कुछ लोग




सच्चाई की बात करो तो, जलते हैं कुछ लोग,
जाने कैसी-कैसी बातें, करते हैं कुछ लोग।


धूप, चांदनी, सीप, सितारे, सौगातें हर सिम्त,
फिर भी अपना दामन ख़ाली, रखते हैं कुछ लोग।


उसके आंगन फूल बहुत है, मेरे आंगन धूल,
तक़दीरों का रोना रोते रहते हैं कुछ लोग।


इस बस्ती से शायद कोई, विदा हुई है हीर,
उलझे-उलझे, खोए-खोए, दिखते हैं कुछ लोग।


ख़ुशियां लुटा रहे जीवन भर, लेकिन अपने पास,
कुछ आंसू, कुछ रंज बचाकर, रखते हैं कुछ लोग।


इतना ही कहना था मेरा, बनो आदमी नेक,
हैरां हूं, यह सुनते ही क्यूं, हंसते हैं कुछ लोग।


जुल्म ज़माने भर का जिसने, सहन किया चुपचाप,
उसको ही मुज़रिम ठहराने लगते हैं कुछ लोग।



                                                                -महेंद्र वर्मा

सूफी संत मंसूर




सन् 858 ई. में ईरान में जन्मे सूफी संत मंसूर एक आध्यात्मिक विचारक, क्रांतिकारी लेखक और सूफी मत के पवित्र गुरु के रूप में प्रसिद्ध हुए। इनका पूरा नाम मंसूर अल हलाज था।

इनके पिता का जीवन अत्यंत सादगीपूर्ण था। बालक मंसूर पर इसका व्यापक असर हुआ। सांसारिक माया-मोह के प्रति ये विरक्त थे। इन्होंने सूफी महात्मा जुनैद बगदादी से आध्यात्म की शिक्षा ग्रहण की। बाद में अमर अल मक्की और साही अल तुस्तारी भी मंसूर के गुरु हुए।

मंसूर ने देश-विदेश की यात्राएं की। इस दौरान उन्होंने भारत और मध्य एशिया के अन्य देशों का भ्रमण किया। वे एक वर्ष तक मक्का में रहकर आध्यात्मिक चिंतन करते रहे। इसके बाद उन्होंने एक क्रांतिकारी वाक्य का उच्चारण करना शुरू कर दिया- ‘अनल हक‘, अर्थात, मैं सत्य हूं, और फिर बार-बार इस वाक्य को दुहराते रहे। ईरान के शासक ने समझा कि मंसूर स्वयं को परमात्मा कह रहा है । इसे गंभीर अपराध माना गया और उन्हें 11 वर्ष कैद की सजा दे दी गई। 

अनल हक कहने का मंसूर का आशय यह था कि जीव और परमात्मा में अभेद है। यह विचार हमारे उपनिषदों का एक सूत्र- अहं ब्रह्मास्मि के समान है।

सच बोलने वालों को नादान दुनियावी लोगों ने सदैव मौत की सजा दी है। सुकरात से रजनीश तक, सब की एक ही कहानी है। 26 मार्च, 922 ई. को संत मंसूर को अत्यंत क्रूर तरीके से अपार जन समुदाय के सामने मृत्युदण्ड दे दिया गया। पहले उनके पैर काटे गए, फिर हाथ और अंत में सिर। इस दौरान संत मंसूर निरंतर मुस्कुराते रहे, मानो कह रहे हों कि परमात्मा से मेरे मिलने की राह को काट सकते हो तो काटो।
मंसूर की आध्यात्मिक रचनाएं ‘किताब-अल-तवासीन‘ नामक पुस्तक में संकलित हैं।

प्रस्तुत है, संत मंसूर की एक आध्यात्मिक ग़ज़ल। यह रचना उर्दू में है। संत मंसूर उर्दू नहीं जानते थे इसलिए यह ग़ज़ल प्रत्यक्ष रूप से उनके द्वारा रचित नहीं हो सकती। संभव है, उनके किसी हिंदुस्तानी अनुयायी ने उनकी फ़ारसी रचना को उर्दू में अनुवाद किया हो। चूंकि ग़ज़ल में अनल हक और मक्ते में मंसूर आया है इसलिए इसे मंसूर रचित ग़ज़ल का उर्दू अनुवाद माना जा सकता है। बहरहाल, प्रस्तुत है, ये आध्यात्मिक ग़ज़ल-

अगर है शौक मिलने का, तो हरदम लौ लगाता जा,
जलाकर ख़ुदनुमाई को, भसम तन पर लगाता जा।

पकड़कर इश्क की झाड़ू, सफा कर हिज्र-ए-दिल को,
दुई की धूल को लेकर, मुसल्ले पर उड़ाता जा।

मुसल्ला छोड़, तसवी तोड़, किताबें डाल पानी में,
पकड़ तू दस्त फरिश्तों का, गुलाम उनका कहाता जा।

न मर भूखा, न रख रोज़ा, न जा मस्जिद, न कर सज्दा,
वजू का  तोड़  दे  कूजा, शराबे  शौक  पीता  जा।

हमेशा खा, हमेशा पी, न गफलत से रहो एकदम
नशे में सैर कर अपनी, ख़ुदी को तू जलाता जा।

न हो मुल्ला, न हो बह्मन, दुई की छोड़कर पूजा,
हुकुम शाहे कलंदर का, अनल हक तू कहाता जा।

कहे ‘मंसूर‘ मस्ताना, ये मैंने दिल में पहचाना,
वही मस्तों का मयख़ाना, उसी के बीच आता जा।

अन्ना दादा, वाह !


जीता जन का तंत्र है, हारे तानाशाह,
गूंज रहा चहुं ओर है, अन्ना दादा वाह।
अन्ना दादा वाह, पहन कर टोपी खादी,
असली आजादी की तुमने झलक दिखादी।
भ्रष्टाचारी दुखी कि अब उनका युग बीता,
बारह दिन का युद्ध सजग जनता ने जीता।

                                                                  -महेंद्र वर्मा

दोहे - सारे नाते नेह के



नाते इस संसार में, बनते एकाएक,
सारे नाते नेह के, नेह बिना नहिं नेक।


मन की गति कितनी अजब, कितनी है दुर्भेद,
तुरत बदलता रंग है, कोउ न जाने भेद।


मानव जीवन क्षणिक है, पल भर उसकी आयु,
लेकिन उसकी कामना, होती है दीर्घायु।


सुख के साथी बहुत हैं, होता यही प्रतीत,
दुख में रोए साथ जो, वही हमारा मीत।


क्रोधी करता है पुनः, अपने ऊपर क्रोध,
जब यथार्थ के ज्ञान का, हो जाता है बोध।


वह मनुष्य सबसे अधिक, है दरिद्र अरु दीन,
जो केवल धन ही रखे, विद्या सद्गुण हीन।


जो चाहें मिलता नहीं, मिलता अनानुकूल,
सोच सोच सब  ढो रहे, मन भर दुख सा शूल।

                                                                   -महेंद्र वर्मा

देश हमारा

,
आलोकित हो दिग्दिगंत, वह दीप जलाएं,
देश हमारा झंकृत हो, वह साज बजाएं।


जन्म लिया हमने, भारत की पुण्य धरा पर,
सकल विश्व को इसका गौरव-गान सुनाएं।


कभी दूध की नदियां यहां बहा करती थीं,
आज ज्ञान-विज्ञान-कला की धार बहाएं।


अनावृत्त कर दे रहस्य जो दूर करे भ्रम,
ऐसे सद्ग्रंथों का रचनाकार कहाएं।


गौतम से गांधी तक सबने इसे संवारा,
आओ मिल कर और निखारें मान बढ़ाएं।


भाग्य कुपित है कहते, जो हैं बैठे ठाले,
कर्मशील कर उनको जीवन-गुर सिखलाएं।


कोटि-कोटि हाथों का श्रम निष्फल न होगा,
धरती को उर्वरा, देश को स्वर्ग बनाएं।

                                                                    -महेंद्र वर्मा

गीतिका : बरसात में



धरणि धारण कर रही, चुनरी हरी बरसात में,

साजती शृंगार सोलह, बावरी बरसात में।



रोक ली है राह काले, बादलों ने किरण की,

पीत मुख वह झाँकती, सहमी-डरी बरसात में,



याद जो आई किसी की, मन हुआ है तरबतर,

तन भिगो देती छलकती, गागरी बरसात में।



एक तो बूँदें हृदय में, सूचिका सी चुभ रहीं,

क्यों किसी ने छेड़ दी फिर, बाँसुरी बरसात में।



क्रोध से बौरा गए, होंगे नदी-नाले सभी,

सोचते ही आ रही है, झुरझुरी बरसात में।



ऊपले गीले हुए, जलता नहीं चूल्हा सखी,

किंतु तन-मन क्यों सुलगता, इस मरी बरसात में


                                     
                                                                   -महेंद्र वर्मा

मैं भी इक संतूर रहा हूं।


दिल ही हूं मजबूर रहा हूं,
इसीलिए मशहूर रहा हूं।


चलता आया उसी लीक पर,
दुनिया का दस्तूर रहा हूं।


नए दौर में सच्चाई का,
चेहरा हूं, बेनूर रहा हूं।


वो नज़दीक बहुत हैं मेरे,
जिनसे अब तक दूर रहा हूं।


चोट लगी तो फूल झरे हैं,
मैं भी इक संतूर रहा हूं।


कहते हैं सब कभी किसी की,
आंखों का मैं नूर रहा हूं।


अब मुझको आना न जाना,
मैं तो बस मग़्फ़ूर रहा हूं।

.............................................
संतूर-  एक वाद्ययंत्र
मग़्फ़ूर-जिसे मोक्ष प्राप्त हो गया हो



                                          -महेंद्र वर्मा

सबसे उत्तम मित्र


ग्रंथ श्रेष्ठ गुरु जानिए , हमसे कुछ नहिं लेत,
बिना क्रोध बिन दंड के, उत्तम विद्या देत।


संगति उनकी कीजिए, जिनका हृदय पवित्र,
कभी-कभी एकांत भी सबसे उत्तम मित्र।


मन-भीतर के मैल को, धोना चाहे कोय,
नीर नयन-जल से उचित, वस्तु न दूजा कोय।


मन की चंचल वृत्ति से, बिगड़े सारे काज,
जिनका मन एकाग्र है, उनके सिर पर ताज।


करुणा के भीतर निहित, शीतल अग्नि सुधर्म,
क्रूर व्यक्ति का हृदय भी, कर देती है नर्म।


गुण से मिले महानता, ऊंचे पद से नाहिं,
भला शिखर पर बैठ कर, काग गरुड़ बन जाहि ?


मनुज सभ्यता में नहीं, उनके लिए निवास, 
जो हर क्षण दिखता रहे, खिन्न निराश उदास।


                                                                                     -महेंद्र वर्मा

संत गंगादास

महाकवि संत गंगादास का जन्म ई. सन् 1823 में मेरठ जनपद के रसूलपुर गांव में हुआ था। इनका परिवार अत्यंत संपन्न था। उस समय इनके पिता के पास 600 एकड़ जमीन थी। किंतु परिवार से विरक्ति के कारण 12 वर्ष की उम्र में ही इन्होंने बाबा विष्णुदास उदासी से शिष्यत्व ग्रहण कर लिया। सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में संत गंगादास और उनके शिष्यों का उल्लेखनीय योगदान रहा।

संत गंगादास ने 25 से अधिक काव्य ग्रंथों और सैकड़ों स्फुट पदों का सृजन कर भारतेंदु हरिश्चंद्र के बहुत पहले खड़ी बोली को साहित्यिक भाषा का दर्जा दिया। इनके द्वारा रचित प्रमुख कथा-काव्य इस प्रकार हैं- पार्वती मंगल, नल दमयंती, नरसी भगत, ध्रुव भक्त, कृष्ण जन्म, नल पुराण, राम कथा, नाग लीला, सुदामा चरित, महाभारत पदावली, बलि के पद, रुक्मणी मंगल, भक्त प्रहलाद, चंद्रावती नासिकेत, भ्रमर गीत मंजरी, हरिचंद होली, हरिचंद के पद, गिरिराज पूजा, होली पूरनमल, पूरनलाल के पद, द्रौपदी चीर आदि।

संत गंगादास का देहावसान 90 वर्ष की आयु में भाद्रपद कृष्ण 8 वि. संवत 1970 तदनुसार ई. सन् 1913 को हुआ। इनकी समाधि रसूलपुर गांव के निकट चोपला में स्थित है।

प्रस्तुत है, संत गंगादास की दो कुंडलियां-

1.
बोए पेड़ बबूल के, खाना चाहे दाख,
ये गुन मत परगट करे, मन के मन में राख।
मन के मन में राख, मनोरथ झूठे तेरे,
ये आगम के कथन, कभी फिरते न फेरे।
गंगादास कह मूढ़, समय बीती जब रोए,
दाख कहां से खाय, पेड़ कीकर के बोए।


2.
जे पर के अवगुण लखे, अपने राखे गूढ़, 
सो भगवत के चोर हैं, मंदमती जड़ मूढ़।
मंदमती जड़ मूढ़, करे निंदा जो पर की,
बाहर भरमें फिरे, डगर भूले निज घर की।
गंगादास बेगुरु पते पाए न घर के,
वो पगले हैं आप, पाप देखें जो पर के।


नवगीत

अम्बर के नैना भर आए
नीर झरे रह-रह के।


प्रात स्नान कर दिनकर निकला,
छुपा क्षणिक आनन को दिखला,

संध्या के आंचल में लाली
वीर बहूटी दहके।
अम्बर के नैना भर आए
नीर झरे रह-रह के।


दुख श्यामल घन-सा अंधियारा,
इंद्रधनुष-सा सुख उजियारा,


जीवन की हरियाली बन कर
हरा-हरा तृण महके।
अम्बर के नैना भर आए
नीर झरे रह-रह के।

                                       -महेंद्र वर्मा

संत नागरीदास


राजपाट छोड़कर सन्यास ग्रहण करने वाली विभूतियों में संत नागरी दास जी का नाम अग्रगण्य है। आज से लगभग 200 वर्ष पूर्व राजस्थान के किशनगढ़ राज्य के राजा सावंतसिंह ने वैराग्य ग्रहण कर शेष जीवन ईश्वरभक्ति और काव्य सृजन में व्यतीत किया था। 
इनका जन्म वि. सं. 1756, पौष कृष्ण 13 को हुआ था। गुरु श्री वृंदावनदेवाचार्य से इन्होंने दीक्षा प्राप्त की। गुरु की प्रेरणा से वि. सं. 1780 में संत नागरी दास जी ने सर्वप्रथम मनोरथ मंजरी नामक ग्रंथ की रचना की। इसके पश्चात आने वाले वर्षों में उन्होंने अनेक काव्यग्रंथों की रचना की, जिनमें से प्रमुख ये हैं- रसिक रत्नावली, विहार चंद्रिका, निकुंज विलास, ब्रजयात्रा, भक्तिसार, पारायणविधिप्रकाश, कलिवैराग्यलहरी, गोपीप्रेमप्रकाश, ब्रजबैकुंठतुला, भक्तिमगदीपिका, फागविहार, युगलभक्तिविनोद, बालविनोदन, वनविनोद, सुजनानंद, तीर्थानंद और वनजनप्रशंसा। इन सभी ग्रंथों का संकलन ‘नागर समुच्चय‘ नाम से प्रकाशित हो चुका है।
संत नागरी दास जी ने वि. सं. 1821 में वृंदावन में मुक्ति प्राप्त की।

प्रस्तुत हैं, संत नागरी दास जी के कुछ नीतिपरक दोहे-

जहां कलह तहं सुख नहीं, कलह सुखनि कौ सूल,
सबै कलह इक राज में, राज कलह कौ मूल।


दिन बीतत दुख दुंद में, चार पहर उत्पात,
बिपती मरि जाते सबै, जो होती नहिं रात।


मेरी मेरी करत क्यों, है यह जिमी सराय,
कइ यक डेरा करि गए, कई किए कनि आय।


द्रुम दौं लागैं जात खग, आवैं जब फल होय,
संपत के साथी सबै, बिपता के नहिं कोय।


नीको हू लागत बुरा, बिन औसर जो होय,
प्रात भई फीकी लगै, ज्यों दीपक की लोय।


शत्रु कहत शीतल वचन, मत जानौ अनुकूल,
जैसे मास बिसाख में, शीत रोग कौ मूल।


काठ काठ सब एक से, सब काहू दरसात,
अनिल मिलै जब अगर कौ, तब गुन जान्यो जात।

दोहे


दुनिया अद्भुत ग्रंथ है, पढ़िये जीवन माहिं,
एक पृष्ठ भर बांचते, जो घर छोड़त नाहिं।


दुर्जन साथ न कीजिए, यद्यपि विद्यावान,
सर्प भले ही मणि रखे, विषधर ही पहचान।


पूर्ण प्रतिष्ठा प्राप्ति में, लगते वर्ष अनेक,
पर कलंक की क्या कहें, लगता है पल एक।


प्रसन्नता को जानिए, जैसे चंदन छाप,
दूसर माथ लगाइए, उंगली महके आप।


पुष्पगंध विसरण करे, चले पवन जिस छोर,
किंतु कीर्ति गुणवान की, फैले चारों ओर।


प्रेम भाव को मानिए, सर्वश्रेष्ठ वरदान,
जीवन सुरभित हो उठे, गूंजे सुखकर गान।


व्यथा सिखाती है हमें, सीख उसे पहचान,
ग्रंथों में भी न मिले, ऐसा अनुपम ज्ञान।

                                                                    -महेन्द्र वर्मा

किसी ने हंसाया रुलाया किसी ने।


सरे बज़्म जी भर सताया किसी ने,
मेरा कर्ज सारा चुकाया किसी ने।


थकी ज़िंदगी थी सतह झील की सी,
तभी एक पत्थर गिराया किसी ने।


सुकूने-जिगर यक-ब-यक खो गया है,
या वक़्ते- फ़रागत चुराया किसी ने।


मिले नामवर हमनफ़स ज़िंदगी में,
किसी ने हंसाया रुलाया किसी ने।


वो मासूम सा ग़मज़दा लग रहा था,
कि जैसे उसे आजमाया किसी ने।


कोई कह रहा था कि इंसानियत हूं,
मगर नाम उसका मिटाया किसी ने।


दीवानगी बेतरह बढ़ चली जब,
मेरा हाल मुझको सुनाया किसी ने।

बज़्म- महफिल
वक़्ते फ़रागत- आराम का समय
नामवर- प्रसिद्ध
हमनफ़स- साथी

                                                  -महेन्द्र वर्मा

चकित हुआ हूं


तिक्त हुए संबंध सभी मैं 
व्यथित हुआ हूं,
नियति रूठ कर चली गई या,
भ्रमित हुआ हूं।
दुर्दिन में भी बांह छुड़ा कर 
चल दे ऐसे,
मित्रों के अपकार भार से 
नमित हुआ हूं।
क्षुद्रकाय तृण का बिखरा 
साम्राज्य धरा पर,
पतझड़ में भी हरा-भरा क्यों
चकित हुआ हूं।
अनुशीलन कर ग्रंथ सहस्त्रों
ज्ञात हुआ तब,
बुद्धि, विवेक, ज्ञान, कौशल से
रहित हुआ हूं।

                                         -महेन्द्र वर्मा

मानवता


ढूंढूं कहां, कहां खो जाती मानवता,
अभी यहीं थी बैठी रोती मानवता।


रहते हैं इस बस्ती में पाषाण हृदय,
इसीलिए आहत सी होती मानवता।


मानव ने मानव का लहू पिया देखो,
दूर खड़ी स्तब्ध कांपती मानवता।


दंशित हुई कुटिल भौंरों से कभी कली,
लज्जित हो मुंह मोड़ सिसकती मानवता।


है कोई इस जग में मानव कहें जिसे,
पूछ पूछ कर रही भटकती मानवता।


सुना भेड़िए ने पाला मानव शिशु को,
क्या जंगल में रही विचरती मानवता।


उसने उसके बहते आंसू पोंछ दिए,
वो देखो आ गई विहंसती मानवता।

                                                            -महेन्द्र वर्मा

नवगीत


पोखर को सोख रही
जेठ की दुपहरी,
मरुथल की मृगतृष्णा
सड़कों पर पसरी।


धू-धू कर धधक रहे
किरणों के शोले,
उग आए धरती के 
पांव पर फफोले।


शीतलता बंदी है 
सूर्य की कचहरी।
मरुथल की मृगतृष्णा
सड़कों पर पसरी।


उबली हवाओं की 
पोटली खुली है,
बुधियारिन नीम तले
छांव सी रही है।


जमुहाई लेती है
मुंह खोले गगरी।
पोखर को सोख रही
जेठ की दुपहरी।

                             -महेन्द्र वर्मा

दोहे


सगे पराये बन गये, दुर्दिन की है मार,
छाया भी संग छोड़ दे, जब आए अंधियार।


कान आंख दो दो मिले, जिह्वा केवल एक,
अधिक सुनें देखें मगर, बोलें मित अरु नेक।


दुनिया में दो ताकतें, कलम और तलवार,
किंतु कलम तलवार से, कभी न खाये हार।


मन को वश में कीजिए, मन से बारम्बार,
जैसे लोहा काटता, लोहे का औजार।


गुनियों ने बतला दिया, जीवन का यह मर्म,
गिरता-पड़ता भाग है, चलता रहता कर्म।


जग में जितने धर्म हैं, सब की अपनी रीत,
धरती कितनी नेक है, करती सबसे प्रीत।


सभी प्राणियों के लिए, अमृत आशावाद,
जैसे सूरज वृक्ष को, देता पोषण खाद।

                                                          -महेन्द्र वर्मा


रंगमंच


हित रक्षक भक्षक बन जाए क्या कर लोगे,
सुख ही दुखदायक बन जाए क्या कर लोगे।


बहिरंतर में भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व सजाए
मित्र कभी निंदक बन जाए क्या कर लोगे।


पल पल दृश्य हुए परिवर्तित धरे मुखौटे,
जीवन यदि नाटक बन जाए क्या कर लोगे।


विश्वासों के धवल वसन में छिद्र हैं इतने,
सूत्र सूत्र जालक बन जाए क्या कर लोगे।


शुभ्र विवेकवान हंसों के मध्य दंभवश ,
कागा उपदेशक बन जाए क्या कर लोगे।


शूल चुभोया अपनों ने जो कभी हृदय में
घाव वही घातक बन जाए क्या कर लोगे।

                                                                 -महेन्द्र वर्मा

अब हमारे शहर का दस्तूर है यह



घबराइये मत

इस ज़माने की चलन से चौंकिये मत,
कीजिये कुछ, थामकर सिर बैठिये मत।


आज गलियों की हवा कुछ गर्म सी है,
भूलकर भी खिड़कियों को खोलिये मत।


अब हमारे शहर का दस्तूर है यह,
हादसों के बीच रहिये भागिये मत।


मोम के घर में छिपे बैठे हुए जो,
आंच की उम्मीद उनसे कीजिये मत।



रौशनी तो झर रही है तारकों से,
अब अंधेरी रात को तो कोसिये मत।


                                                                       -महेन्द्र वर्मा




स्वामी रामतीर्थ


                   कौन थे वे ?

‘मेरे लिए तो वृक्ष की छाया मकान का काम दे सकती है,राख मेरी पोशाक का, सूखी धरती मेरे बिस्तर का और दो-चार घरों से मांगी रोटी मेरे भोजन का।‘
उक्त बातें मिशन कॉलेज लाहौर के गणित के एक प्रोफेसर ने सन् 1896 में एक पत्र में लिखी थी। ....कौन थे वे ?
एक बार उनका नाम प्रांतीय सिविल सेवा के लिए प्रस्तावित किया गया तो उन्होंने अस्वीकार कर दिया। नौकरी छोड़कर उर्दू में ‘अलिफ‘ नाम की पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया। विभिन्न तीर्थों की यात्राएं कीं। भारतीय और पाश्चात्य दर्शन ग्रंथों का अध्ययन किया। द्वारकापीठ के शंकराचार्य और स्वामी विवेकानंद के संपर्क में आए।
........कौन थे वे ?
सन् 1900 ई. में तीर्थयात्रा के दौरान अपने पास की सारी संपत्ति गंगा में बहा दी।
पत्नी को परिजनों के सहारे छोड़कर सन्यास ग्रहण किया और हिमालय की शरण में चले गए। सर्वधर्म सम्मेलन में व्याख्यान देने अमेरिका और जापान की यात्राएं कीं।.....कौन थे वे ?
अनेक लेखों-व्याख्यानों के अतिरिक्त उन्होंने अंग्रेजी में 100 और उर्दू में 150 कविताएं लिखीं। संयोग देखिए- 22 अक्टूबर, 1873 ई. को दीपावली के दिन पंजाब के गुजरांवाला जिले के मुरारीवाला गांव में उनका जन्म हुआ और 17 अक्टूबर, 1906 ई. को दीपावली के ही दिन मात्र 33 वर्ष की आयु में उन्होंने गंगा में जल समाधि ग्रहण कर ली।......कौन थे वे ?
वे महान विभूति थे- प्रसिद्ध विद्वान, संत, दार्शनिक, गणितज्ञ, और कवि स्वामी रामतीर्थ।

प्रस्तुत है, उर्दू में उनकी एक दार्शनिक भावों वाली कविता-

जब उमड़ा दरिया उल्फ़त का, हर चार तरफ आबादी है।
हर रात नई इक शादी है, हर रोज मुबारकबादी है।
ख़ुश ख़ंदा है रंगा गुल का, ख़ुश शादी शाह मुरादी है।
बन सूरज आप दरफ़्शां है, ख़ुद जंगल है,ख़ुद वादी है।
नित राहत है, नित फ़र्हत है, नित रंग नए, आजादी है।


हर रग रेशे में हर मू में, अमृत भर-भर भरपूर हुआ।
सब कुल्फ़त दूरी दूर हुई, मन शादी मर्ग से चूर हुआ।
हर बर्ग बधाइयां देता है, हर जर्रा-जर्रा तूर हुआ।
जो है सो है अपना मजहर, ख़्वाह आबी नारी बादी है।
क्या ठंडक है, क्या राहत है, क्या शादी है, आजादी है।


रिमझिम रिमझिम आंसू बरसें, यह अब्र बहारें देता है।
क्या खूब मजे की बारिश में, वह लुत्फ़ वस्ल का लेता है।
किश्ती मौजों में डूबे हैं, बदमस्त उसे कब खेता है।
यह गर्क़ाबी है जी उठना, मत झिझको उफ बरबादी है।
क्या ठंडक है क्या राहत है, क्या शादी है, आजादी है।


मातम, रंजूरी, बीमारी, गलती, कमजोरी, नादारी।
ठोकर ऊंचा नीचा मिहनत, जाती है इन पर जां वारी।
इन सब की मददों के बाइस, चश्मा मस्ती का है जारी।
गुम शीर की शीरीं तूफों में, कोह और तेशा फरहादी है।
क्या ठंडक है क्या राहत है, क्या शादी है, आजादी है।


इस मरने में क्या लज़्ज़त है, जिस मुंह की चाट लगे इसकी।
थूके हैं शाहंशाही पर, सब नेमत दौलत हो फीकी।
मय चहिए दिल सिर दे फूंको,और आग जलाओ भट्ठी की।
क्या सस्ता बादा बिकता है, ले लो का शोर मुनादी है।
क्या ठंडक है क्या राहत है, क्या शादी है, आजादी है।


दिन शब का झगड़ा न देखा, गो सूरज का चिट्ठा सिर है।
जब खुलती दीद-ए-रौशन है,हंगामा-ए-ख़्वाब कहां फिर है।
आनंद सरूर समंदर है, जिसका आगाज़ न आख़िर है।
सब राम पसारा दुनिया का, जादूगर की उस्तादी है।
नित राहत है नित फ़र्हत है, नित रंग नए, आजादी है।

संत ललित किशोरी


(हमारे देश में ऐसा भी समय था जब लोग लाखों-करोड़ों की पैतृक संपत्ति को त्याग कर सन्यासी बन जाया करते थे और आज का समय है जब लोग तथाकथित सन्यासी बन कर करोड़ों-अरबों की संपत्ति एकत्रित करने में लगे रहते हैं।)



संत ललित किशोरी का जन्म समय अज्ञात है किंतु ये भारतेंदु हरिश्चंद्र के समकालीन थे। लखनउ के प्रसिद्ध जौहरी शाह गोविंद दास के दो पुत्र हुए, शाह कुंदनलाल और शाह फुंदनलाल।  संवत 1913 विक्रमी में दोनों भाई लखनउ छोड़कर वृंदावन चले आए और भगवद्भक्ति में लीन हो गए। शाह कुंदन लाल ललित किशोरी के नाम से और शाह फुंदन लाल ललित माधुरी के नाम से भक्तिपदों की रचना करने लगे। इन्होंने लगभग दस हजार पदों की रचना की। ललित किशोरी जी का देहावसान कार्तिक शुक्ल 2, संवत 1930 विक्रमी को हुआ।

प्रस्तुत है, ललित किशोरी जी का एक पद-

दुनिया के परपंचों में हम, मजा कछू नहिं पाया जी,
भाई बंधु पिता माता पति, सब सों चित अकुलाया जी।
छोड़ छाड़ घर गांव नांव कुल, यही पंथ मन भाया जी,
ललित किशोरी आनंदघन सों, अब हठि नेह लगाया जी।


क्या करना है संतति संपति, मिथ्या सब जग माया है,
शाल दुशाले हीरा मोती, में मन क्यों भरमाया है।
माता पिता पती बंधू सब, गोरखधंध बनाया है,
ललित किशोरी आनंदघन हरि, हिरदे कमल बसाया है।


बन बन फिरना बिहतर हमको, रतन भवन नहिं भावे है,
लता तरे पड़ रहने में सुख, नाहिन सेज सुहावे है।
सोना कर धरि सीस भला अति, तकिया ख्याल न आवे है,
ललित किशोरी नाम हरी का, जपि जपि मन सचि पावे है।


तजि दीनो जब दुनिया दौलत, फिर कोइ के घर जाना क्या,
कंद मूल फल पाय रहें अब, खट्टा मीठा खाना क्या।
छिन में साही बकसैं हमको, मोती माल खजाना क्या,
ललित किशोरी रूप हमारा, जानैं ना तहं जाना क्या।


अष्टसिद्धि नवनिद्धि हमारी, मुट्ठी में हरदम रहती,
नहीं जवाहिर सोना चांदी, त्रिभुवन की संपति चहती।
भावे न दुनिया की बातें, दिलबर की चरचा सहती,
ललित किशोरी पार लगावे, माया की सरिता बहती।

संत बुल्लेशाह


ना मैं मुल्ला ना मैं काजी



                                       लाहौर जिले के पंडील गांव में विक्रम संवत 1737 में संत बुल्लेशाह का जन्म हुआ। इनके पिता शाह मुहम्मद दरवेश अरबी तथा फारसी भाषाओं के अच्छे ज्ञाता थे। बुल्लेशाह पहले साधु दर्शनीनाथ के संपर्क में रहे और फिर इनायत शाह के संपर्क में आ गए। ये आजीवन ब्रह्मचारी रहे और कुसूर नामक स्थान में निवास करते हुए सदैव अपनी साधना में लीन रहे। इस्लाम और सूफी धर्म -शिक्षा, धर्म-ग्रंथों के व्यापक और गहन अध्ययन से बुल्लेशाह में जहां गहन संस्कारों का प्रभाव पड़ा, वहां परमात्मा को पाने की अपूर्व लौ भी लग गई।
                                     संत बुल्लेशाह की विचारधारा, सूफीमत की ही भांति, वेदांत से भी बहुत कुछ प्रभावित थी। कबीर साहब के समान विचार की स्वतंत्रता में इनकी आस्था थी। उन्ही की भांति ये बाह्याडंबर के कट्टर विरोधी थे। इनकी धारणा थी कि मंदिर -मस्जिद में प्रेमरूपी परमात्मा का निवास होना असंभव है। इनके अनुसार सरलहृदय होना तथा अहंकार का परित्याग सबसे अधिक आवश्यक है। ये अपना काफिर होना स्वीकार करते थे। इनका देहावसान विक्रम संवत 1810 में हुआ। कसूर के निकट पांडोके नामक गांव में इनकी मजार है जहां प्रतिवर्ष उर्स लगता है।

प्रस्तुत है, संत बुल्लेशाह का एक पद-

टुक बूझ कौन छप आया है।
इक नुकते में जो फेर पड़ा, तब ऐन गैन का नाम धरा।
जब मुरसिद नुकता दूर कियो, तब ऐनो ऐन कहाया है।
तुसीं इल्म किताबा पढ़दे हो, केहे उलटे माने करते हो।
वे मुजब ऐबें लड़दे हो, केहा उलटा बेद पढ़ाया है।
दुइ दूर करो कोई सोर नहीं, हिंदू तुरक कोई होर नहीं।
सब साधु लखो कोइ चोर नहीं, घट घट में आप समाया है।
ना मैं मुल्ला ना मैं काजी, ना मैं सुन्नी ना मैं हाजी।
बुल्लेशाह नाल जाइ बाजे, अनहद सबद बजाया है।

भावार्थ-
जरा देखो, अगोचर वेश में कौन आया है। जिस प्रकार अरबी के एक अक्षर ऐन में एक नुकता या बिंदु लगा देने से वह गैन बन जाता है, उसी प्रकार पूर्ण परमात्मा भी केवल नाम-रूप की उपाधि के कारण सीमित जान पड़ता है। सतगुरु ने यह भ्रम दूर किया। तुम ज्ञान और धर्मशास्त्र की किताबें पढ़ते हो और उलटे अर्थ लगाकर आपस में लड़ते हो। हिंदू और तुर्क भिन्न नहीं हैं, दोनों में परमात्मा का वास है। इसलिए सभी साधु हैं। मैं मुल्ला, काजी, सुन्नी या हाजी नहीं हूं। बुल्लेशाह कहते हैं कि मेरे निकट तो केवल उस परमात्मा का अनहद नाद ही सुनाई देता है।

नारायण स्वामी


दो दिन कौ मेहमान



नारायण स्वामी का जन्म विक्रम संवत 1886 में रावलपिंडी में हुआ। ये बाल्यावस्था से ही संतों और भगवद्भक्तों में विशेष रुचि रखते थे। संवत 1900 में ये वृंदावन की यात्रा के लिए निकले और वहीं रहने लगे। जीविका निर्वाह के लिए लालबाबू के मंदिर के कार्यालय में नौकरी कर ली। दिन भर काम करते और रात को मंदिरों में जाकर श्रीकृष्ण के दर्शन करते तथा पद रचना करते। 
नारायण स्वामी प्रायः केशीघाट पर खपटिया बाबा के घेरे में यमुना तट पर रहते थे। वृंदावन की रासमंडली में उनके पदों का गायन होता था। कुछ दिनों बाद उन्होंने नौकरी छोड़कर पूर्ण वैराग्य ले लिया। नारायण स्वामी ने ब्रज विहार नामक एक ग्रंथ की रचना की थी। उसमें भगवान की लीलाओं का श्रृगाररस से ओत-प्रोत सरस वर्णन हुआ है। उनके दोहे और पद बड़े ही उपदेशप्रद और सरल हैं। श्रीगोवर्धन के समीप फाल्गुन कृष्ण एकादशी संवत 1957 को उन्होंने देहत्याग किया।

प्रस्तुत है, नारायण स्वामी का एक पद-

मूरख, छांड़ि वृथा अभिमान।
औसर बीति चल्यौ है तेरो, दो दिन कौ मेहमान।
भूप अनेक भयो पृथ्वी पर, रूप तेज बलवान।
कौन बच्यो या काल ब्याल तें, मिट गए नाम निसान।
धवल धाम धन गज रथ सेना, नारी चंद्र समान।
अंत समै सब ही कों तजकै, जाय बसे समसान।
तजि सतसंग भ्रमत बिषयन में जा बिधि मरकट स्वान।
छिन भरि बैठि न सुमरनि कीन्हों, जासों होय कल्यान।
रे मन मूढ़ अनत जनि भटकै, मेरी कहो अब मान।
नारायण ब्रजराज कुंवर सों, बेगहि करि पहिचान।


भावार्थ-
अरे मूर्ख मन, तू व्यर्थ का अभिमान त्याग दे। तेरा समय बीत चुका है, इस संसार में अब तू केवल दो दिन का मेहमान है। इस पृथ्वी पर रूप, तेज और बलयुक्त अनेक राजा हुए किंतु सब काल के गाल में समा गए। धन, संपत्ति, रथ सेना आदि को अंतिम समय में छोड़कर श्मशान में जाना पड़ा। जैसे कुत्ता मरे हुए जीवों के आस-पास विचरण करता है, उसी तरह तू सतसंग को छोड़कर विषयों में भटक रहा है। कुछ क्षण बैठ कर हरि को स्मरण नहीं करता जिससे तेरा कल्याण होगा। अब और मत भटक, श्रीकृष्ण के साथ शीघ्र ही पहचान बना ले।

गीतिका



रात ने जब-जब किया श्रृंगार है,
चांद माथे पर सजा हर बार है।


ओस, जैसे अश्रु की बूंदें झरीं,
चांदनी रोती रही सौ बार है।


नीलिमा लिपटी सुबह आकाश से,
क्षितिज का मुंह लाज से रतनार है।


खिलखिलाकर खिल उठी है कुमुदिनी,
किरण ने उस पर लुटाया प्यार है।


ढीठ बादल देख इतराता हुआ,
सूर्य का चेहरा हुआ अंगार है।


दिवस के मन में उदासी छा गई,
सांझ उसका छूटता घर-बार है।


हैं यही सब रंग जीवन में मनुज के,
लोग कहते हैं यही संसार है।

                                                       -महेन्द्र वर्मा

मेरे दोस्त ने की है तारीफ़ मेरी


ग़ज़ल
रचनाकार में पूर्व प्रकाशित

कोई शख़्स ग़म से घिरा लग रहा था,
हुआ जख़्म उसका हरा लग रहा था।


मेरे दोस्त ने की है तारीफ़ मेरी, 
किसी को मग़र ये बुरा लग रहा था।


ये चाहा कि इंसां बनूं मैं तभी से,
सभी की नज़र से गिरा लग रहा था।


लगाया किसी ने गले ख़ुशदिली से, 
छुपाता बगल में छुरा लग रहा था।


मैं आया हूं अहसान तेरा चुकाने,
ये जिसने कहा सिरफिरा लग रहा था।


जो होने लगे हादसे रोज इतने,
सुना है ख़ुदा भी डरा लग रहा था।


ग़र इंसाफ तुझको दिखा हो बताओ,
वो जीता हुआ या मरा लग रहा था।

                                                              -महेन्द्र वर्मा

नवगीत




पंछी के कोटर में 
सपनों के जाले।
चुगती है संध्या भी
नेह के निवाले।


गगन तिमिर निरख रहा
तारों का क्रंदन,
रजनी के भाल, चंद्र
लेप गया चंदन।


दृग संपुट खोल रहे
भोर के उजाले।


जुगनू की देह हुई
रश्मि पुंज वर्तन,
नूपुर छनकाता है
झींगुर का नर्तन।


नीरव के अधरों के
तोड़ सभी ताले।

                        -महेन्द्र वर्मा

फागुनी दोहे



देहरी पर आहट हुई, फागुन पूछे कौन।
मैं बसंत तेरा सखा, तू क्यों अब तक मौन।।


निरखत बासंती छटा, फागुन हुआ निहाल।
इतराता सा वह चला, लेकर रंग गुलाल।।


कलियों के संकोच से, फागुन हुआ अधीर।
वन-उपवन के भाल पर, मलता गया अबीर।।


टेसू पर उसने किया, बंकिम दृष्टि निपात।
लाल लाज से हो गया, वसन हीन था गात।।


अमराई की छांव में, फागुन छेड़े गीत।
बेचारे बौरा गए, गात हो गए पीत।।


फागुन और बसंत मिल, करे हास-परिहास।
उनको हंसता देखकर, पतझर हुआ उदास।।


पूनम फागुन से मिली, बोली नेह लुटाय।
और माह फीके लगे, तेरा रंग सुहाय।।


आतंकी फागुन हुआ, मौसम था मुस्तैद।
आनन-फानन दे दिया, एक वर्ष की क़ैद।।

आप सब को होली की शुभकामनाएं

                                                                              -महेन्द्र वर्मा

हिंदयुग्म का वार्षिकोत्सव



कल 5 मार्च, 2011 को नई दिल्ली के राजेन्द्र भवन ट्रस्ट सभागार में हिंदयुग्म का वार्षिक सम्मान समारोह आयोजित हुआ। इस आयोजन में 12 यूनिकवियों को सम्मानित किया गया। सम्मानित होने वाले कवियों की सूची में एक नाम मेरा भी था। यह आप सब की शुभकामनाओं का असर है...।
अस्वस्थता के कारण मैं इस कार्यक्रम में भाग नहीं ले सका।
बहरहाल मैं उस ग़ज़ल को यहां प्रस्तुत कर रहा हूं जो हिंदयुग्म की सितम्बर  2010 की प्रतियोगिता में प्रथम स्थान पर चयनित हुई थी।

आपकी दीवानगी बिल्कुल लगे मेरी तरह,
ये अचानक आप कैसे हो गए मेरी तरह।


इक अकेला मैं नहीं कुछ और भी हैं शहर में, 
जेब में रक्खे हुए दो  चेहरे मेरी तरह।


भीड़ से पूछा किसी ने किस तरह हो आदमी,
हो गई मुश्किल कि सारे कह उठे मेरी तरह।


लोग जो सब जानने का कर रहे दावा मगर,
दरहक़ीकत वे नहीं कुछ जानते मेरी तरह।


किस लिए   यूं  आह के पैबंद टांके जा रहे,
क्या जिगर में छेद हैं अहसास के मेरी तरह।


ख़ुदपरस्ती के अंधेरे में भला कैसे जिएं,
देख जैसे जल रहे हैं ये दिये मेरी तरह।


मजहबी धागे उलझते जा रहे थे और वे,
नोक से तलवार की सुलझा रहे मेरी तरह।

                                                                       -महेन्द्र वर्मा

ग़ज़ल



अक्स निशाने पर था रक्खा किसी और का,
शीशा टूट-टूट कर बिखरा किसी और का।


दरवाजे  पर  देख  मुझे  मायूस हुए वो, 
शायद उनको इंतज़ार था किसी और का।


बहुत  दिनों  के  बाद कहीं से ख़त इक आया,
नाम मगर उस पर लिक्खा था किसी और का।


यादों का इक रेला मन को तरल कर गया, 
आंचल भिगो रहा अब होगा किसी और का।


दोस्त  हमारे  कतरा  कर  यूं निकल गए,
मेरा चेहरा समझा होगा किसी और का।


जब दीवारें  अपनेपन  के  बीच  खड़ी हों, 
अपना आंगन लगने लगता किसी और का।


सुबह धूप  का  टुकड़ा  उतरा  देहरी पर,
रुका नहीं वह मेहमान था किसी और का।

                                                                    -महेन्द्र वर्मा

उतना ही सबको मिलना है



ग़ज़ल

उतना ही सबको मिलना है,
जिसके हिस्से में जितना है।


क्यूं ईमान सजा कर रक्खा,
उसको तो यूं ही लुटना है।


ढोते रहें सलीबें अपनी, 
जिनको सूली पर चढ़ना है।


मुड़ कर नहीं देखता कोई, 
व्यर्थ किसी से कुछ कहना है।


जंग आज की जीत चुका हूं,
कल जीवन से फिर लड़ना है।


सूरज हूं जलता रहता हूं,
दुनिया को ज़िंदा रखना है।


बोल सभी लेते हैं लेकिन,
किसने सीखा चुप रहना है।

                                              -महेन्द्र वर्मा


गीतिका





एक दिया तो जल जाने दे,
सूरज को कुछ सुस्ताने दे।


पलट रहा क्यूं आईने को,
जो सच है वो दिखलाने दे।


एक सिरा तो थामो तुम भी,
उलझा है जो सुलझाने दे।


चिंगारी रख ऐसी दिल में,
अंगारों को शरमाने दे।


कैद न कर पंछी पिंजरे में,
उसे मुक्ति का सुर गाने दे।


यादें, इतनी जल्दी न जा,
आंखों को तो भर जाने दे।


बादल हूं बरसूंगा, पहले
परवत से तो टकराने दे।

                                           -महेन्द्र वर्मा


गीत मैं गाने लगा हूं




गीत मैं गाने लगा हूं,
स्वप्न फिर बुनने लगा हूं।


तमस से मैं जूझता था,
कुछ न मन को सूझता था,
हृदय के सूने गगन में,
सूर्य सा जलने लगा हूं,
गीत मैं गाने लगा हूं।


आंसुओं के साथ जीते,
वर्ष कितने आज बीते,
भूल कर सारी व्यथाएं,
स्वयं को छलने लगा हूं,
गीत मैं गाने लगा हूं।


भावनाओं ने उकेरे,
चित्र सुधियों के घनेरे,
कंटकों के बीच सुरभित-
सुमन सा खिलने लगा हूं,
गीत मैं गाने लगा हूं।

                                              -महेन्द्र वर्मा

गीतिका





बंद होती सभी खिड़कियां देखिए,
ढा रही हैं कहर आंधियां देखिए।


याद मुझको करे कोई्र ऐसा नहीं,
आ रही हैं मगर हिचकियां देखिए।


भीड़ को फिर कोई आश्वासन मिला, 
बज रही हैं उधर तालियां देखिए।


चल रहे थे मेरी रहनुमाई में जो,
आज गिनते रहे गलतियां देखिए।


जल चुकी हैं मगर ऐंठ बाक़ी रही,
राख सी हो चुकी रस्सियां देखिए।


किस अदा से पसीना दिखाता असर,
खेत में झूमती बालियां देखिए।


रंग फीके लगें ज़िंदगी के अगर,
बाग़ में उड़ रही तितलियां देखिए।

                                                           -महेन्द्र वर्मा


जीवन




स्वार्थ का परमार्थ से है युद्ध जीवन,
हो नहीं सकता सभी का बुद्ध जीवन।


श्रम हुआ निष्फल, कभी पुरुषार्थ आहत,
नियति के आक्रोश से स्तब्ध जीवन।


पूर्ण न होतीं कभी भी कामनाएं,
लालसाओं से सदा विक्षुब्ध जीवन।


जिन विधानों से हुई रचना जगत की,
क्या उन्हीं से है नहीं आबद्ध जीवन ?


ज्ञात हो जिसको बताए सत्य क्या है,
कर्म का संकल्प या प्रारब्ध जीवन।


शास्त्र कहता है सदा चलते रहो पर,
है अधूरे मार्ग सा अवरुद्ध जीवन।


भाव से न अभाव से संबंध इसका,
मात्र श्वासों से रहा संबद्ध जीवन।


                                                           -महेन्द्र वर्मा

ख़ाक है संसार





बुलबुले सी ज़िदगानी, या ख़ुदा,
है कोई झूठी कहानी, या ख़ुदा।


वक़्त की फिरकी उफ़क पर जा रही,
छोड़ती अपनी निशानी, या ख़ुदा।


पांव धरती पर गड़े सबके मगर,
ख़्वाब बुनते आसमानी, या ख़ुदा।


फूल मुरझाने लगे हैं चमन के,
खो गई है रुत सुहानी, या ख़ुदा।


उल्लुओं ने पंख नोचे हंसिनी के,
दुश्मनी लगती पुरानी, या ख़ुदा।


हंस रहे होगे हमारे हाल पर,
आपकी है मेहरबानी, या ख़ुदा।


ख़ाक है संसार, माज़ी के सिवा, 
है यहां हर चीज़ फ़ानी, या ख़ुदा।

                                                -महेन्द्र वर्मा
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उफ़क - क्षितिज, उल्लू - लक्ष्मी का वाहन
हंसिनी /हंस - सरस्वती का वाहन
माज़ी - अतीत, फ़ानी - नश्वर

ज़िदगी से सुर मिलाना चाहिए



अब अंधेरे को डराना चाहिए
फिर कोई सूरज उगाना चाहिए।

शोर से ऊबी गली ने फिर कहा
झींगुरों को गुनगुनाना चाहिए।

जुगनुओं को देख तारे जल गए
अब हमें भी झिलमिलाना चाहिए।

प्यार के पल को समझने के लिए
सुन रहे हैं इक ज़माना चाहिए।

आदमी को कुछ नही तो कम से कम
जि़्दगी से सुर मिलाना चाहिए।

क्या पता कब दाग़ लग जाए कहीं
वक़्त से दामन बचाना चाहिए।

                                       -महेन्द्र वर्मा

इंसान की बातें करें

नूतन वर्ष की प्रथम रचना


सृजन का संकल्प लें,
निर्माण की बातें करें।
कामनाएं शुभ करें,
कल्याण की बातें करें।


जन्म लेता है उजाला,
हर तमस के गर्भ से,
क्यों नही तब आज स्वर्ण-
विहान की बातें करें।


अनुकरण उनका करें जो,
विश्व के आदर्श हैं,
न्याय के पथ पर चलें,
ईमान की बातें करें।


हृदय में हो नेहपूरित-
भावना सबके लिए,
यों परस्पर मान की,
सम्मान की बातें करें।


बढ़ चले हैं राह पर,
अब पग नहीं पीछे हटें,
प्रगति के सोपान की,
उत्थान की बातें करें।


है प्रकृति का नेह हम पर,
जान लें पहचान लें,
दृष्टि वैसी दे सके,
उस ज्ञान की बातें करें।


बात तो करते रहे हैं,
हम सदा भगवान की,
अब चलो ऐसा करें,
इंसान की बातें करें।

                                 -महेन्द्र वर्मा