चकित हुआ हूं


तिक्त हुए संबंध सभी मैं 
व्यथित हुआ हूं,
नियति रूठ कर चली गई या,
भ्रमित हुआ हूं।
दुर्दिन में भी बांह छुड़ा कर 
चल दे ऐसे,
मित्रों के अपकार भार से 
नमित हुआ हूं।
क्षुद्रकाय तृण का बिखरा 
साम्राज्य धरा पर,
पतझड़ में भी हरा-भरा क्यों
चकित हुआ हूं।
अनुशीलन कर ग्रंथ सहस्त्रों
ज्ञात हुआ तब,
बुद्धि, विवेक, ज्ञान, कौशल से
रहित हुआ हूं।

                                         -महेन्द्र वर्मा

मानवता


ढूंढूं कहां, कहां खो जाती मानवता,
अभी यहीं थी बैठी रोती मानवता।


रहते हैं इस बस्ती में पाषाण हृदय,
इसीलिए आहत सी होती मानवता।


मानव ने मानव का लहू पिया देखो,
दूर खड़ी स्तब्ध कांपती मानवता।


दंशित हुई कुटिल भौंरों से कभी कली,
लज्जित हो मुंह मोड़ सिसकती मानवता।


है कोई इस जग में मानव कहें जिसे,
पूछ पूछ कर रही भटकती मानवता।


सुना भेड़िए ने पाला मानव शिशु को,
क्या जंगल में रही विचरती मानवता।


उसने उसके बहते आंसू पोंछ दिए,
वो देखो आ गई विहंसती मानवता।

                                                            -महेन्द्र वर्मा

नवगीत


पोखर को सोख रही
जेठ की दुपहरी,
मरुथल की मृगतृष्णा
सड़कों पर पसरी।


धू-धू कर धधक रहे
किरणों के शोले,
उग आए धरती के 
पांव पर फफोले।


शीतलता बंदी है 
सूर्य की कचहरी।
मरुथल की मृगतृष्णा
सड़कों पर पसरी।


उबली हवाओं की 
पोटली खुली है,
बुधियारिन नीम तले
छांव सी रही है।


जमुहाई लेती है
मुंह खोले गगरी।
पोखर को सोख रही
जेठ की दुपहरी।

                             -महेन्द्र वर्मा

दोहे


सगे पराये बन गये, दुर्दिन की है मार,
छाया भी संग छोड़ दे, जब आए अंधियार।


कान आंख दो दो मिले, जिह्वा केवल एक,
अधिक सुनें देखें मगर, बोलें मित अरु नेक।


दुनिया में दो ताकतें, कलम और तलवार,
किंतु कलम तलवार से, कभी न खाये हार।


मन को वश में कीजिए, मन से बारम्बार,
जैसे लोहा काटता, लोहे का औजार।


गुनियों ने बतला दिया, जीवन का यह मर्म,
गिरता-पड़ता भाग है, चलता रहता कर्म।


जग में जितने धर्म हैं, सब की अपनी रीत,
धरती कितनी नेक है, करती सबसे प्रीत।


सभी प्राणियों के लिए, अमृत आशावाद,
जैसे सूरज वृक्ष को, देता पोषण खाद।

                                                          -महेन्द्र वर्मा


रंगमंच


हित रक्षक भक्षक बन जाए क्या कर लोगे,
सुख ही दुखदायक बन जाए क्या कर लोगे।


बहिरंतर में भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व सजाए
मित्र कभी निंदक बन जाए क्या कर लोगे।


पल पल दृश्य हुए परिवर्तित धरे मुखौटे,
जीवन यदि नाटक बन जाए क्या कर लोगे।


विश्वासों के धवल वसन में छिद्र हैं इतने,
सूत्र सूत्र जालक बन जाए क्या कर लोगे।


शुभ्र विवेकवान हंसों के मध्य दंभवश ,
कागा उपदेशक बन जाए क्या कर लोगे।


शूल चुभोया अपनों ने जो कभी हृदय में
घाव वही घातक बन जाए क्या कर लोगे।

                                                                 -महेन्द्र वर्मा

अब हमारे शहर का दस्तूर है यह



घबराइये मत

इस ज़माने की चलन से चौंकिये मत,
कीजिये कुछ, थामकर सिर बैठिये मत।


आज गलियों की हवा कुछ गर्म सी है,
भूलकर भी खिड़कियों को खोलिये मत।


अब हमारे शहर का दस्तूर है यह,
हादसों के बीच रहिये भागिये मत।


मोम के घर में छिपे बैठे हुए जो,
आंच की उम्मीद उनसे कीजिये मत।



रौशनी तो झर रही है तारकों से,
अब अंधेरी रात को तो कोसिये मत।


                                                                       -महेन्द्र वर्मा




स्वामी रामतीर्थ


                   कौन थे वे ?

‘मेरे लिए तो वृक्ष की छाया मकान का काम दे सकती है,राख मेरी पोशाक का, सूखी धरती मेरे बिस्तर का और दो-चार घरों से मांगी रोटी मेरे भोजन का।‘
उक्त बातें मिशन कॉलेज लाहौर के गणित के एक प्रोफेसर ने सन् 1896 में एक पत्र में लिखी थी। ....कौन थे वे ?
एक बार उनका नाम प्रांतीय सिविल सेवा के लिए प्रस्तावित किया गया तो उन्होंने अस्वीकार कर दिया। नौकरी छोड़कर उर्दू में ‘अलिफ‘ नाम की पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया। विभिन्न तीर्थों की यात्राएं कीं। भारतीय और पाश्चात्य दर्शन ग्रंथों का अध्ययन किया। द्वारकापीठ के शंकराचार्य और स्वामी विवेकानंद के संपर्क में आए।
........कौन थे वे ?
सन् 1900 ई. में तीर्थयात्रा के दौरान अपने पास की सारी संपत्ति गंगा में बहा दी।
पत्नी को परिजनों के सहारे छोड़कर सन्यास ग्रहण किया और हिमालय की शरण में चले गए। सर्वधर्म सम्मेलन में व्याख्यान देने अमेरिका और जापान की यात्राएं कीं।.....कौन थे वे ?
अनेक लेखों-व्याख्यानों के अतिरिक्त उन्होंने अंग्रेजी में 100 और उर्दू में 150 कविताएं लिखीं। संयोग देखिए- 22 अक्टूबर, 1873 ई. को दीपावली के दिन पंजाब के गुजरांवाला जिले के मुरारीवाला गांव में उनका जन्म हुआ और 17 अक्टूबर, 1906 ई. को दीपावली के ही दिन मात्र 33 वर्ष की आयु में उन्होंने गंगा में जल समाधि ग्रहण कर ली।......कौन थे वे ?
वे महान विभूति थे- प्रसिद्ध विद्वान, संत, दार्शनिक, गणितज्ञ, और कवि स्वामी रामतीर्थ।

प्रस्तुत है, उर्दू में उनकी एक दार्शनिक भावों वाली कविता-

जब उमड़ा दरिया उल्फ़त का, हर चार तरफ आबादी है।
हर रात नई इक शादी है, हर रोज मुबारकबादी है।
ख़ुश ख़ंदा है रंगा गुल का, ख़ुश शादी शाह मुरादी है।
बन सूरज आप दरफ़्शां है, ख़ुद जंगल है,ख़ुद वादी है।
नित राहत है, नित फ़र्हत है, नित रंग नए, आजादी है।


हर रग रेशे में हर मू में, अमृत भर-भर भरपूर हुआ।
सब कुल्फ़त दूरी दूर हुई, मन शादी मर्ग से चूर हुआ।
हर बर्ग बधाइयां देता है, हर जर्रा-जर्रा तूर हुआ।
जो है सो है अपना मजहर, ख़्वाह आबी नारी बादी है।
क्या ठंडक है, क्या राहत है, क्या शादी है, आजादी है।


रिमझिम रिमझिम आंसू बरसें, यह अब्र बहारें देता है।
क्या खूब मजे की बारिश में, वह लुत्फ़ वस्ल का लेता है।
किश्ती मौजों में डूबे हैं, बदमस्त उसे कब खेता है।
यह गर्क़ाबी है जी उठना, मत झिझको उफ बरबादी है।
क्या ठंडक है क्या राहत है, क्या शादी है, आजादी है।


मातम, रंजूरी, बीमारी, गलती, कमजोरी, नादारी।
ठोकर ऊंचा नीचा मिहनत, जाती है इन पर जां वारी।
इन सब की मददों के बाइस, चश्मा मस्ती का है जारी।
गुम शीर की शीरीं तूफों में, कोह और तेशा फरहादी है।
क्या ठंडक है क्या राहत है, क्या शादी है, आजादी है।


इस मरने में क्या लज़्ज़त है, जिस मुंह की चाट लगे इसकी।
थूके हैं शाहंशाही पर, सब नेमत दौलत हो फीकी।
मय चहिए दिल सिर दे फूंको,और आग जलाओ भट्ठी की।
क्या सस्ता बादा बिकता है, ले लो का शोर मुनादी है।
क्या ठंडक है क्या राहत है, क्या शादी है, आजादी है।


दिन शब का झगड़ा न देखा, गो सूरज का चिट्ठा सिर है।
जब खुलती दीद-ए-रौशन है,हंगामा-ए-ख़्वाब कहां फिर है।
आनंद सरूर समंदर है, जिसका आगाज़ न आख़िर है।
सब राम पसारा दुनिया का, जादूगर की उस्तादी है।
नित राहत है नित फ़र्हत है, नित रंग नए, आजादी है।

संत ललित किशोरी


(हमारे देश में ऐसा भी समय था जब लोग लाखों-करोड़ों की पैतृक संपत्ति को त्याग कर सन्यासी बन जाया करते थे और आज का समय है जब लोग तथाकथित सन्यासी बन कर करोड़ों-अरबों की संपत्ति एकत्रित करने में लगे रहते हैं।)



संत ललित किशोरी का जन्म समय अज्ञात है किंतु ये भारतेंदु हरिश्चंद्र के समकालीन थे। लखनउ के प्रसिद्ध जौहरी शाह गोविंद दास के दो पुत्र हुए, शाह कुंदनलाल और शाह फुंदनलाल।  संवत 1913 विक्रमी में दोनों भाई लखनउ छोड़कर वृंदावन चले आए और भगवद्भक्ति में लीन हो गए। शाह कुंदन लाल ललित किशोरी के नाम से और शाह फुंदन लाल ललित माधुरी के नाम से भक्तिपदों की रचना करने लगे। इन्होंने लगभग दस हजार पदों की रचना की। ललित किशोरी जी का देहावसान कार्तिक शुक्ल 2, संवत 1930 विक्रमी को हुआ।

प्रस्तुत है, ललित किशोरी जी का एक पद-

दुनिया के परपंचों में हम, मजा कछू नहिं पाया जी,
भाई बंधु पिता माता पति, सब सों चित अकुलाया जी।
छोड़ छाड़ घर गांव नांव कुल, यही पंथ मन भाया जी,
ललित किशोरी आनंदघन सों, अब हठि नेह लगाया जी।


क्या करना है संतति संपति, मिथ्या सब जग माया है,
शाल दुशाले हीरा मोती, में मन क्यों भरमाया है।
माता पिता पती बंधू सब, गोरखधंध बनाया है,
ललित किशोरी आनंदघन हरि, हिरदे कमल बसाया है।


बन बन फिरना बिहतर हमको, रतन भवन नहिं भावे है,
लता तरे पड़ रहने में सुख, नाहिन सेज सुहावे है।
सोना कर धरि सीस भला अति, तकिया ख्याल न आवे है,
ललित किशोरी नाम हरी का, जपि जपि मन सचि पावे है।


तजि दीनो जब दुनिया दौलत, फिर कोइ के घर जाना क्या,
कंद मूल फल पाय रहें अब, खट्टा मीठा खाना क्या।
छिन में साही बकसैं हमको, मोती माल खजाना क्या,
ललित किशोरी रूप हमारा, जानैं ना तहं जाना क्या।


अष्टसिद्धि नवनिद्धि हमारी, मुट्ठी में हरदम रहती,
नहीं जवाहिर सोना चांदी, त्रिभुवन की संपति चहती।
भावे न दुनिया की बातें, दिलबर की चरचा सहती,
ललित किशोरी पार लगावे, माया की सरिता बहती।

संत बुल्लेशाह


ना मैं मुल्ला ना मैं काजी



                                       लाहौर जिले के पंडील गांव में विक्रम संवत 1737 में संत बुल्लेशाह का जन्म हुआ। इनके पिता शाह मुहम्मद दरवेश अरबी तथा फारसी भाषाओं के अच्छे ज्ञाता थे। बुल्लेशाह पहले साधु दर्शनीनाथ के संपर्क में रहे और फिर इनायत शाह के संपर्क में आ गए। ये आजीवन ब्रह्मचारी रहे और कुसूर नामक स्थान में निवास करते हुए सदैव अपनी साधना में लीन रहे। इस्लाम और सूफी धर्म -शिक्षा, धर्म-ग्रंथों के व्यापक और गहन अध्ययन से बुल्लेशाह में जहां गहन संस्कारों का प्रभाव पड़ा, वहां परमात्मा को पाने की अपूर्व लौ भी लग गई।
                                     संत बुल्लेशाह की विचारधारा, सूफीमत की ही भांति, वेदांत से भी बहुत कुछ प्रभावित थी। कबीर साहब के समान विचार की स्वतंत्रता में इनकी आस्था थी। उन्ही की भांति ये बाह्याडंबर के कट्टर विरोधी थे। इनकी धारणा थी कि मंदिर -मस्जिद में प्रेमरूपी परमात्मा का निवास होना असंभव है। इनके अनुसार सरलहृदय होना तथा अहंकार का परित्याग सबसे अधिक आवश्यक है। ये अपना काफिर होना स्वीकार करते थे। इनका देहावसान विक्रम संवत 1810 में हुआ। कसूर के निकट पांडोके नामक गांव में इनकी मजार है जहां प्रतिवर्ष उर्स लगता है।

प्रस्तुत है, संत बुल्लेशाह का एक पद-

टुक बूझ कौन छप आया है।
इक नुकते में जो फेर पड़ा, तब ऐन गैन का नाम धरा।
जब मुरसिद नुकता दूर कियो, तब ऐनो ऐन कहाया है।
तुसीं इल्म किताबा पढ़दे हो, केहे उलटे माने करते हो।
वे मुजब ऐबें लड़दे हो, केहा उलटा बेद पढ़ाया है।
दुइ दूर करो कोई सोर नहीं, हिंदू तुरक कोई होर नहीं।
सब साधु लखो कोइ चोर नहीं, घट घट में आप समाया है।
ना मैं मुल्ला ना मैं काजी, ना मैं सुन्नी ना मैं हाजी।
बुल्लेशाह नाल जाइ बाजे, अनहद सबद बजाया है।

भावार्थ-
जरा देखो, अगोचर वेश में कौन आया है। जिस प्रकार अरबी के एक अक्षर ऐन में एक नुकता या बिंदु लगा देने से वह गैन बन जाता है, उसी प्रकार पूर्ण परमात्मा भी केवल नाम-रूप की उपाधि के कारण सीमित जान पड़ता है। सतगुरु ने यह भ्रम दूर किया। तुम ज्ञान और धर्मशास्त्र की किताबें पढ़ते हो और उलटे अर्थ लगाकर आपस में लड़ते हो। हिंदू और तुर्क भिन्न नहीं हैं, दोनों में परमात्मा का वास है। इसलिए सभी साधु हैं। मैं मुल्ला, काजी, सुन्नी या हाजी नहीं हूं। बुल्लेशाह कहते हैं कि मेरे निकट तो केवल उस परमात्मा का अनहद नाद ही सुनाई देता है।

नारायण स्वामी


दो दिन कौ मेहमान



नारायण स्वामी का जन्म विक्रम संवत 1886 में रावलपिंडी में हुआ। ये बाल्यावस्था से ही संतों और भगवद्भक्तों में विशेष रुचि रखते थे। संवत 1900 में ये वृंदावन की यात्रा के लिए निकले और वहीं रहने लगे। जीविका निर्वाह के लिए लालबाबू के मंदिर के कार्यालय में नौकरी कर ली। दिन भर काम करते और रात को मंदिरों में जाकर श्रीकृष्ण के दर्शन करते तथा पद रचना करते। 
नारायण स्वामी प्रायः केशीघाट पर खपटिया बाबा के घेरे में यमुना तट पर रहते थे। वृंदावन की रासमंडली में उनके पदों का गायन होता था। कुछ दिनों बाद उन्होंने नौकरी छोड़कर पूर्ण वैराग्य ले लिया। नारायण स्वामी ने ब्रज विहार नामक एक ग्रंथ की रचना की थी। उसमें भगवान की लीलाओं का श्रृगाररस से ओत-प्रोत सरस वर्णन हुआ है। उनके दोहे और पद बड़े ही उपदेशप्रद और सरल हैं। श्रीगोवर्धन के समीप फाल्गुन कृष्ण एकादशी संवत 1957 को उन्होंने देहत्याग किया।

प्रस्तुत है, नारायण स्वामी का एक पद-

मूरख, छांड़ि वृथा अभिमान।
औसर बीति चल्यौ है तेरो, दो दिन कौ मेहमान।
भूप अनेक भयो पृथ्वी पर, रूप तेज बलवान।
कौन बच्यो या काल ब्याल तें, मिट गए नाम निसान।
धवल धाम धन गज रथ सेना, नारी चंद्र समान।
अंत समै सब ही कों तजकै, जाय बसे समसान।
तजि सतसंग भ्रमत बिषयन में जा बिधि मरकट स्वान।
छिन भरि बैठि न सुमरनि कीन्हों, जासों होय कल्यान।
रे मन मूढ़ अनत जनि भटकै, मेरी कहो अब मान।
नारायण ब्रजराज कुंवर सों, बेगहि करि पहिचान।


भावार्थ-
अरे मूर्ख मन, तू व्यर्थ का अभिमान त्याग दे। तेरा समय बीत चुका है, इस संसार में अब तू केवल दो दिन का मेहमान है। इस पृथ्वी पर रूप, तेज और बलयुक्त अनेक राजा हुए किंतु सब काल के गाल में समा गए। धन, संपत्ति, रथ सेना आदि को अंतिम समय में छोड़कर श्मशान में जाना पड़ा। जैसे कुत्ता मरे हुए जीवों के आस-पास विचरण करता है, उसी तरह तू सतसंग को छोड़कर विषयों में भटक रहा है। कुछ क्षण बैठ कर हरि को स्मरण नहीं करता जिससे तेरा कल्याण होगा। अब और मत भटक, श्रीकृष्ण के साथ शीघ्र ही पहचान बना ले।

गीतिका



रात ने जब-जब किया श्रृंगार है,
चांद माथे पर सजा हर बार है।


ओस, जैसे अश्रु की बूंदें झरीं,
चांदनी रोती रही सौ बार है।


नीलिमा लिपटी सुबह आकाश से,
क्षितिज का मुंह लाज से रतनार है।


खिलखिलाकर खिल उठी है कुमुदिनी,
किरण ने उस पर लुटाया प्यार है।


ढीठ बादल देख इतराता हुआ,
सूर्य का चेहरा हुआ अंगार है।


दिवस के मन में उदासी छा गई,
सांझ उसका छूटता घर-बार है।


हैं यही सब रंग जीवन में मनुज के,
लोग कहते हैं यही संसार है।

                                                       -महेन्द्र वर्मा

मेरे दोस्त ने की है तारीफ़ मेरी


ग़ज़ल
रचनाकार में पूर्व प्रकाशित

कोई शख़्स ग़म से घिरा लग रहा था,
हुआ जख़्म उसका हरा लग रहा था।


मेरे दोस्त ने की है तारीफ़ मेरी, 
किसी को मग़र ये बुरा लग रहा था।


ये चाहा कि इंसां बनूं मैं तभी से,
सभी की नज़र से गिरा लग रहा था।


लगाया किसी ने गले ख़ुशदिली से, 
छुपाता बगल में छुरा लग रहा था।


मैं आया हूं अहसान तेरा चुकाने,
ये जिसने कहा सिरफिरा लग रहा था।


जो होने लगे हादसे रोज इतने,
सुना है ख़ुदा भी डरा लग रहा था।


ग़र इंसाफ तुझको दिखा हो बताओ,
वो जीता हुआ या मरा लग रहा था।

                                                              -महेन्द्र वर्मा

नवगीत




पंछी के कोटर में 
सपनों के जाले।
चुगती है संध्या भी
नेह के निवाले।


गगन तिमिर निरख रहा
तारों का क्रंदन,
रजनी के भाल, चंद्र
लेप गया चंदन।


दृग संपुट खोल रहे
भोर के उजाले।


जुगनू की देह हुई
रश्मि पुंज वर्तन,
नूपुर छनकाता है
झींगुर का नर्तन।


नीरव के अधरों के
तोड़ सभी ताले।

                        -महेन्द्र वर्मा

फागुनी दोहे



देहरी पर आहट हुई, फागुन पूछे कौन।
मैं बसंत तेरा सखा, तू क्यों अब तक मौन।।


निरखत बासंती छटा, फागुन हुआ निहाल।
इतराता सा वह चला, लेकर रंग गुलाल।।


कलियों के संकोच से, फागुन हुआ अधीर।
वन-उपवन के भाल पर, मलता गया अबीर।।


टेसू पर उसने किया, बंकिम दृष्टि निपात।
लाल लाज से हो गया, वसन हीन था गात।।


अमराई की छांव में, फागुन छेड़े गीत।
बेचारे बौरा गए, गात हो गए पीत।।


फागुन और बसंत मिल, करे हास-परिहास।
उनको हंसता देखकर, पतझर हुआ उदास।।


पूनम फागुन से मिली, बोली नेह लुटाय।
और माह फीके लगे, तेरा रंग सुहाय।।


आतंकी फागुन हुआ, मौसम था मुस्तैद।
आनन-फानन दे दिया, एक वर्ष की क़ैद।।

आप सब को होली की शुभकामनाएं

                                                                              -महेन्द्र वर्मा

हिंदयुग्म का वार्षिकोत्सव



कल 5 मार्च, 2011 को नई दिल्ली के राजेन्द्र भवन ट्रस्ट सभागार में हिंदयुग्म का वार्षिक सम्मान समारोह आयोजित हुआ। इस आयोजन में 12 यूनिकवियों को सम्मानित किया गया। सम्मानित होने वाले कवियों की सूची में एक नाम मेरा भी था। यह आप सब की शुभकामनाओं का असर है...।
अस्वस्थता के कारण मैं इस कार्यक्रम में भाग नहीं ले सका।
बहरहाल मैं उस ग़ज़ल को यहां प्रस्तुत कर रहा हूं जो हिंदयुग्म की सितम्बर  2010 की प्रतियोगिता में प्रथम स्थान पर चयनित हुई थी।

आपकी दीवानगी बिल्कुल लगे मेरी तरह,
ये अचानक आप कैसे हो गए मेरी तरह।


इक अकेला मैं नहीं कुछ और भी हैं शहर में, 
जेब में रक्खे हुए दो  चेहरे मेरी तरह।


भीड़ से पूछा किसी ने किस तरह हो आदमी,
हो गई मुश्किल कि सारे कह उठे मेरी तरह।


लोग जो सब जानने का कर रहे दावा मगर,
दरहक़ीकत वे नहीं कुछ जानते मेरी तरह।


किस लिए   यूं  आह के पैबंद टांके जा रहे,
क्या जिगर में छेद हैं अहसास के मेरी तरह।


ख़ुदपरस्ती के अंधेरे में भला कैसे जिएं,
देख जैसे जल रहे हैं ये दिये मेरी तरह।


मजहबी धागे उलझते जा रहे थे और वे,
नोक से तलवार की सुलझा रहे मेरी तरह।

                                                                       -महेन्द्र वर्मा

ग़ज़ल



अक्स निशाने पर था रक्खा किसी और का,
शीशा टूट-टूट कर बिखरा किसी और का।


दरवाजे  पर  देख  मुझे  मायूस हुए वो, 
शायद उनको इंतज़ार था किसी और का।


बहुत  दिनों  के  बाद कहीं से ख़त इक आया,
नाम मगर उस पर लिक्खा था किसी और का।


यादों का इक रेला मन को तरल कर गया, 
आंचल भिगो रहा अब होगा किसी और का।


दोस्त  हमारे  कतरा  कर  यूं निकल गए,
मेरा चेहरा समझा होगा किसी और का।


जब दीवारें  अपनेपन  के  बीच  खड़ी हों, 
अपना आंगन लगने लगता किसी और का।


सुबह धूप  का  टुकड़ा  उतरा  देहरी पर,
रुका नहीं वह मेहमान था किसी और का।

                                                                    -महेन्द्र वर्मा

उतना ही सबको मिलना है



ग़ज़ल

उतना ही सबको मिलना है,
जिसके हिस्से में जितना है।


क्यूं ईमान सजा कर रक्खा,
उसको तो यूं ही लुटना है।


ढोते रहें सलीबें अपनी, 
जिनको सूली पर चढ़ना है।


मुड़ कर नहीं देखता कोई, 
व्यर्थ किसी से कुछ कहना है।


जंग आज की जीत चुका हूं,
कल जीवन से फिर लड़ना है।


सूरज हूं जलता रहता हूं,
दुनिया को ज़िंदा रखना है।


बोल सभी लेते हैं लेकिन,
किसने सीखा चुप रहना है।

                                              -महेन्द्र वर्मा


गीतिका





एक दिया तो जल जाने दे,
सूरज को कुछ सुस्ताने दे।


पलट रहा क्यूं आईने को,
जो सच है वो दिखलाने दे।


एक सिरा तो थामो तुम भी,
उलझा है जो सुलझाने दे।


चिंगारी रख ऐसी दिल में,
अंगारों को शरमाने दे।


कैद न कर पंछी पिंजरे में,
उसे मुक्ति का सुर गाने दे।


यादें, इतनी जल्दी न जा,
आंखों को तो भर जाने दे।


बादल हूं बरसूंगा, पहले
परवत से तो टकराने दे।

                                           -महेन्द्र वर्मा


गीत मैं गाने लगा हूं




गीत मैं गाने लगा हूं,
स्वप्न फिर बुनने लगा हूं।


तमस से मैं जूझता था,
कुछ न मन को सूझता था,
हृदय के सूने गगन में,
सूर्य सा जलने लगा हूं,
गीत मैं गाने लगा हूं।


आंसुओं के साथ जीते,
वर्ष कितने आज बीते,
भूल कर सारी व्यथाएं,
स्वयं को छलने लगा हूं,
गीत मैं गाने लगा हूं।


भावनाओं ने उकेरे,
चित्र सुधियों के घनेरे,
कंटकों के बीच सुरभित-
सुमन सा खिलने लगा हूं,
गीत मैं गाने लगा हूं।

                                              -महेन्द्र वर्मा

गीतिका





बंद होती सभी खिड़कियां देखिए,
ढा रही हैं कहर आंधियां देखिए।


याद मुझको करे कोई्र ऐसा नहीं,
आ रही हैं मगर हिचकियां देखिए।


भीड़ को फिर कोई आश्वासन मिला, 
बज रही हैं उधर तालियां देखिए।


चल रहे थे मेरी रहनुमाई में जो,
आज गिनते रहे गलतियां देखिए।


जल चुकी हैं मगर ऐंठ बाक़ी रही,
राख सी हो चुकी रस्सियां देखिए।


किस अदा से पसीना दिखाता असर,
खेत में झूमती बालियां देखिए।


रंग फीके लगें ज़िंदगी के अगर,
बाग़ में उड़ रही तितलियां देखिए।

                                                           -महेन्द्र वर्मा


जीवन




स्वार्थ का परमार्थ से है युद्ध जीवन,
हो नहीं सकता सभी का बुद्ध जीवन।


श्रम हुआ निष्फल, कभी पुरुषार्थ आहत,
नियति के आक्रोश से स्तब्ध जीवन।


पूर्ण न होतीं कभी भी कामनाएं,
लालसाओं से सदा विक्षुब्ध जीवन।


जिन विधानों से हुई रचना जगत की,
क्या उन्हीं से है नहीं आबद्ध जीवन ?


ज्ञात हो जिसको बताए सत्य क्या है,
कर्म का संकल्प या प्रारब्ध जीवन।


शास्त्र कहता है सदा चलते रहो पर,
है अधूरे मार्ग सा अवरुद्ध जीवन।


भाव से न अभाव से संबंध इसका,
मात्र श्वासों से रहा संबद्ध जीवन।


                                                           -महेन्द्र वर्मा

ख़ाक है संसार





बुलबुले सी ज़िदगानी, या ख़ुदा,
है कोई झूठी कहानी, या ख़ुदा।


वक़्त की फिरकी उफ़क पर जा रही,
छोड़ती अपनी निशानी, या ख़ुदा।


पांव धरती पर गड़े सबके मगर,
ख़्वाब बुनते आसमानी, या ख़ुदा।


फूल मुरझाने लगे हैं चमन के,
खो गई है रुत सुहानी, या ख़ुदा।


उल्लुओं ने पंख नोचे हंसिनी के,
दुश्मनी लगती पुरानी, या ख़ुदा।


हंस रहे होगे हमारे हाल पर,
आपकी है मेहरबानी, या ख़ुदा।


ख़ाक है संसार, माज़ी के सिवा, 
है यहां हर चीज़ फ़ानी, या ख़ुदा।

                                                -महेन्द्र वर्मा
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उफ़क - क्षितिज, उल्लू - लक्ष्मी का वाहन
हंसिनी /हंस - सरस्वती का वाहन
माज़ी - अतीत, फ़ानी - नश्वर

ज़िदगी से सुर मिलाना चाहिए



अब अंधेरे को डराना चाहिए
फिर कोई सूरज उगाना चाहिए।

शोर से ऊबी गली ने फिर कहा
झींगुरों को गुनगुनाना चाहिए।

जुगनुओं को देख तारे जल गए
अब हमें भी झिलमिलाना चाहिए।

प्यार के पल को समझने के लिए
सुन रहे हैं इक ज़माना चाहिए।

आदमी को कुछ नही तो कम से कम
जि़्दगी से सुर मिलाना चाहिए।

क्या पता कब दाग़ लग जाए कहीं
वक़्त से दामन बचाना चाहिए।

                                       -महेन्द्र वर्मा

इंसान की बातें करें

नूतन वर्ष की प्रथम रचना


सृजन का संकल्प लें,
निर्माण की बातें करें।
कामनाएं शुभ करें,
कल्याण की बातें करें।


जन्म लेता है उजाला,
हर तमस के गर्भ से,
क्यों नही तब आज स्वर्ण-
विहान की बातें करें।


अनुकरण उनका करें जो,
विश्व के आदर्श हैं,
न्याय के पथ पर चलें,
ईमान की बातें करें।


हृदय में हो नेहपूरित-
भावना सबके लिए,
यों परस्पर मान की,
सम्मान की बातें करें।


बढ़ चले हैं राह पर,
अब पग नहीं पीछे हटें,
प्रगति के सोपान की,
उत्थान की बातें करें।


है प्रकृति का नेह हम पर,
जान लें पहचान लें,
दृष्टि वैसी दे सके,
उस ज्ञान की बातें करें।


बात तो करते रहे हैं,
हम सदा भगवान की,
अब चलो ऐसा करें,
इंसान की बातें करें।

                                 -महेन्द्र वर्मा

कैलेण्डर की कहानी



                    तिथि, माह और वर्ष की गणना के लिए ईस्वी सन् वाले कैलेण्डर का प्रयोग आज पूरे विश्व में हो रहा है। यह कैलेण्डर आज से 2700 वर्ष पूर्व प्रचलित रोमन कैलेण्डर का ही क्रमशः संशोधित रूप है। 46 ई. पूर्व में इसका नाम जूलियन कैलेण्डर हुआ और 1752 ई. से इसे ग्रेगोरियन कैलेण्डर कहा जाने लगा।
                    रोमन कैलेण्डर की शुरुआत रोम नगर की स्थापना करने वाले पौराणिक राजा रोम्युलस के पंचांग से होती है। वर्ष की गणना रोम नगर की स्थापना वर्ष 753 ई. पूर्व से की जाती थी। इसे संक्षेप में ए.यू.सी. अर्थात एन्नो अरबिस कांडिटाइ कहा जाता था, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘शहर की स्थापना के वर्ष से‘ हैं। रोम्युलस के इस कैलेण्डर में वर्ष में दस महीने होते थे। इन महीनों में प्रथम चार का नाम रोमन देवताओं पर आधारित था, शेष छह महीनों के नाम क्रम संख्यांक पर आधारित थे। दस महीनों के नाम क्रमशः इस प्रकार थे- मार्टियुस,एप्रिलिस, मेयुस, जूनियुस, क्विंटिलिस, सेक्स्टिलिस, सेप्टेम्बर, आक्टोबर, नोवेम्बर और डिसेम्बर। मार्टियुस जिसे अब मार्च कहा जाता है, वर्ष का पहला महीना था। नए वर्ष का आरंभ मार्टियुस अर्थात मार्च की 25 तारीख को होता था क्योंकि इसी दिन रोम के न्यायाधीष शपथ ग्रहण करते थे। इस कैलेण्डर में तब जनवरी और फरवरी माह नहीं थे।
                    लगभग 700 ई. पूर्व रोम के द्वितीय नरेश न्यूमा पाम्पलियस ने कैलेण्डर में दो नए महीने - जेन्युअरी और फेब्रुअरी - क्रमशः ग्यारहवें और बारहवें महीने के रूप में जोड़े। यह कैलेण्डर 355 दिनों के चांद्र वर्ष पर आधारित था। इसमें 7 महीने 29 दिनों के, 4 महीने 31 दिनों के और फेब्रुअरी महीना 28 दिनों का होता था।  इस कैलेण्डर का उपयोग रोमवासी 45 ई. पूर्व तक करते रहे।
                    सन् 46 ई. पूर्व में रोमन सम्राट जूलियस सीज़र ने अनुभव किया कि त्योहार और मौसम में अंतर आने लगा है। इसका कारण यह था कि प्रचलित कैलेण्डर चांद्रवर्ष पर आधारित था जबकि ऋतुएं सौर वर्ष पर आधारित होती हैं। जूलियस सीज़र ने अपने ज्योतिषी सोसिजेनस की सलाह पर 355 दिन के वर्ष में 10 दिन और जोड़कर वर्ष की अवधि 365 दिन 6 घंटे निर्धारित किया। वर्ष की अवधि में जो छह घंटे अतिरिक्त थे वे चार वर्षों में कुल 24 घंटे अर्थात एक दिन के बराबर हो जाते थे। अतः सीज़र ने प्रत्येक चौथे वर्ष का मान 366 दिन रखे जाने का नियम बनाया और इसे लीप ईयर का नाम दिया। लीप ईयर के इस एक अतिरिक्त दिन को अंतिम महीने अर्थात फेब्रुअरी में जोड़ दिया जाता था। जूलियस सीज़र ने क्विंटिलिस नामक पांचवे माह का नाम बदलकर जुलाई कर दिया क्योंकि उसका जन्म इसी माह में हुआ था।
                    जूलियस सीज़र द्वारा संशोधित रोमन कैलेण्डर का नाम 46 ई. पूर्व से जूलियन कैलेण्डर हो गया। इसके 2 वर्ष पश्चात सीज़र की हत्या कर दी गई। आगस्टस रोम का नया सम्राट बना। आगस्टस ने सेक्स्टिलिस महीने में ही युद्धों में सबसे अधिक विजय प्राप्त की थी इसलिए उसने इस महीने का नाम बदलकर अपने नाम पर आगस्ट कर दिया।
                    जूलियन कैलेण्डर अब प्रचलन में आ चुका था। किंतु कैलेण्डर बनाने वाले पुरोहित लीप ईयर संबंधी व्यवस्था को ठीक से समझ नहीं सके । चौथा वर्ष गिनते समय वे दोनों लीप ईयर को शामिल कर लेते थे। फलस्वरूप प्रत्येक तीन महीने में फेब्रुअरी माह में एक अतिरिक्त दिन जोड़ा जाने लगा। इस गड़बड़ी का पता 50 साल बाद लगा और तब कैलेण्डर को पुनः संशोधित किया गया। तब तक ईसा मसीह का जन्म हो चुका था किंतु ईस्वी सन् की शुरुआत नहीं हुई थी। जूलियन कैलेण्डर के साथ रोमन संवत ए.यू.सी. का ही प्रयोग होता था। ईस्वी सन् की शुरुआत ईसा के जन्म के 532 वर्ष बाद सीथिया के शासक डाइनीसियस एक्लिगुस ने की थी। ईसाई समुदाय में ईस्वी सन् के साथ जूलियन कैलेण्डर का प्रयोग रोमन शासक शार्लोमान की मृत्यु के दो वर्ष पश्चात सन् 816 ईस्वी से ही हो सका।
                    जूलियन कैलेण्डर रोमन साम्राज्य में 1500 वर्षों तक अच्छे ढंग से चलता रहा। अपने पूर्ववर्ती कैलेण्डरों से यह अधिक सही था। इतने पर भी इसका वर्षमान सौर वर्ष से 0.0078 दिन या लगभग 11 मिनट अधिक था। बाद के 1500 वर्षों में यह अधिकता बढ़कर पूरे 10 दिनों की हो गई।
                    1582 ई. में रोम के पोप ग्रेगोरी तेरहवें ने कैलेण्डर के इस अंतर को पहचाना और इसे सुधारने का निश्चय किया। उसने 4 अक्टूबर 1582 ई. को यह व्यवस्था की कि दस अतिरिक्त दिनों को छोड़कर अगले दिन 5 अक्टूबर की बजाय 15 अक्टूबर की तारीख होगी, अर्थात 5 अक्टूबर से 14 अक्टूबर तक की तिथि कैलेण्डर से विलोपित कर दी गई। भविष्य में कैलेण्डर वर्ष और सौर वर्ष में अंतर नहो, इसके लिए ग्रेगोरी ने यह नियम बनाया कि प्रत्येक 400 वर्षों में एक बार लीप वर्ष में एक अतिरिक्त दिन न जोड़ा जाए। सुविधा के लिए यह निर्धारित किया गया कि शताब्दी वर्ष यदि 400 से विभाज्य है तभी वह लीप ईयर माना जाएगा। इसीलिए सन् 1600 और 2000 लीप ईयर थे किंतु सन् 1700, 1800 और 1900 लीप ईयर नहीं थे, भले ही ये 4 से विभाज्य हैं।
ग्रेगोरी ने जूलियन कैलेण्डर में एक और महत्वपूर्ण संशोधन यह किया कि नए वर्ष का आरंभ 25 मार्च की बजाय 1 जनवरी से कर दिया। इस तरह जनवरी माह जो जूलियन कैलेण्डर में 11वां महीना था, पहला महीना और फरवरी दूसरा महीना बन गया।
                    इटली, डेनमार्क और हालैंड ने ग्रेगोरियन कैलेण्डर को उसी वर्ष अपना लिया। ग्रेट ब्रिटेन और उसके उपनिवेशों ने 1752 ई.में, जर्मनी और स्विटज़रलैंड ने 1759 ई. में, आयरलैंड ने 1839 ई. में, रूस ने 1917 ई. में और थाइलैंड ने सबसे बाद में, सन् 1941 में इस नए कैलेण्डर को अपने देश में लागू किया।
 नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं
                                                                                                                             -महेन्द्र वर्मा

है कैसा दस्तूर




भूल चुके हैं हरदम साथ निभाने वाले,
याद किसे रखते हैं आज ज़माने वाले।


दूर कहीं जाकर बहलाएं मन को वरना,
चले यहां भी आएंगे बहकाने वाले।


उनका कहना है वो हैं हमदर्द हमारे,
चेहरे बदल रहे अब हमें मिटाने वाले।


रस्ते कहां, कहां मंज़िल है कौन बताए,
भटक गए हैं खु़द ही राह दिखाने वाले।


सुनते हैं रोने से दुख हल्का होता है,
कैसे जीते होंगे फिर न रोने वाले।


है कैसा दस्तूर निराला दुनिया का,
अंधियारे में बैठे शमा जलाने वाले।


रोते रोते ऊब चुके वे पूछा करते,
क्या तुमने देखे हैं कहीं हंसाने वाले।


                                                        -महेन्द्र वर्मा

आप भी






‘ग़र अकेले ऊब जाएं आप भी,
आईने से दिल लगाएं आप भी।


देखिए शम्आ की जानिब इक नज़र,
ज़िदगी को यूं लुटाएं आप भी।


हर अंधेरे में नहीं होता अंधेरा,
आंख से परदा हटाएं आप भी।


जान लोगे लोग जीते किस तरह हैं,
इक मुखौटा तो लगाएं आप भी।


भूल जाएं रंज अब ऐसा करें,
साथ मेरे गुनगुनाएं आप भी।


सब इसे कहते, ख़ुदा की राह है,
आशिक़ी को आज़माएं आप भी।


मैं कबीरा की लुकाठी ले चला हूं,
हो सके तो साथ आएं आप भी।

                                                       -महेन्द्र वर्मा

तितलियों का ज़िक्र हो





प्यार का, अहसास का, ख़ामोशियों का ज़िक्र हो,
महफिलों में अब जरा तन्हाइयों का ज़िक्र हो।


मीर, ग़ालिब की ग़ज़ल या, जिगर के कुछ शे‘र हों,
जो कबीरा ने कही, उन साखियों का ज़िक्र हो।


रास्ते तो और भी हैं, वक़्त भी, उम्मीद भी,
क्या जरूरत है भला, मायूसियों का ज़िक्र हो।


फिर बहारें आ रही हैं, चाहिए अब हर तरफ़,
मौसमों का गुलशनों का, तितलियों का ज़िक्र हो।


गंध मिट्टी की नहीं ,महसूस होती सड़क पर,
चंद लम्हे गांव की, पगडंडियों का ज़िक्र हो।


इस शहर की हर गली में, ढेर हैं बारूद के,
बुझा देना ग़र कहीं, चिन्गारियों का ज़िक्र हो।


दोष सूरज का नहीं है, ज़िक्र उसका न करो,
धूप से लड़ती हुई परछाइयों का ज़िक्र हो।

                                                                            -महेन्द्र वर्मा                                            

नया ज़माना

  



नाकामी को ढंकते क्यूं हो,
नए बहाने गढ़ते क्यूं हो ?


रस्ते तो बिल्कुल सीधे हैं,
टेढ़े-मेढ़े चलते क्यूं हो ?


तुमने तो कुछ किया भी नहीं,
थके-थके से लगते क्यूं हो ?


भीतर कालिख भरी हुई है,
बाहर उजले दिखते क्यूं हो ?


पैर तुम्हारे मुड़ सकते हैं,
चादर छोटी कहते क्यूं हो ?


कद्र वक़्त की करना सीखो,
छत की कड़ियां गिनते क्यूं हो ?


नया ज़माना पूछ रहा है,
मुझ पर इतना हंसते क्यूं हो ?


                        -महेन्द्र वर्मा

गुज़रा हुआ ज़माना ढूंढ




लम्हा  एक  पुराना  ढूंढ,
फिर खोया अफ़साना ढूंढ।


वे गलियां वे घर वे लोग,
गुज़रा हुआ ज़माना ढूंढ।


भला मिलेगा क्या गुलाब से,
बरगद  एक  सयाना  ढूंढ।


लोग बदल से गए यहां के,
कोई  और  ठिकाना  ढूंढ।


कुदरत में है तरह तरह के,
  सुंदर  एक  तराना ढूंढ।


दिल की गहराई जो नापे,
ऐसा  इक  पैमाना   ढूंढ।


प्रेम   वहीं  कोने पर बैठा,
दिल को ज़रा दुबारा ढूंढ।


जिस पर तेरा नाम लिखा हो,
ऐसा   कोई   दाना   ढूंढ।


                                          - महेन्द्र वर्मा

सारी दुनिया




तेरा  मुझसे  क्या  नाता  है, पूछ  रही  है  सारी  दुनिया,
अपनी मर्जी का मालिक बन, अड़ी खड़ी है सारी दुनिया।


बारूदी पंखुड़ी लगा कर, काल उड़ रहा आसमान में,
नागासाकी  न  हो  जाए, डरी  डरी  है सारी दुनिया।


जाने कितने पिण्ड सृष्टि के, ब्लैक होल में बदल गए,
धरती उसमें समा न जाए, सहम गयी है सारी दुनिया।


अनगिन लोग हैं जिनके सर पर, छत की छांव नहीं लेकिन,
मंगल ग्रह  पर  महल  बनाने, मचल  उठी है सारी दुनिया।


ढूंढ रहा था मैं दुनिया को, देखा जब तो सिहर गया,
लाशों के  मलबे के  नीचे, दबी  पड़ी  है सारी दुनिया।


संबंधों के  फूल  महकते, थे  जो  सारे  सूख  गए हैं,
ढाई आखर के मतलब को भूल चुकी है सारी दुनिया।


आंधी तूफां तो  जीवन  में, आते  जाते ही रहते हैं,
नई नई उम्मीदों से भी, भरी भरी है सारी दुनिया।


मां की ममता के आंगन में, थिरक रहा है बचपन सारा,
उसके आंचल  के  कोने  से, नहीं बड़ी है सारी दुनिया।

                                                               - महेन्द्र वर्मा

संत चरणदास




वि.सं. 1760 की भाद्रपद शुक्ल तृतीया, मंगलवार को मेवात के अंतर्गत डेहरा नामक स्थान में संत चरणदास का जन्म हुआ था। इनका पूर्व नाम रणजीत था। पांच-सात वर्ष की अवस्था में ही इन्हें कुछ आध्यात्मिक ज्ञान हो गया था। इनके गुरु का नाम शुकदेव था। संत चरणदास ने गुरु से दीक्षित होकर कुछ दिनों तक तीर्थाटन किया और बहुत दिनों तक ब्रजमंडल में रहकर श्रीमद्भागवत का अध्ययन किया। इनके अंतिम 50 वर्ष अपने मत के प्रचार में ही बीते। इन्होंने सं. 1839 की अगहन सुदी 4 को दिल्ली में अपना देह त्याग किया।
संत चरणदास को ग्रंथ रचना का अच्छा अभ्यास था। इनके द्वारा रचित 21 ग्रंथों का पता चलता है। ये ग्रंथ मुंबई और लखनउ से प्रकाशित हो चुके हैं। इनके मुख्य 12 ग्रंथों के प्रधान विषय योग साधना, भक्तियोग एवं ब्रह्म ज्ञान है। ये नैतिक शुद्धता के पूर्ण पक्षधर है और चित्त शुद्धि, प्रेम, श्रद्धा एवं सद्व्यवहार को उसका आधार मानते हैं। इनकी रचनाओें में इनकी स्वानुभूति के साथ-साथ अध्ययनशीलता का भी परिचय मिलता है।
प्रस्तुत है, संत चरणदास का एक पद-

साधो निंदक मित्र हमारा।
निंदक को निकटे ही राखो, होन न देउं नियारा।
पाछे निंदा करि अब धोवै, सुनि मन मिटै विकारा।
जैसे सोना तापि अगिन में, निरमल करै सोनारा।
घन अहिरन कसि हीरा निबटै, कीमत लच्छ हजारा।
ऐसे जांचत दुष्ट संत को, करन जगत उजियारा।
जोग-जग्य-जप पाप कटन हितु, करै सकल संसारा।
बिन करनी मम करम कठिन सब, मेटै निंदक प्यारा।
सुखी रहो निंदक जग माहीं, रोग न हो तन सारा।
हमरी निंदा करने वाला, उतरै भवनिधि प्यारा।
निंदक के चरनों की अस्तुति, भाखौं बारंबारा।
चरनदास कह सुनियो साधो, निंदक साधक भारा।


भावार्थ-
हे साधक, निंदा करने वाला तो हमारा मित्र है, उसे अपने पास ही रखो, दूर मत करो। भले ही वह निंदा करता है लेकिन उसे सुनकर हमारे मन के विकार नष्ट हो जाते हैं। जैसे सुनार सोने को आग में तपा कर और जौहरी हीरे को कठोर कसौटी में कसता है जिससे उसकी कीमत लाखों हजारों हो जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग जगत में प्रकाश फैलाने के लिए संतो की परख करते हैं। पूरा संसार योग, यज्ञ जप आदि से अपने पापों के नाश का उपाय करते हैं लेकिन बिना कुछ प्रयास किए मेरे कुटिल कर्मों को निंदक मिटा देता है। इस संसार में निंदक सुखी रहें, उन्हें कोई रोग न हो, उसे भवसागर से मुक्ति मिले। मैं उसके चरणों की वंदना करता हूं। चरणदास जी कहते हैं कि साधक के लिए निंदक महत्वपूर्ण है।

अजीब लोग हैं




नसीब को हैं कोसते अजीब लोग हैं, 
यूं ज़िदगी गुजारते, अजीब लोग हैं।


हमने कहा जो हां मगर, उसने कहा नहीं,
हर बात को नकारते, अजीब लोग हैं।


मरना है एक दिन ये जानते हुए भी वो,
सांसें उधार मांगते अजीब लोग हैं।


भीतर भरा हुआ फरेब छल कपट मगर,
ऊपर बदन संवारते, अजीब लोग हैं।


जिनका न कभी इल्म से नाता रहा कोई,
वो फलसफे बघारते, अजीब लोग हैं।


कुछ ने कहा ख़ुदा है, कुछ ने कहा नहीं,
बेकार वक़्त काटते, अजीब लोग हैं।

गुरु नानकदेव जी




आदिगुरु नानकदेव जी का जन्म 15 अप्रेल, 1469 ईस्वी को पंजाब के तलवंडी नामक स्थान में हुआ था। तलवंडी लाहौर से 30 मील दूर स्थित है और अब ‘ननकाना साहब‘ के नाम से पवित्र तीर्थ बन गया है। नानक की विलक्षण प्रतिभा बचपन से ही प्रकट होने लगी थी। सात वर्ष की उम्र में पिता ने शिक्षक के पास पढ़ने के लिए भेजा तो नानक ने कहा - ऐसी पढा़ई मेरे किस काम की, यह तो यहीं रह जाएगी। मैं तो ऐसी पढ़ाई पढूंगा जो अंत समय तक मेरे साथ रहे।
18 वर्ष की उम्र में इनका विवाह सुलक्षणा देवी के साथ हुआ। उनके श्रीचंद और लक्ष्मीदास नाम के दो पुत्र भी हुए। परंतु नानक का मन गृहस्थी में नहीं लगा। वे परिवार छोड़कर तीर्थयात्रा के लिए निकल गए। आपने 1507 से 1521 ई. तक हरिद्वार, अयोध्या, प्रयाग, गया, पटना, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम, सोमनाथ, द्वारका, मक्क, मदीना, बगदाद आदि स्थानों का यात्राएं की । इन यात्राओं में आपने अपने उपदेशों से लोगों का जीवन बदल दिया ओर उन्हें कर्मकांड के आडंबरों से निकालकर सच्ची भक्ति की ओर प्रेरित किया। छुआछूत का उन्होंने सदैव विरोध किया। वे सबको समान और एक ईश्वर के बंदे मानते थे।
गुरु नानकदेव जी पदों की रचना करके गाते और उनका शिष्य मरदाना रबाब बजाया करता था। इनकी वाणियां आदिग्रंथ में ‘महला‘ के अंतर्गत रखी गई हैं। जपुजी, असादीवार, रहिरास एवं सोहिला भी गुरु नानकदेव की रचनाएं हैं। इनमें सबद और सलोक हैं। उनकी रचनाओं में एकेश्वरवाद, परमात्मा की सर्वव्यापकता, विश्व प्रेम, नाम की महत्ता आदि बातों का विशेष उल्लेख मिलता हैं। इन्होंने सिख धर्म का प्रवर्तन किया।
अपने जीवन के अंतिम दिनों में ये कर्तारपुर में रहकर भजन एवं सत्संग करने लगे थे । यहीं 1538 ई. में अपनी गद्दी का भार गुरु अंगददेव को सौंप कर उन्होंने अपने शरीर का त्याग किया।
प्रस्तुत है गुरु नानकदेव जी का एक सबद -

(भूल सुधार -  एक  अज्ञात  टिप्पणीकार  ने  ध्यानाकर्षित  किया है कि यह  सबद गुरु तेग बहादुर सिंह जी  द्वारा रचित है , उनके प्रति आभार  . उन्होंने  लिखा है - 
Anonymous said...

A slight correction, this Shabad was authored by Guru Teg Bahadur Jee and not Guru Nanak Dev jee.
This shabad is recorded in Sri Guru Granth Sahib on Page 633 by the Ninth Nanak ie., Guru Teg Bahadur Jee.
Other Sikh Guru's also recorded their teachings under the penname Nanak under appropriate Mehalaa, 9 in the case of Guru Teg Bahadur Jee.)


जो नर दुख में दुख नहिं मानै।
सुख सनेह अरु भव नहीं जाके, कंचन माटी जानै।
नहिं निंदा, नहिं अस्तुति जाके, लोभ मोह अभिमाना,
हरष सोक तें रहे नियारो, नाहिं मान अपमाना।
आसा मनसा सकल त्यागि कै, जग तें रहै निरासा,
काम क्रोध जेहिं परसै नाहीं, तेहि घट ब्रह्म निवासा।
गुरु किरपा जेहिं नर पै कीन्ही, तिन्ह यह जुगति पिछानी,
नानक लीन भयो गोबिंद सों, ज्यों पानी संग पानी।

भावार्थ- जो मनुष्य दुख में दुख की अनुभूति नहीं करता, जिसे किसी प्रकार का सुख, स्नेह और भय नहीं है, जो सोने को मिट्टी के समान समझता है, जो निंदा, प्रशंसा, लोभ, मोह, अभिमान, सुख-दुख, मान-अपमान आदि से दूर रहता है, जो आशा और मन की इच्छाओं का त्याग कर चुका है, काम-क्रोध जिसके निकट नहीं आता, जिसका संसार से मोह समाप्त हो चुका है, ऐसे व्यक्ति में परमात्मा का निवास होता है। जिस पर गुरु की कृपा होती है वही व्यक्ति इस युक्ति को पहचान सकता है। गुरुनानक जी कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति पानी में पानी मिलने के समान परमात्मा में लीन हो जाते हैं।

खामोशी भी कह देती हैं सारी बातें




तनहाई में जिनको सुकून सा मिलता है,
आईना भी उनको दुश्मन सा लगता है।


किसको आखि़र हम अपनी फरियाद सुनाएं,
हर चेहरा फरियादी जैसा ही दिखता है।


दिल में उसके चाहे जो हो, तुझको क्या,
होठों से तो तेरा नाम जपा करता है।


तेरी जिन आंखों में फागुन का डेरा था,
बात हुई क्या, उनमें अब सावन बसता है।


किसी परिंदे के पर चाहे, काटो फिर भी,
दूर उफ़क तक उसका मन उड़ता फिरता है।


ख़ामोशी भी कह देती हैं सारी बातें,
दिल की बातें कोई कब मुंह से कहता हैं।


वो तो दीवाना है, उसकी बातें छोड़ों,
अपने ग़म को ही अपनी ग़ज़लें कहता है।

                                                                         -महेन्द्र वर्मा

संत ज्ञानेश्वर






मराठी भाषा की गीता माने जानी वाली ‘ज्ञानेश्वरी‘ के रचयिता संत ज्ञानेश्वर महान संत गोरखनाथ की परम्परा में हुए। इनका जन्म सन 1275 ई. माना जाता है। जन्मस्थान आलंदी ग्राम है जो महाराष्ट्र् के पैठण के निकट है। इनके तिा का नाम विट्ठल पंत था। अपने बड़े भाई ग्यारह वर्षीय निवृत्तिनाथ से आठ वर्षीय ज्ञानेश्वर ने दीक्षा ली और संत बन गए। नाथपंथी, हठयोगी होते हुए, वेदांत के प्रखर विद्वान होने के बावजूद भक्ति के शिखर को छूने वाले संत ज्ञानेश्वर ने चार पुरुषार्थों के अतिरिक्त भक्ति को पांचवे पुरुषार्थ के रूप में स्थापित किया।
संत ज्ञानेश्वर, जो ज्ञानदेव के नाम से भी विख्यात हैं, वारकरी संप्रदाय के प्रवर्तक थे। वारकरी का अर्थ है- यात्रा करने वाला। संत ज्ञानेश्वर सदा ही यात्रारत रहे। इन्होंने उज्जयिनी, काशी, गया, अयोध्या, वृंदावन, द्वारिका,पंढरपुर आदि तीर्थों की यात्राएं कीं। ज्ञानेश्वरी के पश्चात अपने गुरु की प्रेरणा से अपने आध्यात्मिक विचारों को आकार देते हुए एक स्वतंत्र ग्रंथ ‘अमृतानुभव‘ की रचना की। इस ग्रंथ में 806 छंद हैं। इसके अतिरिक्त इनके द्वारा रचित अन्य ग्रंथ चांगदेवपासष्टी, हरिपाठ तथा योगवशिष्ठ टीका है।
तीर्थयात्रा से लौटकर संत ज्ञानेश्वर ने अपनी समाधि की तिथि निश्चित की। शक संवत 1218 कृष्णपक्ष त्रयोदशी, गुरुवार तदनुसार 25 अक्ठूबर 1296 को मात्र 22 वर्ष की अल्पायु में संत ज्ञानेश्वर ने आलंदी में समाधि ली।
प्रस्तुत है नागरी प्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित उनका एक पद-


सोई कच्चा वे नहिं गुरु का बच्चा।
दुनिया तजकर खाक रमाई, जाकर बैठा बन मा।
खेचरी मुद्रा बज्रासन मा, ध्यान धरत है मन मा।
तीरथ करके उम्मर खोई, जागे जुगति मो सारी।
हुकुम निवृति का ज्ञानेश्वर को, तिनके उपर जाना।
सद्गुरु की जब कृपा भई तब, आपहिं आप पिछाना।


भावार्थ-
बाह्याचरण, सन्यास लेकर, शरीर पर राख मलकर, वन में वास करके और विभिन्न मुद्राओं में आसन लगाने से सच्चा वैराग्य उत्पन्न नही होता। ऐसे ही तीर्थों में जाकर स्नान पूजा करना भी व्यर्थ है। इस संसार में गुरु के आदेशों पर चलने से अध्यात्म सधता है और आत्म तत्व की पहचान होती है।

दो बाल गीत

बाल दिवस विशेष 


1.
गुड्डा बहुत सयाना जी,
सीखा हुकुम चलाना जी।


पापा से बातें है करनी,
ऑफिस फोन लगाना जी।


टामी क्यों भौं-भौं करता है,
उसको दूर भगाना जी।


आंसू क्यों टप-टप टपकाते, 
छोड़ो रोना-धोना जी।


अच्छे गाते हो तुम चिंटू,
एक सुना दो गाना जी।


अब सोने दो रात हो गई,
ऊधम नहीं मचाना जी।


जाना है स्कूल सबेरे,
जल्दी मुझे जगाना जी।


2.
गोल  है चंदा सूरज गोल,
दीदी, क्या तारे भी गोल।


चूहा चूं-चूं चिड़िया चीं,
चींटी की क्या बोली बोल।


कोयल इतनी काली पर क्यों, 
कानों में रस देती घोल।


सात समंदर भरे पड़े पर,
पानी क्यों इतना अनमोल।


मां से भी पूछा था मैंने,
पर वे करतीं टालमटोल।


-महेन्द्र वर्मा