हँसी बहुत अनमोल


कर प्रयत्न राखें सभी, मन को सदा प्रसन्न,
जो उदास रहते वही, सबसे अधिक विपन्न।

गहन निराशा मौत से, अधिक है ख़तरनाक,
धीरे-धीरे जि़ंदगी, कर देती है ख़ाक।

वाद-विवाद न कीजिए, कबहूँ मूरख संग,
सुनने वाला ये कहे, दोनों के इक ढंग।

जो जलते हैं अन्य से, अपना करते घात,
अपने मन को भूनकर, खुद ही खाए जात।

उन्नति चाहें आप तो, रखें न इनको रंच,
ईष्र्या-कटुता-द्वेष-भय, निंदा-नींद-प्रपंच।

नहिं महत्व कोई मनुज, मरता है किस भाँति,
पर महत्व की बात यह, जीया है किस भाँति।

हँसी बहुत अनमोल पर, मिल जाती बेमोल,
देती दिल की गाँठ को, आसानी से खोल।
                                                                                    -महेन्द्र वर्मा

दो कविताएँ


1.
मैं ही
सही हूँ
शेष सब गलत हैं
ऐसा तो
सभी सोचते हैं
लेकिन ऐसा सोचने वाले
कुछ लोग
अनुभव करते हैं
अतिशय दुख का
क्योंकि
शेष सब लोग
लगे हुए हैं
सही को गलत
और गलत को सही
सिद्ध करने में

2.
मुझे
एक अजीब-सा
सपना आया
मैंने देखा
एक जगह
भ्रष्टाचार की
चिता जल रही थी
लोग खुश थे
हँस-गा रहे थे
अमीर-गरीब
गले मिल रहे थे
सभी एक-दूसरे से
राम-राम कह रहे थे
बगल में
छुरी भी नहीं थी

सपने
सच हों या न हों
पर कितने अजीब होते हैं
है न ?



                                                        -महेन्द्र वर्मा

सूरज: सात दोहे



सूरज सोया रात भर, सुबह गया वह जाग,
बस्ती-बस्ती घूमकर, घर-घर बाँटे आग।

भरी दुपहरी सूर्य ने, खेला ऐसा दाँव,
पानी प्यासा हो गया, बरगद माँगे छाँव।

सूरज बोला  सुन जरा, धरती मेरी बात,
मैं ना उगलूँ आग तो, ना होगी बरसात।

सूरज है मुखिया भला, वही कमाता रोज,
जल-थल-नभचर पालता, देता उनको ओज।

पेड़ बाँटते छाँव हैं, सूरज बाँटे धूप,
धूप-छाँव का खेल ही, जीवन का है रूप।

धरती-सूरज-आसमाँ, सब करते उपकार,
मानव तू बतला भला, क्यों करता अपकार।

जल-जल कर देता सदा, सबके मुँह में कौर,
बिन मेरे जल भी नहीं, मत जल मुझसे और।

                                                                                 -महेन्द्र वर्मा

हर तरफ


वायदों की बड़ी बोलियाँ हर तरफ,
भीड़ में बज रही तालियाँ हर तरफ।

गौरैयों की चीं-चीं कहीं खो गई,
घोसलों में जहर थैलियाँ हर तरफ।

वो गया था अमन बाँटने शहर में,
पर मिलीं ढेर-सी गालियाँ हर तरफ।

भूख से मर रहे हैं मगर फिंक रहीं
व्यंजनों से भरी थालियाँ हर तरफ।

मन का पंछी उड़े 
भी तो कैसे उड़े,
बाँधता है कोई जालियाँ हर तरफ।

एक ही पेड़ से सब उगी हैं मगर,
द्वेष की फैलती डालियाँ हर तरफ।

विचारों की आँधी करो कुछ जतन,
गिरे क्रांति की बिजलियाँ हर तरफ।

                                                                -महेन्द्र वर्मा

बस इतनी सी बात



जल से काया शुद्ध हो, सत्य करे मन शुद्ध,
ज्ञान शुद्ध हो तर्क से, कहते सभी प्रबुद्ध।

धरती मेरा गाँव है, मानव मेरा मीत,
सारा जग परिवार है, गाएँ सब मिल गीत।


ज्ञानी होते हैं सदा, शांत-धीर-गंभीर,
जहाँ नदी में गहनता, जल अति थिर अरु धीर।
 

जीवन क्या है जानिए, ना शह है ना मात,
मरण टले कुछ देर तक, बस इतनी सी बात।

कभी-कभी अविवेक से, हो जाता अन्याय,
अंतर की आवाज से, होता सच्चा न्याय।

तीन व्यक्तियों का सदा, करिए नित सम्मान,
मात-पिता-गुरु पूज्य हैं, सब से बड़े महान।


यों समझें अज्ञान को, जैसे मन की रात,
जिसमें न तो चाँद है, न तारे मुसकात।

                           
                                                                         -महेन्द्र वर्मा

धूप-हवा-जल-धरती-अंबर



किसे कहोगे बुरा-भला है,
हर दिल में तो वही ख़ुदा है।

खोजो उस दाने को तुम भी,
जिस पर तेरा नाम लिखा है।

शायद रोया बहुत देर तक,
उसका चेहरा निखर गया है।

ख़ून भले ही अलग-अलग हो,
आँसू सबका एक बहा है।

उसने दी है मुझे दुआएँ,
सब कुछ भला-भला लगता है।

गीत प्रकृति का कभी न गाया,
इतने दिन तक व्यर्थ जिया है।

धूप-हवा-जल-धरती-अंबर,
सबके जी में यही बसा है।
                                                     


                                               -महेन्द्र वर्मा

जहाँ प्रेम सत्कार हो

युवा-शक्ति मिल कर करे, यदि कोई भी काम,
मिले सफलता हर कदम, निश्चित है परिणाम।

जिज्ञासा का उदय ही, ज्ञान प्राप्ति का स्रोत,
इसके बिन जो भी करे, ज्ञानार्जन न होत।

अहंकार जो पालता, पतन सुनिश्चित होय,
बीज प्रेम अरु नेह का, निरहंकारी बोय।

जिह्वा के आघात में, असि से अधिक प्रभाव,
रह-रह कर है टीसता, अंतर्मन का घाव।

जीवन-मरण अबूझ है, परम्परा चिरकाल,
पुनर्जन्म पुनिमृत्यु की, कहे कहानी काल।

जैसे दीमक ग्रंथ को, कुतर-कुतर खा जाय,
तैसे चिंता मनुज को, धीरे-धीरे खाय।

जहाँ प्रेम सत्कार हो, वही सही घर-द्वार,
जहाँ द्वेष-अभिमान हो, वह कैसा परिवार।

                                                                                            
                                                                                -महेन्द्र वर्मा



मौन का सहरा हुआ हूँ


आग से गुज़रा हुआ हूँ,
और भी निखरा हुआ हूँ।

उम्र भर के अनुभवों के,
बोझ से दुहरा हुआ हूँ।

देख लो तस्वीर मेरी,
वक़्त ज्यों ठहरा हुआ हूँ।

बेबसी बाहर न झाँके,
लाज का पहरा हुआ हूँ।

आज बचपन के अधूरे, 

ख़्वाब-सा बिखरा हुआ हूँ

घुल रहा हूँ मैं किसी की
आँख का कजरा हुआ हूँ।

रेत सी यादें बिछी हैं,
मौन का सहरा हुआ हूँ।
                                      -महेन्द्र वर्मा

दोहे



बाहर के सौंदर्य को , जानो बिल्कुल व्यर्थ,
जो अंतर्सौंदर्य है, उसका ही कुछ अर्थ।

समय नष्ट मत कीजिए, गुण शंसा निकृष्ट,
जीवन में अपनाइए, जो गुण सर्वोत्कृष्ट।

चक्की जैसी आदतें, अपनाते कुछ लोग,
हरदम पीसें और को, शोर करें खुद रोग।

इतना डरते मौत से, कुछ की ये तकदीर,
जीने की शुरुआत भी, कर ना पाते भीर।

कार्य सिद्ध हो कर्म से, है यह बात अनूप,
होनहार ही होत है, आलस का ही रूप।

क्रोध लोभ या मोह को, सदा मानिए रोग,
शत्रु भयानक तीन हैं, कभी न कीजे योग।

जुगनू जैसी ख्याति है, चमके केवल दूर,
जरा निकट से देखिए, गर्मी है ना नूर।

                                                                                 
                                                                 -महेन्द्र वर्मा

ग़ज़ल: पलकों के लिए



आँख में तिरती रही उम्मीद सपनों के लिए,
गीत कोई गुनगुनाओ आज पलकों के लिए।

आसमाँ तू देख रिश्तों में फफूँदी लग गई,
धूप के टुकड़े कहीं से भेज अपनों के लिए।

है बहुत मुश्किल कि गिरकर गीत भी गाए कोई,
है मगर आसान कितना देख झरनों के लिए।

ना ज़मीं है ना हवा है और ना तितली कहीं,
आसमाँ भी गुम हुआ है आज शहरों के लिए।

बाँध कर रखिए सभी रिश्ते वगरना यूँ न हो,
छूट जाते साथ हैं कई बार बरसों के लिए।

आम की अमिया कुतरने शाम का सूरज रुका,
बँध गए कोयल युगल हैं सात जनमों के लिए।

है नहीं आसाँ गजल कहना कि मेरे यार सुन,
रूठ जाते हर्फ़ हैं कुछ  ख़ास मिसरों के लिए।

                                                                                     -महेन्द्र वर्मा

ग़ज़ल



अंधकार को डरा रौशनी तलाश कर,
‘मावसों की रात में चांदनी तलाश कर।

बियाबान चीखती खामोशियों का ढेर है,
जल जहां-जहां मिले जि़ंदगी तलाश कर।

डगर-डगर घूमती सींगदार साजिशें,
जा अगर कहीं मिले आदमी तलाश कर।

जानते रहे जिसे साथ न दिया कोई,
दोस्ती के वास्ते अजनबी तलाश कर।

बाग है धुआं-धुआं खेत-खेत कालिखें
सुब्ह शबनमी फिजां में ताजगी तलाश कर।

वर्जना की बेडि़यां हत परों की ख्वाहिशें,
आंख में घुली हुई बेबसी तलाश कर।

हर तरफ उदास-से चेहरों की भीड़ है,
मन किवाड़ खोल दे हर खुशी तलाश कर।

                                                                        
                                                                        -महेन्द्र वर्मा

नवगीत



पल-पल छिन-छिन बीत रहा है,
जीवन से कुछ रीत रहा है।

                    सहमे-सहमे से सपने हैं,
                    आशा के अपरूप,
                    वक्र क्षितिज से सूरज झाँके,
                    धुँधली-धुँधली धूप।

तरस न खाओ मेरे हाल पर,
मेरा भव्य अतीत रहा है।
पल-पल छिन-छिन बीत रहा है,
जीवन से कुछ रीत रहा है।


                    छला गया मीठी बातों से,
                    नाजुक मन भयभीत।
                    मिले सभी को अंतरिक्ष से,
                    जीवन का संगीत।

अब तक कानों में जो गूँजा,
कोई काँपता गीत रहा है।
पल-पल छिन-छिन बीत रहा है,
जीवन से कुछ रीत रहा है।

                                                

                                                   -महेन्द्र वर्मा







फागुनी दोहे



फागुन आता देखकर, उपवन हुआ निहाल,
अपने तन पर लेपता, केसर और गुलाल।

तन हो गया पलाश-सा, मन महुए का फूल,
फिर फगवा की धूम है, फिर रंगों की धूल।

मादक महुआ मंजरी, महका मंद समीर,
भँवरे झूमे फूल पर, मन हो गया अधीर।

ढोल मंजीरे बज रहे, उड़े अबीर गुलाल,
रंगों ने ऊधम किया, बहकी सबकी चाल।

कोयल कूके कान्हड़ा, भँवरे भैरव राग,
गली-गली में गूँजता, एक ताल में फाग।

नैनों की पिचकारियाँ, भावों के हैं रंग,
नटखट फागुन कर रहा, अंतरमन को तंग।

रंगों की बारिश हुई, आँधी चली गुलाल,
मन भर होली खेलिए, मन न रहे मलाल।

उजली-उजली रात में, किसने गाया फाग,
चाँद छुपाता फिर रहा, अपने तन के दाग।

नेह-आस-विश्वास से, हुए कलुष सब दूर,
भीगे तन-मन-आत्मा, होली का दस्तूर।
                                                                      

सभी मित्रों को होली की हार्दिक शुभकामनाएं ! 


                                                                   -महेन्द्र वर्मा

गीतिका



यादों को विस्मृत कर देना बहुत कठिन है,
ख़ुद को ही धोखा दे पाना बहुत कठिन है।

जाने कैसी चोट लगी है अंतःतल में,
टूटे दिल को आस बंधाना बहुत कठिन है।

तैर रही हो विकट वेदना जिनमें छल-छल,
उन आंखों की थाह जानना बहुत कठिन है।

नादानों को समझा लेंगे कैसे भी हो,
समझदार को समझा पाना बहुत कठिन है।

जीवन सरिता के इस तट पर दुख का जंगल,
क्या होगा उस पार बताना बहुत कठिन है।

झूठ बोलने वालों ने आंखें दिखलाईं,
ऐसे में सच का टिक पाना बहुत कठिन है।

मौत किसे कहते हैं यह तो सभी जानते,
जीवन को परिभाषित करना बहुत कठिन है।
                                                                       -महेन्द्र वर्मा

दर्शन और गणित का संबंध




मानवीय ज्ञान के क्षेत्र में दो शास्त्र- गणित और दर्शन- ऐसे विषय हैं जिनका स्पष्ट संबंध मस्तिष्क की चिंतन क्षमता और तर्क से है। मानव जाति के उद्भव के साथ ही इन दोनों विषयों का प्रादुर्भाव हुआ है। इनके विषय वस्तु में कोई प्रत्यक्ष समानता नहीं है किंतु अध्ययन की प्रणाली और इनके सिद्धांतों और निष्कर्षों में अद्भुत सामंजस्य दृष्टिगोचर होता है। वास्तव में गणित और दर्शन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों विषय किसी न किसी प्रकार से एक रहस्यमय संबंध के द्वारा जुड़े हुए हैं। जिन मनीषियों ने गणित के क्षेत्र में जटिल नियमों और सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है, उन्होंने ही दर्शन के क्षेत्र में क्रांतिकारी विचारों को जन्म दिया है। प्लेटो, अरस्तू, पायथागोरस, डेकार्ट, लाइब्निट्ज, बर्कले, रसेल, व्हाइटहेड आदि ने दर्शन और गणित, दोनों क्षेत्रों में अपने विचारों से युग को प्रभावित किया है।

दर्शन तर्क का विषय है और तर्क गणित का आवश्यक अंग है। चिंतन की वांछित प्रणाली प्राप्त करने के लिए गणित का अध्ययन आवश्यक है। दार्शनिकों को इन्द्रियों के प्रत्यक्ष ज्ञान की अविश्वसनीयता ने सदैव उद्वेलित किया है किंतु उन्हें यह जानकर आनंद का अनुभव हुआ कि उनके सामने ज्ञान का एक ऐसा क्षेत्र भी है जिसमें भ्रम या धोखे के लिए कोई स्थान नहीं है- वह था, गणितीय ज्ञान। गणित संबंधी धारणाओं को सदा ही ज्ञान की एक ऐसी प्रणाली के रूप में स्वीकार किया गया है जिसमें सत्य के उच्चतम मानक पर खरा उतरने की क्षमता विद्यमान है।

‘प्रकृति की पुस्तक गणित की भाषा में लिखी गई है‘- गैलीलियो के इस कथन का सत्य उसके अनुवर्ती शताब्दियों में निरंतर प्रकट होता रहा है। ईसा पूर्व छठवीं शताब्दी के यूनानी गणितज्ञ पायथागोरस ने गणित और दर्शन को मिला कर एक कर दिया था। उनकी मान्यता थी कि प्रकृति का आरंभ संख्या से ही हुआ है।
आधुनिक पाश्चात्य दर्शन के जनक फ्रांस के रेने डेकार्ट को प्रथम आधुनिक गणितज्ञ भी कहा जाता है। इन्होंने निर्देशांक ज्यामिति की नींव रखी। आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए उनके द्वारा प्रतिपादित यह स्वयंसिद्ध प्रसिद्ध है-‘मैं सोचता हूं, इसलिए मैं हूं।‘ डेकार्ट का कहना है- ‘गणित ने मुझे अपने तर्कों की असंदिग्धता और प्रामाणिक लक्षण से आह्लादित किया है।‘

गणित में चलन-कलन के आविष्कारक और दर्शन में चिद्बिंदुवाद के प्रवर्तक जर्मन विद्वान गाटफ्रीड विल्हेम लाइब्निट्ज थे। प्रकृति के वर्णन के लिए गणितीय विधियों के सफल व्यवहार ने लाइब्निट्ज को यह विश्वास करने की प्रेरणा दी कि सारा विज्ञान गणित में परिणित हो सकता है। उन्होंने दर्शन और गणित के प्रतीकों का सामंजस्य करते हुए लिखा है-‘ ईश्वर 1 है और 0 कुछ नहीं। जिस प्रकार 1 और 0 से सारी संख्याएं व्यक्त की जा सकती हैं उसी प्रकार ‘एक‘ ईश्वर ने ‘कुछ नहीं‘ से सारी सृष्टि का सृजन किया है।
तर्कशास्त्र के इतिहास में मोड़ का बिंदु तब आया जब उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में जार्ज बुले और डी मार्गन ने तर्कशास्त्र के सिद्धांतों को गणितीय संकेतन की विधि से प्रतीकात्मक भाषा में व्यक्त किया। जार्ज बुले ने बीजगणित के चार मूलभूत नियमों  के आधार पर दार्शनिक तर्कों का विश्लेषण किया था।
बट्र्रेंड रसेल दर्शन और गणित की समीपता को समझते थे। उनके द्वारा दार्शनिक प्रत्ययों का तार्किक गणितीय परीक्षण किया जाना दर्शन के क्षे़त्र में एक नई पहल थी।

रसेल के गुरु अल्फ्रेड नार्थ व्हाइटहेड ने एक गणितज्ञ के रूप में अपना कार्य प्रारंभ किया किंतु उनके गणितीय सिद्धांतों में वे भाव पहले से ही थे जिनके कारण वे युगांतरकारी दार्शनिक विचार प्रतिपादित कर सके। विटजनस्टीन ने गणितीय भाषा से प्रभावित होकर ‘भाषायी दर्शन‘ तथा हेन्स राइखेन बाख ने ‘वैज्ञानिक दर्शन‘ की नींव डाली।

आधुनिक बीजगणित के समुच्चय सिद्धांत पर आधारित तर्कशास्त्र न केवल अनेक प्राकृतिक घटनाओं की बल्कि अनेक सामाजिक व्यवहारों की भी व्याख्या करने में समर्थ है। समुच्चयों को प्रदर्शित करने के लिए वैन नामक गणितज्ञ ने ‘वैन आरेख‘ पद्धति विकसित की जो उनके द्वारा लिखित ‘सिंबालिक लाजिक‘ नामक पुस्तक में वर्णित है। उनकी यह कृति प्रतीकात्मक तर्कशास्त्र के तत्कालीन विकास का व्यापक सर्वेक्षण है।

भारतीय परिप्रेक्ष्य

जिन ऋषियों ने उपनिषदों की रचना की उन्होंने ही वैदिक गणित और खगोलशास्त्र या ज्योतिर्गणित की रचना की है। ईशावास्य उपनिषद के आरंभ में आया यह श्लोक निश्चित ही ऐसे मस्तिष्क की रचना है जो गणित और दर्शन दोनों का ज्ञाता था - ‘ ओम् पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्चते, पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।‘ इस की व्याख्या संख्या सिद्धांत के आधार पर इस तरह की जा सकती है- प्राकृत संख्याओं के अनंत समुच्चय में से यदि सम संख्याओं का अनंत समूह निकाल दिया जाए तो शेष विषम संख्याओं का समुच्चय भी अनंत होगा। इसी तरह ‘एकोहम् बहुस्याम्‘ ‘तत्वमसि‘ आदि सूत्रों का गणित से अद्भुत सामंजस्य है।

प्रख्यात गणितज्ञ प्रो. रामानुजम् गणित के अध्ययन-मनन को ईश्वर चिंतन की प्रक्रिया मानते थे। उनकी धारणा थी कि केवल गणित के द्वारा ही ईश्वर का सच्चा स्वरूप स्पष्ट हो सकता है।
दर्शन और गणित के इस गूढ़ संबंध का कारण यह है कि दोनों विषयों में जिन आधारभूत प्रत्ययों का अध्ययन-विश्लेषण होता है, वे सर्वथा अमूर्त हैं। दर्शन में ब्रह्म, आत्मा, माया, मोक्ष, शुभ-अशुभ आदि प्रत्यय जितने अमूर्त एवं जटिल हैं उतने ही गणित के प्रत्यय- बिंदु, रेखा, शून्य, अनंत, समुच्चय आदि भी अमूर्त एवं क्लिष्ट हैं।
भारतीय दर्शन का सत्य कभी परिवर्तित नहीं हुआ, ऐसे ही गणित के तथ्य भी शाश्वत सत्य हैं। गणित और दर्शन शुष्क विषय नहीं हैं बल्कि कला के उच्च प्रतिमानों की सृष्टि गणितीय और दार्शनिक मस्तिष्क में ही संभव है।
महान गणितज्ञ और दार्शनिक आइंस्टाइन का यह कथन गणित और दर्शन के संबंध को स्पष्ट करता है- ‘मैं किसी ऐसे गणितज्ञ और वैज्ञानिक की कल्पना नहीं कर सकता जिसकी धर्म और दर्शन में गहरी आस्था न हो।‘

                                                                                                                                    -महेन्द्र वर्मा

क्षणिकाएं



1.
घटनाएं
भविष्य के अनंत आकाश से
एक-एक कर उतरती हैं
और
क्षण भर में घटित होकर
समा जाती हैं
अतीत के महापाताल में

बताओ भला
कहां है
वर्तमान !!


2.
-उदास हो
-नहीं
बस यूं ही
काली किरणों की
बारिश में भीगने का
आनंद ले रहा हूं


                         -महेन्द्र वर्मा

दोहे : अवसर का उपयोग



आशा ऐसी वस्तु है, मिलती सबके पास,
पास न हो कुछ भी मगर, हरदम रहती आस।

आलस के सौ वर्ष भी, जीवन में हैं व्यर्थ,
एक वर्ष उद्यम भरा, महती इसका अर्थ।

सुनी कभी तो जायगी, दुखियारे की टेर,
ईश्वर के घर देर है, नहीं मगर अंधेर।

शत्रु नहीं यदि आपका, समझें यह संकेत,
भुला दिया है भाग्य ने, न जाने किस हेत।

प्रेम अध्ययन से करें, सद्ग्रंथों का साथ,
सब विषाद को मोद में, बदलें अपने हाथ।

पाने की यदि चाह है, इतना करें प्रयास,
देना पहले सीख लें, सब कुछ होगा पास।

अवसर का उपयोग जो, करता सोच विचार,
है प्रतिभाशाली वही, कहता समय पुकार।

                                                                          -महेन्द्र वर्मा

गीत बसंत का



सुरभित मंद समीर ले
आया है मधुमास।

                           पुष्प रंगीले हो गए
                           किसलय करें किलोल,
                           माघ करे जादूगरी
                          अपनी गठरी खोल।

गंध पचीसों तिर रहे
पवन हुए उनचास,
सुरभित मंद समीर ले
आया है मधुमास।

                           अमराई में कूकती
                          कोयल मीठे बैन,
                          बासंती-से हो गए
                          क्यूं संध्या के नैन।

टेसू के संग झूमता
सरसों का उल्लास,
सुरभित मंद समीर ले
आया है मधुमास।

                          पुलकित पुष्पित शोभिता
                         धरती गाती गीत,
                         पात पीत क्यूं हो गए
                         है कैसी ये रीत।

नृत्य तितलियां कर रहीं
भौंरे करते रास,
सुरभित मंद समीर ले
आया है मधुमास।

                                              -महेन्द्र वर्मा

सपना

ना सच है ना झूठा है,
जीवन केवल सपना है।

कुछ सोए कुछ जाग रहे,
अपनी-अपनी दुनिया है।

सत्य बसा अंतस्तल में,
बाहर मात्र छलावा है।

दुख ना हो तो जीवन में,
सूनापन सा लगता है।

मुट्ठी खोलो देख जरा,
क्या खोया क्या पाया है।

गर विवेक तुममें नहीं,
मानव क्यूं कहलाता है।

प्रेम कहीं देखा तुमने,
कहते हैं परमात्मा है।
                                  
                        -महेन्द्र वर्मा

होनहार बिरवान के होत चीकने पात


कवि वृंद 

‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात‘ और ‘तेते पांव पसारिए, जेते लंबी सौर‘ जैसी लोकोक्तियों के जनक प्रसिद्ध जनकवि वृंद का जन्म सन् 1643 ई. में राजस्थान के मेड़ता नामक गांव में हुआ था। इन्होंने काशी में साहित्य और दर्शन की शिक्षा प्राप्त की। औरंगजेब और बाद में उसका पुत्र अजीमुश्शाह कवि वृंद के प्रशंसक रहे। ये किशनगढ़ नरेश महाराज सिंह के गुरु थे।

कवि वृंद ने 1704 ई. में ‘वृंद सतसई‘ नामक नीति विषयक ग्रंथ की रचना की। इनकी 11 रचनाएं प्राप्त हैं जिनमें ‘वृंद सतसई‘, ‘पवन पचीसी‘ और ‘शृंगार शिक्षा‘ प्रमुख हैं। कवि वृंद सूक्तिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके प्रत्येक दोहे में ज्ञान और अनुभव का भंडार है। साहित्य जगत और जनसामान्य के लिए इन दोहों का विशेष महत्व है। ‘वृंद सतसई‘ के दोहे और उनमें निहित सूक्तियां उत्तर मध्यकाल में चाव से पढ़ी-बोली जातीं थीं। कवि वृंद का निधन सन् 1723 ई. में हुआ।

प्रस्तुत है वृंद के कुछ लोकप्रिय दोहे-


करत करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान,
रसरी आवत जात के, सिल पर परत निसान।

उत्तम विद्या लीजिए, जदपि नीच पै होय,
परो अपावन ठौर में, कंचन तजत न कोय।

सरसुति के भंडार की, बड़ी अपूरब बात,
ज्यों खरचे त्यों त्यों बढ़े, बिन खरचे घट जात।

सुनिए सबही की कही, करिए सहित विचार,
सर्व लोक राजी रहे, सो कीजे उपचार।

काहू को हंसिए नहीं, हंसी कलह कौ मूल,
हंसी ही ते है भयो, कुल कौरव निरमूल।

मूरख को हित के वचन, सुनि उपजत हे कोप,
सांपहि दूध पिवाइए, वाके मुख विष ओप।

अपनी पहुंचि विचारि के, करतब करिए दौर,
तेते पांव पसारिए, जेते लंबी सौर।

कुल सपूत जान्यो परै, लखि शुभ लच्छन गात,
होनहार बिरवान के, होत चीकने पात।

कबहूं प्रीति न जोरिए, जोरि तोरिए नाहिं,
ज्यों तोरे जोरे बहुरि, गांठि परत मन माहिं।

ग़ज़ल

रोज़-रोज़  यूं बुतख़ाने न जाया कर,
दिल में पहले बीज नेह के बोया कर।

वक़्त लौट कर चला गया दरवाज़े से,
ऐसी बेख़बरी से अब ना सोया कर।

तू ही एक नहीं है दुनिया में आलिम,
अपने फ़न पर न इतना इतराया कर।

औरों के चिथड़े दामन पर नज़रें क्यूं,
पहले अपनी मैली चादर धोया कर।

लोग देखकर मुंह फेरेंगे झिड़केंगे,
सरे आम ग़म का बोझा न ढोया कर।

मैंने तुमसे कुछ उम्मीदें पाल रखी हैं,
और नहीं तो थोड़ा सा मुसकाया कर।

नीचे भी तो झांक जरा ऐ ऊपर वाले,
अपनी करनी पर थोड़ा पछताया कर।

                                   
                                                             -महेन्द्र वर्मा      

अंजुरी भर सुख



तुम
जब भी आते हो
मुस्कराते हुए आते हो,
कौन जान सका है
इस मुस्कान के पीछे छिपी
कुटिलता को ?
 

हर बार तुम
दे जाते हो
करोड़ों आंखों को
दरिया भर आंसू
करोड़ों हृदय को
सागर भर संत्रास
और कर जाते हो
समय की छाती पर
अनगिनत घाव !
 

क्या इस बार
तुम कुछ बेहतर नहीं कर सकते ?
जिन्हें जरूरत  है उन्हें
क्या तुम
अंजुरी भर सुख नहीं दे सकते ?
बोलो, नववर्ष ......!

                                         -महेन्द्र वर्मा

ग़ज़ल



भीड़ में अस्तित्व अपना खोजते देखे गए,
मौन थे जो आज तक वे चीखते देखे गए।

आधुनिकता के नशे में रात दिन जो चूर थे,
ऊब कर फिर जि़ंदगी से भागते देखे गए।

हाथ में खंजर लिए कुछ लोग आए शहर में,
सुना हे मेरा ठिकाना पूछते देखे गए।

रूठने का सिलसिला कुछ इस तरह आगे बढ़ा,
लोग जो आए मनाने रूठते देखे गए।

लोग उठ कर चल दिए उसने सुनाई जब व्यथा,
और जो बैठे रहे वे ऊबते देखे गए।

बेशऊरी इस कदर बढ़ती गई उनकी कि वे,
काँच के शक में नगीने फेंकते देखे गए।

कह रहे थे जो कि हम हैं नेकनीयत रहनुमा,
काफिले को राह में ही लूटते देखे गए।

                                                                           
                                                                       -महेन्द्र वर्मा

दोहे


समर भूमि संसार है, विजयी होते वीर,
मारे जाते हैं सदा, निर्बल-कायर-भीर।


मुँह पर ढकना दीजिए, वक्ता होए शांत,
मन के मुँह को ढाँकना, कारज कठिन नितांत।


दुख के भीतर ही छुपा, सुख का सुमधुर स्वाद,
लगता है फल, फूल के, मुरझाने के बाद।


भाँति-भाँति के सर्प हैं, मन जाता है काँप,
सबसे जहरीला मगर, आस्तीन का साँप।


हो अतीत चाहे विकट, दुखदायी संजाल,
पर उसकी यादें बहुत, होतीं मधुर रसाल।


विपदा को मत कोसिए, करती यह उपकार,
बिन खरचे मिलता विपुल, अनुभव का उपहार।


प्राकृत चीजों का सदा, कर सम्मान सुमीत,
ईश्वर पूजा की यही, सबसे उत्तम रीत।

                       
                                                                             -महेन्द्र वर्मा





क्षणिकाएँ


1.
हम तो  
अक्षर हैं
निर्गुण-निरर्थक
तुम्हारी जिह्वा के खिलौने
अब 
यह तुम पर है कि
तुम हमसे
गालियाँ बनाओ
या
गीत




2.
मैंने तो 
सबको दिया
वही धरा
वही गगन
वही जल-अगन-पवन
अब तुम 
चाहे जिस तरह जियो
बुद्ध की तरह
या
बुद्धू की तरह

                                                    -महेन्द्र वर्मा

संत दीन दरवेश


सूफी संत दीन दरवेश के जन्मकाल के संबंध में कोई पुष्ट जानकारी नहीं मिलती। एक मत के अनुसार इनका जन्म विक्रम संवत 1810 में उदयपुर के निकट गुड़वी या कैलाशपुरी नामक ग्राम में हुआ था। दूसरे मत के अनुसार इनका जन्म गुजरात के डभोड़ा नामक ग्राम में वि.सं. 1867 में हुआ था।
अपने गुरु अतीत बालनाथ से दीक्षित होने के पूर्व ये अनेक हिंदू तथा मुस्लिम विद्वानों से मिल चुके थे और प्रसिद्ध तीर्थस्थलों की यात्रा कर चुके थे। यही कारण है कि इनके काव्य में सूफीवाद तथा वेदांत दर्शन के अतिरिक्त अन्य सम्प्रदायों की विचारधारा का प्रभाव परिलक्षित होता है।
कहते हैं कि दीन दरवेश ने अपने हृदय के पावन उद्गारों को व्यक्त करते हुए सवा लाख कुंडलियों की रचना कर ली थी किंतु उनकी अधिकांश रचनाएँ अप्राप्य हैं। इनकी कुंडलियों का एक लघु संग्रह वि.सं. 2008 में गुजराती लिपि में अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ था। इनके काव्य के प्रमुख विषय माया, ईश्वर प्रेम, सहज जीवन, विश्वप्रेम, परोपकार आदि हैं।
संवत 1910 में चंबल नदी में स्नान करते समय डूब जाने से इनका देहावसान हुआ था।

प्रस्तुत है, संत दीन दरवेश की 3 कुंडलियां-

1.
माया माया करत है, खाया खर्च्या नाहिं,
आया जैसा जाएगा, ज्यूँ बादल की छाँहिं।
ज्यूँ बादल की छाँहि, जायगा आया जैसा,
जान्या नहिं जगदीस, प्रीत कर जोड़ा पैसा।
कहत दीन दरवेश, नहीं है अम्मर काया।
खाया खर्च्या नाहिं, करत है माया माया।


2.
बंदा कहता मैं करूँ, करणहार करतार,
तेरा कहा सो होय नहिं, होसी होवणहार।
होसी होवणहार, बोझ नर बृथा उठावे,
जो बिधि लिखा लिलार, तुरत वैसा फल पावे।
कहत दीन दरवेश, हुकुम से पान हलंदा,
करणहार करतार, तुसी क्या करसी बंदा।


3.
सुंदर काया छीन की, मानो क्षणभंगूर,
देखत ही उड़ जायगा, ज्यूँ उडि़ जात कपूर।
ज्यूँ उडि़ जात कपूर, यही तन दुर्लभ जाना,
मुक्ति पदारथ काज, देव नरतनहिं बखाना।
कहत दीन दरवेश, संत दरस जिन पाया,
क्षणभंगुर संसार, सुफल भइ सुंदर काया।

गीतिका : दिन



सूरज का हरकारा दिन,
फिरता मारा-मारा दिन।


कहा सुबह ने हँस लो थोड़ा, 
फिर रोना है सारा दिन।


जिनकी किस्मत में अँधियारा,
तब क्या बने सहारा दिन।


इतराता आया पर लौटा, 
थका-थका सा हारा दिन।


रात-रात भर गायब रहता,
जाने कहाँ कुँवारा दिन।


मेरे ग़म को वह क्या समझे,
तारों का हत्यारा दिन।

                                                -महेन्द्र वर्मा

दो कविताएँ


एक

उस दिन
आईने में मेरा प्रतिबिंब
कुछ ज्यादा ही अपना-सा लगा
मैंने उससे कहा-
तुम ही हो 
मेरे सुख-दुख के साथी
मेरे अंतरंग मित्र !
प्रतिबिंब के उत्तर ने 
मुझे अवाक् कर दिया
उसने कहा-
तुम भ्रम में हो
मैं ही तो हूँ 
तुम्हारा
सबसे बड़ा शत्रु भी !

दो

इंसान को 
इंसान ही रहने दो न
क्यूँ उकसाते हो उसे
बनने के लिए
भगवान या शैतान
अरे, धर्म !
अरी, राजनीति !

                                      -महेन्द्र वर्मा

भक्ति संगीत



पूजा से स्तोत्र करोड़ गुना श्रेष्ठ है, स्तोत्र से जप करोड़ गुना श्रेष्ठ है, जप से करोड़ गुना श्रेष्ठ गान है। गान से बढ़कर उपासना का अन्य कोई साधन नहीं है।

पूजा कोटिगुणं स्तोत्रं, स्तोत्रात्कोटिगुणो जपः।
जपात्कोटिगुणं गानं, गानात्परतरं नाहिं।।

स्वमुक्ति और जनसामान्य में धर्म के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करना भक्तिकाल के संतों का प्रमुख लक्ष्य था। मीरा, सूर, तुलसी, कबीर, रैदास, चैतन्य महाप्रभु, गुरु नानकदेव आदि संतों ने अपने विचारों को काव्य का रूप देकर संगीत के माध्यम से सजाया, संवारा एवं जनसामान्य के कल्याणार्थ उसका प्रचार-प्रसार किया। भक्ति मार्ग पर चलते समय संगीत इनके लिए ईश्वरोपासना का श्रेष्ठतम साधन था।

भक्ति का प्रचार करने वाले संतों ने रस एवं भाव को आधार बना कर शास्त्रीय संगीत की सहायता से उसके धार्मिक, आध्यात्मिक और सामाजिक स्वरूप का संवर्धन किया। इनके द्वारा रचित भक्तिकाव्य- गीत, भजन, कीर्तन और पद- के प्रारंभ में विभिन्न रागों, यथा-सारंग, काफी, आसावरी, कल्याण, कान्हड़ा, मल्हार, बसंत आदि का उल्लेख मिलता है।

भक्तिगायन की प्रक्रिया शास्त्रीय रीति से सुनियोजित होती थी। नित्यक्रम में राग भैरव व गांधार आदि से प्रारंभ होकर बिलावल, तोड़ी, आसावरी आदि से गुजरते हुए पूर्वी, कल्याण आदि के सहारे सायंकाल तक पहुंचती थी। अंत में शयनकाल में विहाग राग की स्वरावलियों का प्रयोग होता था।


प्रस्तुत है, अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन के स्वर में  तुलसीदास जी कृत गणेश वंदना जो राग मारवा में निबद्ध है -

                                            

                                                                                                                                    -महेन्द्र वर्मा

हमन है इश्क मस्ताना




क्या यह हिंदी की पहली ग़ज़ल है ?

कबीर साहब का प्रमुख ग्रंथ ‘बीजक‘ माना जाता है। इसमें तीन प्रकार की रचनाएं सम्मिलित हैं- साखी, सबद और रमैनी। यहां कबीर की एक ऐसी रचना प्रस्तुत है जो न तो बीजक में है और न ही श्याम सुंदर दास रचित ‘कबीर ग्रंथावली‘ में।


प्रतीत होता है कि विशुद्ध ग़ज़ल शैली में लिखी गई यह आध्यात्मिक रचना कबीर द्वारा कही गई न होकर किसी परवर्ती कबीरपंथी साधु द्वारा लिखी गई । रचना की अंतिम पंक्ति यानी मक़्ते में कबीर शब्द आने के कारण इसे कबीर कृत मान लिया गया। प्राचीन ग्रंथों में इस तरह की प्रक्षिप्त रचनाएं मिलती रही हैं। आज से लगभग 100 वर्ष पूर्व वेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद से 4 भागों में  प्रकाशित ‘कबीर साहब की शब्दावली‘ नामक पुस्तक प्रकाशित हुई थी। इसी पुस्तक में अन्य पदों के साथ ग़ज़ल शैली की यह एकमात्र रचना भी संकलित है।


यदि यह कबीर द्वारा कही गई है तो क्या इसे हिंदी की पहली ग़ज़ल कह सकते हैं ?

हमन है इश्क़ मस्ताना, हमन को होशियारी क्या,
रहें आजाद या जग में, हमन दुनिया से यारी क्या।

जो बिछड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में, हमन को इंतज़ारी क्या।

खलक सब नाम जपने को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरु नाम सांचा है, हमन दुनिया से यारी क्या।

न पल बिछड़ें पिया हमसे, न हम बिछड़ें पियारे से,
उन्ही से नेह लागी है, हमन को बेक़रारी क्या।

कबीरा इश्क़ का नाता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाजुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या।


दूरदर्शन धारावाहिक ‘कबीर‘ में कबीर की भूमिका निभाने वाले अन्नू कपूर ने इस ग़ज़ल 
को अपना स्वर दिया है, बिना वाद्य के। सुनना चाहें तो यहां सुन लीजिए।

                                                                                                 -महेन्द्र वर्मा

दोहे: तन-मन-धन-जन-अन्न


जहाँ-जहाँ पुरुषार्थ है, प्रतिभा से संपन्न, 
संपति पाँच विराजते, तन-मन-धन-जन-अन्न।


दुख है जनक विराग का, सुख से उपजे राग,
जो सुख-दुख से है परे, वह देता सब त्याग।


ऐसी विद्या ना भली, जो घमंड उपजात,
उससे तो मूरख भले, जाने शह ना मात।


ईश्वर मुझको दे भले, दुनिया भर के कष्ट,
पर मिथ्या अभिमान को , मत दे, कर दे नष्ट।


जो भी है इस जगत में, मिथ्या है निस्सार,
माँ की ममता सत्य है,  करें सभी स्वीकार।


                                                                              -महेन्द्र वर्मा

झिलमिल झिलमिल झिलमिल


दीपों से आलोकित
डगर-डगर, द्वार-द्वार।


पुलकित प्रकाश-पर्व,
तम का विनष्ट गर्व,
यत्र-तत्र छूट रहे
जुग-जुगनू के अनार।


नव तारों के संकुल,
कोरस गाएं मिलजुल,
संगत करते सुर में,
फुलझडि़यों के सितार।


सब को शुभकामना,
सुख से हो सामना,
झिलमिल झिलमिल झिलमिल,
खुशियां छलके अपार।

                                          -महेंद्र वर्मा

संत कवि परसराम


संत कवि परसराम का जन्म बीकानेर के बीठणोकर कोलायत नामक स्थान पर हुआ था। इनका जन्म वर्ष संवत 1824 है और इनके देहावसान का काल पौष कृष्ण 3, संवत 1896 है। परसराम जी संत रामदास के शिष्य थे।
राम नाम को सार रूप में ग्रहण करके संत कवि ने वचन पालन, नाम जप, सत्संगति करना, विषय वासनाओं का त्याग, हिंसा का त्याग, अभिमान का त्याग तथा शील स्वभाव अपनाने पर जोर दिया।
उनका कहना है कि अंत समय में सभी को मरना है, फिर जब तक जीवन है तब तक सुकर्म ही करना चाहिए। परसराम के काव्य में सहज भावों की अभिव्यक्ति सहज भाषा में की गई है। उनकी भाषा में राजस्थानी और खड़ी बोली का पुट दिखाई देता है। उन्होंने अधिकांश उपदेश छप्पय छंद में लिखे हैं। दोहों में जगत और जीवन के संजीवन बोध को प्रकट किया है जो अत्यंत सहज और सरल है।

प्रस्तुत है संत परसराम जी रचित कुछ दोहे-

प्रथम शब्द सुन साधु का, वेद पुराण विचार,
सत संगति नित कीजिए, कुल की काण विचार।

झूठ कपट निंदा तजो, काम क्रोध हंकार,
दुर्मति दुविधा परिहरो, तृष्णा तामस टार।

राग दोस तज मछरता, कलह कल्पना त्याग,
संकलप विकलप मेटि के, साचे मारग लाग।

पूरब पुण्य प्रताप सूं, पाई मनखा देह,
सो अब लेखे लाइए, छोड़ जगत का नेह।

धीरज धरो छिमा गहो, रहो सत्य व्रत धार,
गहो टेक इक नाम की,  देख जगत जंजार।

दया दृष्टि नित राखिए, करिए पर उपकार,
माया खरचो हरि निमित, राखो चित्त उदार।

जल को पीजे छानकर, छान बचन मुख बोल,
दृष्टि छान कर पांव धर, छान मनोरथ तोल।

जति पांति का भरम तज, उत्तम करमा देख,
सुपात्तर को पूजिए, का गृहस्थ का भेख।

कहाँ तुम चले गए / 10.10.2011



दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है



कलाकार
ईश्वर की सबसे प्यारी संतान होता है।
हे ईश्वर !
तुम जब भी अपनी बनाई दुनिया के
तमाम दंद-फंद से
कुछ पलों के लिए अलग होकर
अकेले होना चाहते  होगे,
अपने आत्म के सबसे करीब बेठना चाहते होगे,
मुझे यकीन है, 
उस समय तुम जगजीत सिंह को सुनते होगे।
हे ईश्वर ! 
अपनी आत्मा पर लगी हुई हर खुरच को
तुम जगजीत की आवाज के मखमल से
पोंछा करते होगे। 
मुझे यकीन है !

                                                                      -गीत चतुर्वेदी




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 दुनिया थोड़ी भली लगेगी



बज़्मे-ज़ीस्त सजाकर देख,
क़ुदरत के संग गा कर देख।


घर आएगा नसीब तेरा,
अपना पता लिखाकर देख।


रब तो तेरे दिल में ही है, 
सर को ज़रा झुका कर देख।


जानोगे हमदर्द कौन है,
कोई साज बजा कर देख।


क़ुदरत नेमत बाँट रही है,
दामन तो फैला कर देख।


दिल के ज़ख़्म कहाँ भरते हैं,
आँसू चार बहा कर देख।


दुनिया थोड़ी भली लगेगी,
ख़ामोशी अपना कर देख।

                                        -महेंद्र वर्मा

देहि सिवा बर मोहि इहै


 गुरु गोविंदसिंह जी विरचित सुविख्यात ग्रंथ ‘श्री दसम ग्रंथ‘ एक अद्वितीय आध्यात्मिक और धार्मिक साहित्य है। इस ग्रंथ में गुरु जी ने लगभग 150 प्रकार के वार्णिक और मात्रिक छंदों में भारतीय धर्म के ऐतिहासिक और प्रागैतिहासिक पात्रों के जीवन-वृत्तों की जहाँ एक ओर पुनर्रचना की है, वहीं देवी चंडी के प्रसंगों एवं चैबीस अवतारों के माध्यम से लोगों में धर्म-युद्ध का उत्साह भी भरा है।

 ‘जापु‘, ‘अकाल उसतति‘, ‘तैंतीस सवैये‘ आदि रचनाएँ आध्यात्मिक विकास एवं मानसिक उत्थान के मार्ग में आने वाले अवरोधों और उनके निराकरण का मार्ग प्रस्तुत करते हुए प्रेम को भगवद्प्राप्ति का सबल साधन मानती हैं।

‘चंडी चरित‘, ‘चंडी दी वार‘ स्त्री शक्ति को स्थापित करते हुए समाज में स्त्री को उचित सम्मान दिलाने का संकेत करती हैं।

प्रस्तुत है, ‘श्री दसम ग्रंथ‘ के अंतर्गत ‘चंडी चरित्र उकति बिलास‘ से उद्धरित आदिशक्ति देवी शिवा की अर्चना-

देहि सिवा बर मोहि इहै, सुभ करमन ते कबहूँ न टरौं।
न डरौं अरि सों जब जाई लरौं, निसचै करि आपनि जीत करौं।।
अरु सिखहों आपने ही मन को, इह लालच हउ गुन तउ उचरौं।
जब आव की अउध निदान बनै, अति ही रन में तब जूझ मरौं।।

अर्थ- हे परम पुरुष की कल्याणकारी शक्ति ! मुझे यह वरदान दो कि मैं शुभ कर्म करने में न हिचकिचाऊँ। रणक्षेत्र में शत्रु से कभी न डरूँ और निश्चयपूर्वक युद्ध को अवश्य जीतूँ। अपने मन को शिक्षा देने के बहाने मैं हमेशा ही तुम्हारा गुणानुवाद करता रहूँ तथा जब मेरा अंतिम समय आ जाए तो मैं युद्धस्थल में धर्म की रक्षा करते हुए प्राणों का त्याग करूँ।

दोहे : गूँजे तार सितार


कभी सुनाती लोरियाँ, कभी मचातीं शोर,
जीवन सागर साधता, इन लहरों का जोर।


कटुक वचन अरु क्रोध में, चोली दामन संग,
एक बढ़े दूसर बढ़े, दोनों का इक रंग।


साथ न दे जो कष्ट में, दुश्मन उसकों जान,
दूरी उससे उचित है, मन में लो यह ठान।


 द्वेषी मानुष आपनो, कहे न मन की बात,
केवल पर के हृदय में, पहुँचाए आघात।


ज्यों मिजरब की चोट से, गूँजे तार सितार,
तैसे नेहाघात से, हृदय ध्वनित सुविचार।


जो मनुष्य कर ना सके, नारी का सम्मान,
दया क्षमा अरु नेह का, नहीं पात्र वह जान।


मान प्रतिष्ठा के लिए, धन आवश्यक नाहिं,
सद्गुण ही पर्याप्त है, गुनिजन कहि-कहि जाहिं।


                                                                            -महेंद्र वर्मा

नवगीत


आश्विन के अंबर में
रंगों की टोली,
सूरज की किरणों ने
पूर दी रंगोली।


नेह भला अपनों का,
मीत बना सपनों का,
संध्या की आंखों में
चमकती ठिठोली।


आश्विन के अंबर में,
रंगों की टोलीं।


उष्णता पिघलती है,
आस नई खिलती है,
आने को आतुर है,
शीतलता भोली।


सूरज की किरणों ने 
पूर दी रंगोली।

                                     -महेंद्र वर्मा

कुछ लोग




सच्चाई की बात करो तो, जलते हैं कुछ लोग,
जाने कैसी-कैसी बातें, करते हैं कुछ लोग।


धूप, चांदनी, सीप, सितारे, सौगातें हर सिम्त,
फिर भी अपना दामन ख़ाली, रखते हैं कुछ लोग।


उसके आंगन फूल बहुत है, मेरे आंगन धूल,
तक़दीरों का रोना रोते रहते हैं कुछ लोग।


इस बस्ती से शायद कोई, विदा हुई है हीर,
उलझे-उलझे, खोए-खोए, दिखते हैं कुछ लोग।


ख़ुशियां लुटा रहे जीवन भर, लेकिन अपने पास,
कुछ आंसू, कुछ रंज बचाकर, रखते हैं कुछ लोग।


इतना ही कहना था मेरा, बनो आदमी नेक,
हैरां हूं, यह सुनते ही क्यूं, हंसते हैं कुछ लोग।


जुल्म ज़माने भर का जिसने, सहन किया चुपचाप,
उसको ही मुज़रिम ठहराने लगते हैं कुछ लोग।



                                                                -महेंद्र वर्मा

सूफी संत मंसूर




सन् 858 ई. में ईरान में जन्मे सूफी संत मंसूर एक आध्यात्मिक विचारक, क्रांतिकारी लेखक और सूफी मत के पवित्र गुरु के रूप में प्रसिद्ध हुए। इनका पूरा नाम मंसूर अल हलाज था।

इनके पिता का जीवन अत्यंत सादगीपूर्ण था। बालक मंसूर पर इसका व्यापक असर हुआ। सांसारिक माया-मोह के प्रति ये विरक्त थे। इन्होंने सूफी महात्मा जुनैद बगदादी से आध्यात्म की शिक्षा ग्रहण की। बाद में अमर अल मक्की और साही अल तुस्तारी भी मंसूर के गुरु हुए।

मंसूर ने देश-विदेश की यात्राएं की। इस दौरान उन्होंने भारत और मध्य एशिया के अन्य देशों का भ्रमण किया। वे एक वर्ष तक मक्का में रहकर आध्यात्मिक चिंतन करते रहे। इसके बाद उन्होंने एक क्रांतिकारी वाक्य का उच्चारण करना शुरू कर दिया- ‘अनल हक‘, अर्थात, मैं सत्य हूं, और फिर बार-बार इस वाक्य को दुहराते रहे। ईरान के शासक ने समझा कि मंसूर स्वयं को परमात्मा कह रहा है । इसे गंभीर अपराध माना गया और उन्हें 11 वर्ष कैद की सजा दे दी गई। 

अनल हक कहने का मंसूर का आशय यह था कि जीव और परमात्मा में अभेद है। यह विचार हमारे उपनिषदों का एक सूत्र- अहं ब्रह्मास्मि के समान है।

सच बोलने वालों को नादान दुनियावी लोगों ने सदैव मौत की सजा दी है। सुकरात से रजनीश तक, सब की एक ही कहानी है। 26 मार्च, 922 ई. को संत मंसूर को अत्यंत क्रूर तरीके से अपार जन समुदाय के सामने मृत्युदण्ड दे दिया गया। पहले उनके पैर काटे गए, फिर हाथ और अंत में सिर। इस दौरान संत मंसूर निरंतर मुस्कुराते रहे, मानो कह रहे हों कि परमात्मा से मेरे मिलने की राह को काट सकते हो तो काटो।
मंसूर की आध्यात्मिक रचनाएं ‘किताब-अल-तवासीन‘ नामक पुस्तक में संकलित हैं।

प्रस्तुत है, संत मंसूर की एक आध्यात्मिक ग़ज़ल। यह रचना उर्दू में है। संत मंसूर उर्दू नहीं जानते थे इसलिए यह ग़ज़ल प्रत्यक्ष रूप से उनके द्वारा रचित नहीं हो सकती। संभव है, उनके किसी हिंदुस्तानी अनुयायी ने उनकी फ़ारसी रचना को उर्दू में अनुवाद किया हो। चूंकि ग़ज़ल में अनल हक और मक्ते में मंसूर आया है इसलिए इसे मंसूर रचित ग़ज़ल का उर्दू अनुवाद माना जा सकता है। बहरहाल, प्रस्तुत है, ये आध्यात्मिक ग़ज़ल-

अगर है शौक मिलने का, तो हरदम लौ लगाता जा,
जलाकर ख़ुदनुमाई को, भसम तन पर लगाता जा।

पकड़कर इश्क की झाड़ू, सफा कर हिज्र-ए-दिल को,
दुई की धूल को लेकर, मुसल्ले पर उड़ाता जा।

मुसल्ला छोड़, तसवी तोड़, किताबें डाल पानी में,
पकड़ तू दस्त फरिश्तों का, गुलाम उनका कहाता जा।

न मर भूखा, न रख रोज़ा, न जा मस्जिद, न कर सज्दा,
वजू का  तोड़  दे  कूजा, शराबे  शौक  पीता  जा।

हमेशा खा, हमेशा पी, न गफलत से रहो एकदम
नशे में सैर कर अपनी, ख़ुदी को तू जलाता जा।

न हो मुल्ला, न हो बह्मन, दुई की छोड़कर पूजा,
हुकुम शाहे कलंदर का, अनल हक तू कहाता जा।

कहे ‘मंसूर‘ मस्ताना, ये मैंने दिल में पहचाना,
वही मस्तों का मयख़ाना, उसी के बीच आता जा।