मिनट है।
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर अधिमास को निम्न दो प्रकार से परिभाषित किया गया है -
क.    जब किसी चांद्रमास में सूर्य की संक्रांति नहीं होती तो वह मास अधिमास होता है।
ख.    जब किसी सौरमास में दो अमावस्याएं घटित हों तब दो अमावस्याओं से प्रारंभ होने वाले चांद्रमासों का एक ही नाम होगा। इनमें से पहले मास को अधिमास और दूसरे को निज या शुद्ध मास कहा जाता है।
                  इस वर्ष होने वाले दो भादों को उदाहरण के रूप में लें -
सूर्य की सिंह संक्रांति 16 अगस्त को और कन्या संक्रांति 16 सितम्बर को(शाम 5:52 बजे से) है। इन तारीखों के मध्य 18 अगस्त से 16 सितम्बर (प्रातः 7:40 बजे) तक की अवधि के चांद्रमास में सूर्य की कोई संक्रांति नहीं है। इसलिए यह चांद्रमास अधिमास होगा।
                    पुनः, सूर्य की सिंह राशि में रहने की अवधि ( 16 अगस्त से 16 सितम्बर, शाम 5:52 बजे तक) के मध्य दो अमावस्याएं, क्रमशः 17 अगस्त और 16 सितम्बर (प्रातः 7:40 बजे) को घटित हो रही हैं। अतः इन अमावस्याओं को समाप्त होने वाले दोनों चांद्रमासों का नाम भादों होगा। इनमें से एक को प्रथम भाद्रपद तथा दूसरे को द्वितीय भादपद्र कहा जाएगा।
                     हिन्दू काल गणना पद्धति में अधिमास की व्यवस्था प्राचीन हिन्दू खगोल शास्त्रियों के ज्ञान की श्रेष्ठता को सिद्ध करता है। इस संबंध में प्रसिद्ध गणितज्ञ डाॅ. गोरख प्रसाद ने लिखा है -‘‘ कई बातें, जो अन्य देशों में मनमानी रीति से तय कर ली गई थीं, भारत में वैज्ञानिक सिद्धांतों पर निर्धारित की गई थीं। पंचांग वैज्ञानिक ढंग से बनता था जिसकी तुलना में यूरोपीय पंचांग भी अशिष्ट जान पड़ता है।‘‘

  • (मेरे एक शोध-पत्र का सारांश)

                                                                                                                                     -महेन्द्र वर्मा


आत्मा का आहार


दुनिया कैसी हो गई, छोड़ें भी यह जाप,
सब अच्छा हो जायगा,खुद को बदलें आप।

दोष नहीं गुण भी जरा, औरों की पहचान,
अपनी गलती खोजिए, फिर पाएं सम्मान।

धन से यदि सम्पन्न हो, पर गुण से कंगाल,
इनका संग न कीजिए, त्याग करें तत्काल।

कवच नम्रता का पहन, को कर सके बिगार,
रुई कभी कटती नहीं, वार करे तलवार।

सद्ग्रंथों को जानिए, आत्मा का आहार,
मन के दोषों का करे, बिन औषध परिहार।

जो करता अन्याय है, वह करता अपराध,
पर सहना अन्याय का, वह अपराध अगाध।
                                                                        -महेन्द्र वर्मा

सोचिए ज़रा



कितनी लिखी गई किताब सोचिए ज़रा,
क्या मिल गए सभी जवाब सोचिए ज़रा।

काँटों बग़ैर ज़िंदगी कितनी अजीब हो,
अब खिलखिला रहे गुलाब सोचिए ज़रा।

ज़र्रा है तू अहम विराट कायनात का,
भीतर उबाल आफ़ताब सोचिए ज़रा।

चले उकेर के हथेलियों पे हम लकीर,
तकदीर माँगता हिसाब सोचिए ज़रा।
 

दरपन दिखा रहा तमाम शक्ल इसलिए,
उसने पहन रखा नक़ाब सोचिए ज़रा


                                                    -महेन्द्र वर्मा

आगत की चिंता नहीं



धनमद-कुलमद-ज्ञानमद, दुनिया में मद तीन,
अहंकारियों से मगर, मति लेते हैं छीन।

गुणी-विवेकी-शीलमय, पाते सबसे मान,
मूर्ख किंतु करते सदा, उनका ही अपमान।

जला हुआ जंगल पुनः, हरा-भरा हो जाय,
कटुक वचन का घाव पर, भरे न कोटि उपाय।

चिंतन और विमर्श में, गुणीजनों का नाम,
व्यर्थ कलह करना मगर, मूर्खों का है काम।

मूर्ख-अहंकारी-पतित, क्रोधी अरु मतिहीन,
इनका संग न कीजिए, कहते लोग कुलीन।

जो जैसा भोजन करे, वैसा ही मन जान,
गुण उसके अनुरूप हो, वैसी हो संतान।

आगत की चिंता नहीं, गत का करें न शोक,
वर्तमान सुध लीजिए, सुख पाएं इहलोक।


                                                                                        -महेन्द्र वर्मा

उम्र भर



जख़्म सीने में पलेगा उम्र भर,
गीत बन-बन कर झरेगा उम्र भर।

घर का हर कोना हुआ है अजनबी,
आदमी ख़ुद से डरेगा उम्र भर।

जो अंधेरे को लगा लेते गले,
नूर उनको क्या दिखेगा उम्रं भर।

दिल के किस कोने में जाने कब उगा,
ख़्वाब है मुझको छलेगा उम्र भर।

कर रहा कुछ और कहता और है,
वो मुखौटा ही रखेगा उम्र भर।

छल किया मैंने मगर नेकी समझ,
याद वो मुझको करेगा उम्र भर।

वक़्त की परवाह जिसने की नहीं,
हाथ वो मलता रहेगा उम्र भर।

                                                                     -महेन्द्र वर्मा

शुक्र का पारगमन- एक दुर्लभ घटना



                                   ‘भोर का तारा‘ या ‘सांध्य तारा‘ के रूप में सदियों से परिचित शुक्र ग्रह अर्थात ‘सुकवा‘ 6 जून, 2012 को एक विचित्र हरकत करने जा रहा है। आम तौर पर पूर्वी या पश्चिमी आकाश में दिखाई देने वाला यह ग्रह 6 जून को मध्य आकाश में दिखाई देगा, वह भी दिन में ! अन्य दिनों में हम शुक्र के सूर्य से प्रकाशित भाग को चमकता हुआ देखते हैं लेकिन उस दिन शुक्र का अंधेरा भाग हमारी ओर होगा, फिर भी उसे हम ‘देख‘ सकेंगे। जब सूर्य शुक्र के सामने से गुजरेगा तो शुक्र हमें सूर्य पर छोटे-से काले वृत्त के रूप में दिखाई देगा। एक अद्भुत दृश्य होगा वह-जैसे सूरज के चेहरे पर काजल का सरकता हुआ टीका।

                                         खगोल शास्त्र की शब्दावली में इस घटना को ‘शुक्र का पारगमन‘ कहते हैं। दुर्लभ कही जाने वाली यह घटना सौरमंडल के करोड़ों वर्षों के इतिहास में लाखों बार घट चुकी है लेकिन मनुष्य जाति इसे केवल छह बार ही देख पाई है। हम सौभाग्यशाली हैं कि इक्कीसवीं सदी के इस दूसरे और अंतिम शुक्र पारगमन को देख सकेंगे। बीसवीं सदी में ऐसा एक बार भी नहीं हुआ। दरअसल शुक्र पारगमन गण्तिीय गणना के अनुसार कभी 105 और कभी  121 वर्ष 6 माह बाद घटित होता है लेकिन आठ वर्षों के अंतराल में दो बार। पिछली बार इस घटना को 6 जून, 2004 को देखा गया ।

                                    शुक्र पारगमन के बारे में सबसे पहले जर्मन गणितज्ञ जोन्स केपलर ने बताया कि 1631 ई. में शुक्र ग्रह सूर्य के सामने से गुजरेगा और इसे पृथ्वी से देखा जा सकता है। किंतु इस घटना को न तो वह स्वयं देख सका न कोई और। पारगमन के एक वर्ष पूर्व 1630 ई. में केपलर का देहांत हो गया। इनकी गणितीय गणना में कुछ त्रुटि हो जाने के कारण वैज्ञानिक भी सही समय पर शुक्र-संक्रमण नहीं देख सके।
                                        
                                      आठ वर्ष बाद दुहराई जाने वाली इस घटना को लेकर अंग्रेज खगोल शास्त्री जेरेमिया होराक्स काफी उत्सुक था और पहले से सतर्क भी। उसने 4 दिसंबर 1639 को शुक्र पारगमन को लगभग 7 घंटे तक देखा। किसी मनुष्य द्वारा शुक्र पारगमन देखे जाने का यह पहला अवसर था। उसके बाद 6 जून 1761, 3 जून 1769, 9 दिसम्बर 1874, 6 दिसम्बर 1882 और 8 जून 2004 के शुक्र पारगमन को अनेक वैज्ञानिकों और खगोल प्रेमियों ने देखा।

                                       चूंकि शुक्र पारगमन एक दुर्लभ घटना है इसलिए दुनियादारी के सब काम छोड़कर खगोलशास्त्री किसी भी तरह उसे देखना चाहते हैं। इसी संदर्भ में एक रोचक और मार्मिक प्रसंग उल्लेखनीय है। सन् 1761 ई. का शुक्र पारगमन भारत में अच्छी तरह देखा जा सकता था। एक फ्रांसीसी खगोलशास्त्री जी. लेजेन्तिल इसे देखने के लिए पानी के जहाज से पांडिचेरी के लिए रवाना हुआ। जब वह पांडिचेरी पहुंचा तो ब्रिटिश सैनिकों ने उसे गिरफतार कर लिया क्योंकि उस समय ब्रिटेन और फ्रांस के बीच युद्ध जारी था। लेजेन्तिल शुक्र पारगमन नहीं देख सका। 1769 ई. के अगले पारगमन को देखने के लिए वह 8 वर्ष भारत में रहा। 3 जून 1769 ई. के दिन लेजेन्तिल को फिर निराश होना पड़ा। बादल छाए रहने के कारण उस दिन सूर्य दिखा ही नहीं। हताश लेजेन्तिल पेरिस के लिए रवाना हुआ। 1874 ई. का अगला पारगमन देखना अब उसके जीवन में संभव नहीं था। दुर्भाग्य ने अभी उसका पीछा नहीं छोड़ा था। रास्ते में दो बार उसका जहाज क्षतिग्रस्त हुआ। जब वह पेरिस पहुंचा तो उसके परिजन उसे मृत समझकर उसकी सम्पत्ति का बंटवारा करने में लगे थे।

                                   1761 ई. के शुक्र पारगमन का अवलोकन रूसी वैज्ञानिक मिखाइल लोमोनोसोव ने सूक्ष्मता से किया और पहली बार दुनिया को बताया कि शुक्र ग्रह पर वायुमंडल भी है। इस पारगमन को दुनिया के हजारों वैज्ञानिकों ने देखा लेकिन शुक्र पर वायुमंडल होने की जानकारी किसी को नहीं हुई। आश्चर्य की बात यह थी कि लोमोनोसोव ने इस घटना का अवलोकन किसी वेधशाला से नहीं बल्कि अपने कमरे की खिड़की से अपनी ही बनाई दूरबीन से किया था।

                                       शुक्र पारगमन की घटना ने वैज्ञानिकों को सदैव नई खोजों के लिए प्रेरित किया है। 200 साल पहले पृथ्वी से सूर्य की दूरी जानना वैज्ञानिकों के लिए एक समस्या थी। जेम्स ग्रेगोरी ने सुझाव दिया कि शुक्र पारगमन की घटना से पृथ्वी से सूर्य की दूरी का परिकलन किया जा सकता है। एडमंड हेली ने 1874 और 1882 में शुक्र पारगमन के समय प्रेक्षित आकड़ों से सूर्य की दूरी का परिकलन करने का प्रयास किया था। प्राप्त परिणाम बहुत हद तक सही था।

                                        शुक्र पारगमन हमारे लिए भले ही अद्भुत घटना हो लेकिन अंतरिक्ष के संदर्भ में यह एक सामान्य घटना है। यह लगभग वेसी ही घटना है जैसे सूर्यग्रहण। सूर्यग्रहण के समय सूर्य, पृथ्वी और चन्द्रमा एक सीध में होते हैं और चन्द्रमा बीच में होता है। चन्द्रमा की ओट में हो जाने के कारण सूर्य का आंशिक या कभी-कभी पूरा भाग ढंक जाता है। शुक्र पारगमन के समय सूर्य, शुक्र और पृथ्वी एक सीध में होते हैं, शुक्र बीच में होता है। इस स्थिति में शुक्र अपने दृश्य आकार के बराबर का सूर्य का भाग ढंक लेता है। यद्यपि सूर्य की तुलना में शुक्र का दृश्य आकार 1500 गुना छोटा है- एक बड़े तरबूज के सामने मटर के दाने जैसा।

                                    6 जून 2012 को होने वाला शुक्र पारगमन भारत में पूर्वाह्न लगभग 5 बजकर 20 मिनट पर प्ररंभ होगा और लगभग 10 बजकर 20 मिनट पर समाप्त होगा। सूर्य की चकती पर शुक्र ग्रह छोटी सी काली बिंदी के रूप में एक चापकर्ण बनाते हुए गुजरेगा। यह नजारा लगभग 5 घंटे तक देखा जा सकेगा।
   
                                        शुक्र पारगमन हमें हर वर्ष दिखाई देता यदि शुक्र और पृथ्वी के परिक्रमा पथ एक ही सममतल पर होते किंतु ऐसा नहीं है। शुक्र और पृथ्वी के परिक्रमा पथों के मध्य 3 अंश का झुकाव है। यह झुकाव और शुक्र तथा पृथ्वी की गतियां शुक्र पारगमन को दुर्लभ बनाती हैं।
                                    
                                           6 जून को प्रकृति की इस अनोखी घटना को मानकीकृत फिल्टर से अवश्य देखें। शुक्र को जब आप सूर्य के सामने से गुजरता हुआ देखें तो शुक्र के साहस को सराहिए मत क्योंकि वह हमेशा की तरह सूर्य से लगभग 10 करोड़ कि.मी. दूर होगा। अंत में एक बात और, यदि 6 जून को दिन भर बादल छाए रहें तो इस  शताब्दी की तीन-चार पीढ़ी शुक्र पारगमन को नहीं देख पाएगी क्योंकि अगला शुक्र पारगमन सन् 2117 ई. में घटित होगा।

                                                                                                                                    -महेन्द्र वर्मा

हँसी बहुत अनमोल


कर प्रयत्न राखें सभी, मन को सदा प्रसन्न,
जो उदास रहते वही, सबसे अधिक विपन्न।

गहन निराशा मौत से, अधिक है ख़तरनाक,
धीरे-धीरे जि़ंदगी, कर देती है ख़ाक।

वाद-विवाद न कीजिए, कबहूँ मूरख संग,
सुनने वाला ये कहे, दोनों के इक ढंग।

जो जलते हैं अन्य से, अपना करते घात,
अपने मन को भूनकर, खुद ही खाए जात।

उन्नति चाहें आप तो, रखें न इनको रंच,
ईष्र्या-कटुता-द्वेष-भय, निंदा-नींद-प्रपंच।

नहिं महत्व कोई मनुज, मरता है किस भाँति,
पर महत्व की बात यह, जीया है किस भाँति।

हँसी बहुत अनमोल पर, मिल जाती बेमोल,
देती दिल की गाँठ को, आसानी से खोल।
                                                                                    -महेन्द्र वर्मा

दो कविताएँ


1.
मैं ही
सही हूँ
शेष सब गलत हैं
ऐसा तो
सभी सोचते हैं
लेकिन ऐसा सोचने वाले
कुछ लोग
अनुभव करते हैं
अतिशय दुख का
क्योंकि
शेष सब लोग
लगे हुए हैं
सही को गलत
और गलत को सही
सिद्ध करने में

2.
मुझे
एक अजीब-सा
सपना आया
मैंने देखा
एक जगह
भ्रष्टाचार की
चिता जल रही थी
लोग खुश थे
हँस-गा रहे थे
अमीर-गरीब
गले मिल रहे थे
सभी एक-दूसरे से
राम-राम कह रहे थे
बगल में
छुरी भी नहीं थी

सपने
सच हों या न हों
पर कितने अजीब होते हैं
है न ?



                                                        -महेन्द्र वर्मा

सूरज: सात दोहे



सूरज सोया रात भर, सुबह गया वह जाग,
बस्ती-बस्ती घूमकर, घर-घर बाँटे आग।

भरी दुपहरी सूर्य ने, खेला ऐसा दाँव,
पानी प्यासा हो गया, बरगद माँगे छाँव।

सूरज बोला  सुन जरा, धरती मेरी बात,
मैं ना उगलूँ आग तो, ना होगी बरसात।

सूरज है मुखिया भला, वही कमाता रोज,
जल-थल-नभचर पालता, देता उनको ओज।

पेड़ बाँटते छाँव हैं, सूरज बाँटे धूप,
धूप-छाँव का खेल ही, जीवन का है रूप।

धरती-सूरज-आसमाँ, सब करते उपकार,
मानव तू बतला भला, क्यों करता अपकार।

जल-जल कर देता सदा, सबके मुँह में कौर,
बिन मेरे जल भी नहीं, मत जल मुझसे और।

                                                                                 -महेन्द्र वर्मा

हर तरफ


वायदों की बड़ी बोलियाँ हर तरफ,
भीड़ में बज रही तालियाँ हर तरफ।

गौरैयों की चीं-चीं कहीं खो गई,
घोसलों में जहर थैलियाँ हर तरफ।

वो गया था अमन बाँटने शहर में,
पर मिलीं ढेर-सी गालियाँ हर तरफ।

भूख से मर रहे हैं मगर फिंक रहीं
व्यंजनों से भरी थालियाँ हर तरफ।

मन का पंछी उड़े 
भी तो कैसे उड़े,
बाँधता है कोई जालियाँ हर तरफ।

एक ही पेड़ से सब उगी हैं मगर,
द्वेष की फैलती डालियाँ हर तरफ।

विचारों की आँधी करो कुछ जतन,
गिरे क्रांति की बिजलियाँ हर तरफ।

                                                                -महेन्द्र वर्मा

बस इतनी सी बात



जल से काया शुद्ध हो, सत्य करे मन शुद्ध,
ज्ञान शुद्ध हो तर्क से, कहते सभी प्रबुद्ध।

धरती मेरा गाँव है, मानव मेरा मीत,
सारा जग परिवार है, गाएँ सब मिल गीत।


ज्ञानी होते हैं सदा, शांत-धीर-गंभीर,
जहाँ नदी में गहनता, जल अति थिर अरु धीर।
 

जीवन क्या है जानिए, ना शह है ना मात,
मरण टले कुछ देर तक, बस इतनी सी बात।

कभी-कभी अविवेक से, हो जाता अन्याय,
अंतर की आवाज से, होता सच्चा न्याय।

तीन व्यक्तियों का सदा, करिए नित सम्मान,
मात-पिता-गुरु पूज्य हैं, सब से बड़े महान।


यों समझें अज्ञान को, जैसे मन की रात,
जिसमें न तो चाँद है, न तारे मुसकात।

                           
                                                                         -महेन्द्र वर्मा

धूप-हवा-जल-धरती-अंबर



किसे कहोगे बुरा-भला है,
हर दिल में तो वही ख़ुदा है।

खोजो उस दाने को तुम भी,
जिस पर तेरा नाम लिखा है।

शायद रोया बहुत देर तक,
उसका चेहरा निखर गया है।

ख़ून भले ही अलग-अलग हो,
आँसू सबका एक बहा है।

उसने दी है मुझे दुआएँ,
सब कुछ भला-भला लगता है।

गीत प्रकृति का कभी न गाया,
इतने दिन तक व्यर्थ जिया है।

धूप-हवा-जल-धरती-अंबर,
सबके जी में यही बसा है।
                                                     


                                               -महेन्द्र वर्मा

जहाँ प्रेम सत्कार हो

युवा-शक्ति मिल कर करे, यदि कोई भी काम,
मिले सफलता हर कदम, निश्चित है परिणाम।

जिज्ञासा का उदय ही, ज्ञान प्राप्ति का स्रोत,
इसके बिन जो भी करे, ज्ञानार्जन न होत।

अहंकार जो पालता, पतन सुनिश्चित होय,
बीज प्रेम अरु नेह का, निरहंकारी बोय।

जिह्वा के आघात में, असि से अधिक प्रभाव,
रह-रह कर है टीसता, अंतर्मन का घाव।

जीवन-मरण अबूझ है, परम्परा चिरकाल,
पुनर्जन्म पुनिमृत्यु की, कहे कहानी काल।

जैसे दीमक ग्रंथ को, कुतर-कुतर खा जाय,
तैसे चिंता मनुज को, धीरे-धीरे खाय।

जहाँ प्रेम सत्कार हो, वही सही घर-द्वार,
जहाँ द्वेष-अभिमान हो, वह कैसा परिवार।

                                                                                            
                                                                                -महेन्द्र वर्मा



मौन का सहरा हुआ हूँ


आग से गुज़रा हुआ हूँ,
और भी निखरा हुआ हूँ।

उम्र भर के अनुभवों के,
बोझ से दुहरा हुआ हूँ।

देख लो तस्वीर मेरी,
वक़्त ज्यों ठहरा हुआ हूँ।

बेबसी बाहर न झाँके,
लाज का पहरा हुआ हूँ।

आज बचपन के अधूरे, 

ख़्वाब-सा बिखरा हुआ हूँ

घुल रहा हूँ मैं किसी की
आँख का कजरा हुआ हूँ।

रेत सी यादें बिछी हैं,
मौन का सहरा हुआ हूँ।
                                      -महेन्द्र वर्मा

दोहे



बाहर के सौंदर्य को , जानो बिल्कुल व्यर्थ,
जो अंतर्सौंदर्य है, उसका ही कुछ अर्थ।

समय नष्ट मत कीजिए, गुण शंसा निकृष्ट,
जीवन में अपनाइए, जो गुण सर्वोत्कृष्ट।

चक्की जैसी आदतें, अपनाते कुछ लोग,
हरदम पीसें और को, शोर करें खुद रोग।

इतना डरते मौत से, कुछ की ये तकदीर,
जीने की शुरुआत भी, कर ना पाते भीर।

कार्य सिद्ध हो कर्म से, है यह बात अनूप,
होनहार ही होत है, आलस का ही रूप।

क्रोध लोभ या मोह को, सदा मानिए रोग,
शत्रु भयानक तीन हैं, कभी न कीजे योग।

जुगनू जैसी ख्याति है, चमके केवल दूर,
जरा निकट से देखिए, गर्मी है ना नूर।

                                                                                 
                                                                 -महेन्द्र वर्मा

ग़ज़ल: पलकों के लिए



आँख में तिरती रही उम्मीद सपनों के लिए,
गीत कोई गुनगुनाओ आज पलकों के लिए।

आसमाँ तू देख रिश्तों में फफूँदी लग गई,
धूप के टुकड़े कहीं से भेज अपनों के लिए।

है बहुत मुश्किल कि गिरकर गीत भी गाए कोई,
है मगर आसान कितना देख झरनों के लिए।

ना ज़मीं है ना हवा है और ना तितली कहीं,
आसमाँ भी गुम हुआ है आज शहरों के लिए।

बाँध कर रखिए सभी रिश्ते वगरना यूँ न हो,
छूट जाते साथ हैं कई बार बरसों के लिए।

आम की अमिया कुतरने शाम का सूरज रुका,
बँध गए कोयल युगल हैं सात जनमों के लिए।

है नहीं आसाँ गजल कहना कि मेरे यार सुन,
रूठ जाते हर्फ़ हैं कुछ  ख़ास मिसरों के लिए।

                                                                                     -महेन्द्र वर्मा